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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 3
    सूक्त - सुकक्षः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४७

    गि॒रा वज्रो॒ न संभृ॑तः॒ सब॑लो॒ अन॑पच्युतः। व॑व॒क्ष ऋ॒ष्वो अस्तृ॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गि॒रा । वज्र॑: । न । सम्ऽभृ॑त: । सऽब॑ल: । अन॑पऽच्युत: ॥ व॒व॒क्षे । ऋ॒ष्व: । अस्तृ॑त: ॥४७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गिरा वज्रो न संभृतः सबलो अनपच्युतः। ववक्ष ऋष्वो अस्तृतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गिरा । वज्र: । न । सम्ऽभृत: । सऽबल: । अनपऽच्युत: ॥ ववक्षे । ऋष्व: । अस्तृत: ॥४७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    जो (गिरा) वाणी से मानो (वज्रः न) वज्र, बिजुली की कड़क के समान अति भयंकर, (संमृतः) समस्त ऐश्वर्यों और शक्तियों से सम्पन्न, (सबलः) बलवान् (अनपच्युतः) कभी पराजित न होने वाला (अस्तृतः) कभी न मारा जाने वाला नित्य अविनाशी (ऋष्वः) सब शत्रुओं का नाशक होकर (ववक्षे) जगत् और राष्ट्र के भार को धारण करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ सुकक्षः। ४–६, १०-१२ मधुच्छन्दाः। ७-९ इरिम्बिठिः। १३-२१ प्रस्कण्वः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। एकविंशतृचं सूक्तम्॥

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