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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 143

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 143/ मन्त्र 5
    सूक्त - पुरमीढाजमीढौ देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४३

    आ नो॑ यातं दि॒वो अच्छा॑ पृथि॒व्या हि॑र॒ण्यये॑न सु॒वृता॒ रथे॑न। मा वा॑म॒न्ये नि य॑मन्देव॒यन्तः॒ सं यद्द॒दे नाभिः॑ पू॒र्व्या वा॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । न॒: । या॒त॒म् । दि॒व: । अच्छ॑ । पृ॒थि॒व्या: । हि॒र॒ण्यये॑न । सु॒ऽवृता॑ । रथे॑न ॥ मा । वा॒म् । अ॒न्ये । नि । य॒म॒न् । दे॒व॒यन्त॑: । सम् । यत् । द॒दे । नाभि॑: । पू॒र्व्या । वा॒म् ॥१४३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो यातं दिवो अच्छा पृथिव्या हिरण्ययेन सुवृता रथेन। मा वामन्ये नि यमन्देवयन्तः सं यद्ददे नाभिः पूर्व्या वाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । न: । यातम् । दिव: । अच्छ । पृथिव्या: । हिरण्ययेन । सुऽवृता । रथेन ॥ मा । वाम् । अन्ये । नि । यमन् । देवयन्त: । सम् । यत् । ददे । नाभि: । पूर्व्या । वाम् ॥१४३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 143; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    हे (अश्विना) अश्वियो ! एक रथ में संयुक्त अश्वों के समान एकत्र एक कार्य में नियुक्त विद्वान् पुरुषो ! तुम दोनों (दिवः) आकाशमार्ग से और (पृथिव्याः) पृथिवीमार्ग से भी (सुवृता) अच्छी प्रकार चलने वाले (रथेन) रथ से (नः आयातम्) हमें प्राप्त होओ। (यत्) जब कि (पूर्व्या नाभिः) पूर्व का कोई बांधने वाला कारण (संददे) बांधता हो तो (अन्ये) दूसरे लोग (देवयन्तः) आप विद्वानों की परिचर्या करने के इच्छुक होकर भी (वाम्) तुम दोनों को (मा नियमन्) न बांधे। जब दूसरे से कोई वचन हो जाय तो वे उसको निभाने के लिये औरों से उसी समय न बंधे, प्रत्युत पूर्व स्वीकृत कार्य को यथासमय करने के लिये शीघ्र यान द्वारा समय पर पहुंचे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-७ पुरुमीढाजमीढावृषी। त्रिष्टुभः। ८ मधुमती। वामदेव ऋषिः। ९ मेधातिथि मेध्यातिथी ऋषिः॥

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