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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 18
    सूक्त - प्रस्कण्वः देवता - सूर्यः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४७

    येना॑ पावक॒ चक्ष॑सा भुर॒ण्यन्तं॒ जनाँ॒ अनु॑। त्वं व॑रुण॒ पश्य॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । पा॒व॒क॒ । चक्ष॑सा । भु॒र॒ण्यन्त॑म् । जना॑न् । अनु॑ ॥ त्वम् । व॒रु॒ण॒ । पश्य॑सि ॥१७.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु। त्वं वरुण पश्यसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । पावक । चक्षसा । भुरण्यन्तम् । जनान् । अनु ॥ त्वम् । वरुण । पश्यसि ॥१७.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 18

    भावार्थ -
    हे (पावक) परम पावन अग्नि के समान सबके शोधक (येन) जिस (चक्षसा) दयामय चक्षु से (त्वं) तू हे (वरुण) सर्वदुःखकारक ! सदा (पश्यसि) देखा करता है उसी दयादृष्टि से (जनान् भुरण्यन्तम् अनु) समस्त प्राणियों के पालक पुरुष को भी (पश्यसि) देखता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ सुकक्षः। ४–६, १०-१२ मधुच्छन्दाः। ७-९ इरिम्बिठिः। १३-२१ प्रस्कण्वः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। एकविंशतृचं सूक्तम्॥

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