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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
    सूक्त - सुकक्षः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४७

    तमिन्द्रं॑ वाजयामसि म॒हे वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे। स वृषा॑ वृष॒भो भु॑वत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । इन्द्र॑म् । वा॒ज॒या॒म॒सि॒ । म॒हे । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे ॥ स: । वृषा॑ । वृ॒ष॒भ: । भु॒व॒त् ॥४७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमिन्द्रं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे। स वृषा वृषभो भुवत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । इन्द्रम् । वाजयामसि । महे । वृत्राय । हन्तवे ॥ स: । वृषा । वृषभ: । भुवत् ॥४७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हम लोग (वृत्राय) बड़े भारी आवरणकारी अज्ञान रूप शत्रु के (हन्तवे) नाश करने के लिये (तम् इन्द्रम्) उस ऐश्वर्यवान् इस समस्त जगत् के द्रष्टा, अथवा उस साक्षात् दर्शन देने वाले के (वाजयामसि) बल को बढ़ावें। (सः) वह (वृषा) समस्त सुखों का वर्षण करने वाला, बलवान् (वृषभः) वृषभ के समान सबका भार उठाने वाला बढ़ा बलशाली (भुवत्) सर्वत्र विद्यमान है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ सुकक्षः। ४–६, १०-१२ मधुच्छन्दाः। ७-९ इरिम्बिठिः। १३-२१ प्रस्कण्वः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। एकविंशतृचं सूक्तम्॥

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