अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 47/ मन्त्र 21
अयु॑क्त स॒प्त शु॒न्ध्युवः॒ सूरो॒ रथ॑स्य न॒प्त्य:। ताभि॑र्याति॒ स्वयु॑क्तिभिः ॥
स्वर सहित पद पाठअयु॑क्त: । स॒प्त । शु॒न्ध्युव॑: । सुर॑: । रथ॑स्य । न॒प्त्य॑: ॥ ताभि॑: । या॒ति॒ । स्वयु॑क्तिऽभि: ॥४७.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्य:। ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअयुक्त: । सप्त । शुन्ध्युव: । सुर: । रथस्य । नप्त्य: ॥ ताभि: । याति । स्वयुक्तिऽभि: ॥४७.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 47; मन्त्र » 21
विषय - ईश्वर।
भावार्थ -
(सूरः) सबका प्रेरक शूरवीर सेनापति के समान परमेश्वर (रथस्य नप्त्यः) इस रथ स्वरूप, परम रमणीय, भूतों के रमण कराने वाले (नप्त्यः) ब्रह्माण्ड को कभी नष्ट न होने देने वाली, उसको बांधने वाली (शुन्ध्युवः) उसकी प्रवर्त्तक उसमें गति देने वाली, चलाने वाली (सप्त) सात शक्तियों को (अयुक्त) विश्व में प्रयुक्त करता है। और (स्वयुक्तिभिः) अपनी ही योजना रूप (ताभिः) उन शक्तियों से (याति) स्वयं सर्वत्र गति करता है, विश्व को चलाता और विश्व में व्यापता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ सुकक्षः। ४–६, १०-१२ मधुच्छन्दाः। ७-९ इरिम्बिठिः। १३-२१ प्रस्कण्वः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। एकविंशतृचं सूक्तम्॥
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