अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
इन्द्रः॒ स दाम॑ने कृ॒त ओजि॑ष्ठः॒ स मदे॑ हि॒तः। द्यु॒म्नी श्लो॒की स सो॒म्यः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । स: । दाम॑ने । कृ॒त: । ओजि॑ष्ठ: । स: । मदे॑ । हि॒त: ॥ द्यु॒म्नी । श्लो॒की । स: । सो॒म्य: ॥४७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रः स दामने कृत ओजिष्ठः स मदे हितः। द्युम्नी श्लोकी स सोम्यः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । स: । दामने । कृत: । ओजिष्ठ: । स: । मदे । हित: ॥ द्युम्नी । श्लोकी । स: । सोम्य: ॥४७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 2
विषय - ईश्वर।
भावार्थ -
(इन्द्रः सः) ऐश्वर्यवान्, वह साक्षात् दर्शनीय परमेश्वर हृीं (दामने) समस्त पदार्थों के दान देने के लिये (कृतः) बना है। (सः) चंह (मदे) परमानन्द रस में (हितः) विद्यमान ही (ओजिष्ठः) सब से बड़ा शक्तिशाली, पराक्रमी है। (स) वह (चुम्नी) बड़ा ऐश्वर्य चाला और (सोम्यः) सोम, राष्ट्र के प्राप्त करने योग्य राजा के समान (सोम्यः) सर्वानन्द, रसमय, सबका प्रेरक और उत्पादक है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ सुकक्षः। ४–६, १०-१२ मधुच्छन्दाः। ७-९ इरिम्बिठिः। १३-२१ प्रस्कण्वः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। एकविंशतृचं सूक्तम्॥
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