अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 137/ मन्त्र 10
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त १३७
36
त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभवः॒ शत्रु॑रिन्द्र। गू॒ढे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ह॒ । त्यत् । स॒प्त॑ऽभ्य॑: ।जाय॑मान: । अ॒श॒त्रुऽभ्य॑: । अ॒भ॒व॒: । शत्रु॑: । इ॒न्द्र॒ ॥ गू॒ल्हे इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अनु॑ । अ॒वि॒न्द॒: । वि॒भु॒मत्ऽभ्य॑: । भुव॑नेभ्य: । रण॑म् । धा॒: ॥१३७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं ह त्यत्सप्तभ्यो जायमानोऽशत्रुभ्यो अभवः शत्रुरिन्द्र। गूढे द्यावापृथिवी अन्वविन्दो विभुमद्भ्यो भुवनेभ्यो रणं धाः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्य: ।जायमान: । अशत्रुऽभ्य: । अभव: । शत्रु: । इन्द्र ॥ गूल्हे इति । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्द: । विभुमत्ऽभ्य: । भुवनेभ्य: । रणम् । धा: ॥१३७.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (त्यत् ह) तभी (जायमानः) प्रकट होता हुआ (त्वम्) तू (अशत्रुभ्यः) अशत्रु [बिना वैरवाले, आपस में मित्र] (सप्तभ्यः) सातों [कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका पाँच ज्ञान इन्द्रिय, मन और बुद्धि] के हित के लिये (शत्रुः) [दुष्टों का] शत्रु (अभवः) हुआ है। (गूढे) [अज्ञान के कारण] ढके हुए (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि को (अनु) अनुक्रम से (अविन्दः) तूने पाया है और (विभुमद्भ्यः) महत्त्ववाले (भुवनेभ्यः) लोकों को (रणम्) रमण [आनन्द] (धाः) तूने दिया है ॥१०॥
भावार्थ
राजा प्रबन्ध करे कि सब लोग शरीर और आत्मा से स्वस्थ रहकर आकाश और भूमि के पदार्थों से विज्ञान द्वारा उपकार लेकर सुखी रहें ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(त्वम्) (ह) एव (त्यत्) तत्। तदा (सप्तभ्यः) सप्तसंख्याकेभ्यः। मनोबुद्धिसहितपञ्चज्ञानेन्द्रियाणां हिताय (जायमानः) प्रादुर्भवन् सन् (अशत्रुभ्यः) शत्रुतारहितेभ्यः। परस्परमित्रभूतेभ्यः (अभवः) (शत्रुः) दुष्टानां शत्रुः (इन्द्रः) महाप्रतापिन् राजन् (गूढे) अज्ञानेन गूढे संवृते (द्यावापृथिवी) आकाशभूलोकौ। तत्रत्यपदार्थान् (अनु) अनुक्रमेण (अविन्दः) अलभथाः (विभुमद्भ्यः) महत्त्वयुक्तेभ्यः (भुवनेभ्यः) लोकेभ्यः (रणम्) मलोपः। रमणम्। आनन्दम् (धाः) दत्तवानसि ॥
विषय
अ-शत्रुओं के लिए शत्रु
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (त्वम्) = तू (ह) = निश्चय से (त्यत्) = उस कर्म को करता है कि (जायमानः) = विकास को प्राप्त करता हुआ तू (अ-शत्रुभ्यः) = जिनका शातन [Shattering-समाति] बड़ा ही कठिन है, उन (सप्तभ्यः) = काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर व अविद्या' नामक सात शत्रुओं के लिए (शत्रु: अभवः) शत्रु होते हैं-आप इनका शातन कर पाते हैं। हमारे लिए तो ये अ-शत्र ही हैं-अशातनीय ही हैं। सामान्य मनुष्य इनका शातन नहीं कर सकता। २. इन शत्रुओं का शातन करके (गूढे द्यावापृथिवी) = शत्रुओं से आवृत्त हुए-हुए मस्तिष्क [द्यावा] व शरीर [पृथिवी] को तू फिर से (अन्वविन्दः) = प्राप्त करता है। काम, क्रोध व लोभ आदि ने इन्हें आवृत्त सा कर लिया था। काम आदि के विनाश से इन्हें हम फिर प्राप्त करनेवाले होते हैं। इनको काम आदि के आवरण से रहित करके (विभुमद्भ्यः) = महत्त्वयुक्त (भुवनेभ्यः) = लोकों के लिए-शरीर के सब अंगों के लिए (रणं धा:) = तू रमणीयता को धारण करता है [रमणं धारयसि]।
भावार्थ
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर व अविद्या' ये हमारे प्रबल शत्रु है। इनका शातन करके ही हम मस्तिष्क व शरीर को स्वस्थ कर पाते हैं और तभी सब अंगों के लिए रमणीयता को धारण करनेवाले होते हैं।
सूचना
प्रस्तुत मन्त्र में काम आदि को 'अ-शत्रु' कहा है। यहाँ इसका अर्थ अशातनीय अर्थात् 'जिनका शातन कठिन है' यह है।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (त्वम्) आप जब, (त्यत् सप्तभ्यः) उन सात छन्दोंवाले वैदिक मन्त्रों में प्रतिपादित विधियों द्वारा, (जायमानः) प्रकट हो जाते हैं, तब आप (अशत्रुभ्यः) उन कामादि के—जो कि आपके तो शत्रु नहीं, अपितु उपासकों के शत्रु हैं, (शत्रुः) शातयिता अर्थात् विनाशक (अभवः) हो जाते हैं। आपने (गूळ्हे) प्रकृति की गोद में छिपे हुए (द्यावापृथिवी) द्युलोक और भूलोक को (अन्वविन्दः) प्रकट किया है। और (विभुमद्भ्यः) आकाशव्यापी (भुवनेभ्यः) लोकलोकान्तरों में (रणम्) रमणीयता (धाः) आपने स्थापित की है।
विषय
राजपद।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे इन्द ! (त्वं) तू (जायमानः) प्रकट होता हुआ (अशत्रुभ्यः) प्रजा का शासन या विनाश न करने वाले, सत् पुरुषों के हित के लिये तू (शत्रुः अभवः) दुष्टों का नाश करने वाला हो। और (सप्तभ्यः) सातों (विभुमद्भ्यः) प्रचुर धन, सामर्थ्य वाले (भुवनेभ्यः) लोकों प्रजाजनों के हित के लिये (रणं धाः) संग्राम कर और (गूल्हे) अति सुरक्षित (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी के समान राजा और प्रजा को (अनु अविन्दः) प्राप्त कर और अपने वश कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१. शिरिम्बिठिः, २ बुधः, ३, ४ ६, ययातिः। ७–११, तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा मारुत ऋषयः। १, लक्ष्मीनाशनी, २ वैश्वीदेवी, ३, ४-६ सोमः पत्र मान इन्द्रश्च देवताः। १, ३, ४-६ अनुष्टुभौ, ५-१२-अनुष्टुभः १२-१४ गायत्र्यः।
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
Thus does Indra become a victorious enemy for the seven unrivalled unholy tendencies of sense and mind and emerges a brilliant unrivalled hero. Thus does he find the real joyous heaven and earth, otherwise, for him, covered in deep darkness. Thus do you, O soul, bear and bring happiness to the regions of life vested in dignity and excellence.
Translation
O mighty king, you manifesting your grandeur become the enemy of the seven organs (by having a strict control over them) and for the well-being of the seven vast territories of the globe wage war and find the space and earth safe.
Translation
O mighty king, you manifesting your grandeur become the enemy of the seven organs (by having a strict control over them) and for the well-being of the seven vast territories of the globe wage war and find the space and earth safe.
Translation
O mighty king or soul, letst thee, becoming well-known, be surely the destroyer of inimical forces of the enemy or evil, for seven kinds of friendly subjects or seven sense-organs, wage war for these seven kinds of men of good fortunes or great energy and strength and thus attain the well-being and prosperity of both the ruling and the ruled under thy good protection
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(त्वम्) (ह) एव (त्यत्) तत्। तदा (सप्तभ्यः) सप्तसंख्याकेभ्यः। मनोबुद्धिसहितपञ्चज्ञानेन्द्रियाणां हिताय (जायमानः) प्रादुर्भवन् सन् (अशत्रुभ्यः) शत्रुतारहितेभ्यः। परस्परमित्रभूतेभ्यः (अभवः) (शत्रुः) दुष्टानां शत्रुः (इन्द्रः) महाप्रतापिन् राजन् (गूढे) अज्ञानेन गूढे संवृते (द्यावापृथिवी) आकाशभूलोकौ। तत्रत्यपदार्थान् (अनु) अनुक्रमेण (अविन्दः) अलभथाः (विभुमद्भ्यः) महत्त्वयुक्तेभ्यः (भुवनेभ्यः) लोकेभ्यः (रणम्) मलोपः। रमणम्। आनन्दम् (धाः) दत्तवानसि ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [মহাপ্রতাপী রাজা] (ত্যৎ হ) তখন ই (জায়মানঃ) প্রকট হয়ে (ত্বম্) তুমি (অশত্রুভ্যঃ) অশত্রু [শত্রুমুক্ত, পরস্পরের মিত্র] (সপ্তভ্যঃ) সাত [কান, ত্বক, নেত্র, জিহ্বা ও নাসিকা এই পাঁচ জ্ঞান ইন্দ্রিয়, মন এবং বুদ্ধি] এর হিতের জন্য (শত্রুঃ) [দুষ্টদের] শত্রু (অভবঃ) হয়েছো। (গূঢে) [অজ্ঞতার কারণে] আবৃত (দ্যাবাপৃথিবী) আকাশ এবং ভূমি (অনু) অনুক্রমে (অবিন্দঃ) তুমি প্রাপ্ত হয়েছো এবং (বিভুমদ্ভ্যঃ) মহত্ত্বযুক্ত (ভুবনেভ্যঃ) লোক-সমূহকে (রণম্) তুমি রমণ [আনন্দ] (ধাঃ) দান করো ॥১০॥
भावार्थ
রাজা প্রবন্ধ করুক যেন, সমস্ত লোক শরীর এবং আত্মায় সুস্থ থেকে আকাশ এবং ভূমির পদার্থসমূহের দ্বারা বিজ্ঞান দ্বারা উপকার গ্রহণ করে সুখী থাকে ॥১০॥
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (ত্বম্) আপনি যখন, (ত্যৎ সপ্তভ্যঃ) সেই সাত ছন্দবিশিষ্ট বৈদিক মন্ত্র-সমূহের মধ্যে প্রতিপাদিত বিধি দ্বারা, (জায়মানঃ) প্রকট হন, তখন আপনি (অশত্রুভ্যঃ) সেই কামাদির—যা আপনার তো শত্রু নয়, অপিতু উপাসকদের শত্রু, (শত্রুঃ) শাতয়িতা অর্থাৎ বিনাশক (অভবঃ) হয়/হয়ে যায়। আপনি (গূল়্হে) প্রকৃতির কোলে সুপ্ত (দ্যাবাপৃথিবী) দ্যুলোক এবং ভূলোক (অন্ববিন্দঃ) প্রকট করেছেন। এবং (বিভুমদ্ভ্যঃ) আকাশব্যাপী (ভুবনেভ্যঃ) লোকলোকান্তরের মধ্যে (রণম্) রমণীয়তা (ধাঃ) আপনি স্থাপিত করেছেন।
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