अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 16
त॒रणि॑र्वि॒श्वद॑र्शतो ज्योति॒ष्कृद॑सि सूर्य। विश्व॒मा भा॑सि रोचन ॥
स्वर सहित पद पाठत॒रणि॑: । वि॒श्वऽद॑र्शत: । ज्यो॒ति॒:ऽकृत् । अ॒सि॒ । सू॒र्य॒ ॥ विश्व॑म् । आ । भा॒सि॒ । रो॒च॒न॒ ॥४७.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य। विश्वमा भासि रोचन ॥
स्वर रहित पद पाठतरणि: । विश्वऽदर्शत: । ज्योति:ऽकृत् । असि । सूर्य ॥ विश्वम् । आ । भासि । रोचन ॥४७.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 16
विषय - ईश्वर।
भावार्थ -
हे (सूर्य) सबके प्रेरक और उत्पादक प्रभो ! तू (तरणिः) सबको पार तराने वाला, (विश्वदर्शतः) विश्व का द्रष्टा, सबको दर्शनीय और (ज्योतिष्कृत् असि) सूर्य के समान ही भीतर भी प्रकाश करने हारा और समस्त सूर्यादि ज्योतियों का उत्पादक (असि) है। हे (रोचन) समस्त संसार के प्रकाशक ! प्रकाशस्वरूप ! तू (विश्वम् आभांसि) समस्त विश्व को प्रकाशित करता है और सर्वत्र प्रकाशमान है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ सुकक्षः। ४–६, १०-१२ मधुच्छन्दाः। ७-९ इरिम्बिठिः। १३-२१ प्रस्कण्वः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। एकविंशतृचं सूक्तम्॥
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