अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 143/ मन्त्र 3
सूक्त - पुरमीढाजमीढौ
देवता - अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त १४३
को वा॑म॒द्या क॑रते रा॒तह॑व्य ऊ॒तये॑ वा सुत॒पेया॑य वा॒र्कैः। ऋ॒तस्य॑ वा व॒नुषे॑ पू॒र्व्याय॒ नमो॑ येमा॒नो अ॑श्वि॒ना व॑वर्तत् ॥
स्वर सहित पद पाठक: । वा॒म् । अ॒द्य । क॒र॒ते॒ । रा॒तऽह॑व्य: । ऊ॒तये॑ । वा॒ । सु॒त॒ऽपेया॑य । वा॒ । अ॒र्कै: ॥ ऋ॒तस्य॑ । वा॒ । व॒नुषे॑ । पू॒र्व्याय॑ । नम॑: । ये॒मा॒न: । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । व॒व॒र्त॒त् ॥१४३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
को वामद्या करते रातहव्य ऊतये वा सुतपेयाय वार्कैः। ऋतस्य वा वनुषे पूर्व्याय नमो येमानो अश्विना ववर्तत् ॥
स्वर रहित पद पाठक: । वाम् । अद्य । करते । रातऽहव्य: । ऊतये । वा । सुतऽपेयाय । वा । अर्कै: ॥ ऋतस्य । वा । वनुषे । पूर्व्याय । नम: । येमान: । अश्विना । आ । ववर्तत् ॥१४३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 143; मन्त्र » 3
विषय - विद्वानों के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
हे (अश्विना) विद्याओं में पारंगत विद्वान् आचार्य और गुरु जनो ! या विद्वान् स्त्री पुरुषो ! (अद्य) आज (कः) कौन (रातहव्यः) अन्नादि का दानशील पुरुष (वाम्) तुम दोनों की (ऊतये) जीवनरक्षा के लिये (वा) और (अर्कैः) पूजा, आदर सत्कार के कर्मों द्वारा (सुतपेयाय) उत्पन्न सोमरस आदि पान योग्य पदार्थों के पान के लिये (करते) प्रबन्ध करता है ? और (कः) कौन उत्साही शिष्य (ऋतस्य) सत्य ज्ञान, वेद के (पूर्व्याय) सब से पूर्व विद्यमान (वनुषे) सेवनीय ज्ञान के लिये तुम्हारे पास (नमः) नमस्कार और आज्ञा पालन के व्रत को प्राप्त होकर (वर्तत्) रह रहा है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-७ पुरुमीढाजमीढावृषी। त्रिष्टुभः। ८ मधुमती। वामदेव ऋषिः। ९ मेधातिथि मेध्यातिथी ऋषिः॥
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