अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
तु॑वि॒ग्रीवो॑ व॒पोद॑रः सुबा॒हुरन्ध॑सो॒ सदे॑। इन्द्रो॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नते ॥
स्वर सहित पद पाठतु॒वि॒ऽग्रीव॑: । व॒पाऽउ॑दर: । सु॒ऽबा॒हु:। अन्ध॑स: । मदे॑ । इन्द्र॑: । वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒ते॒ ॥५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तुविग्रीवो वपोदरः सुबाहुरन्धसो सदे। इन्द्रो वृत्राणि जिघ्नते ॥
स्वर रहित पद पाठतुविऽग्रीव: । वपाऽउदर: । सुऽबाहु:। अन्धस: । मदे । इन्द्र: । वृत्राणि । जिघ्नते ॥५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
विषय - ईश्वर और राजा का वर्णन।
भावार्थ -
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (अन्धसः) सबको प्राण धारण करने वाले सर्वोत्पादक सामर्थ्य रूप सोम के (मदे) अत्यन्त हर्ष या उद्वेग में स्वयं (तुविग्रीवः) अनेक ग्रीवा वाला अनेक मुख सहस्रमुख होकर (वपा-उत्-अरः) ‘वपा’ समस्त संसार में बीज वपन करनेहारी महान् शक्ति को उदीर्ण या जागृत करके (सुबाहुः) वीर पुरुष के समान उत्तम बाहु अर्थात् सृष्टियों के प्रतिघातक पदार्थों की बाधना करने वाला होकर वह (वृत्राणि) नाना वृत्रों, जीवन के नाशक कारणों को (जिघ्नते) विनाश करता है।
राजा के पक्ष में—उत्तम बाहुशाली, दृढ़ गर्दन और विस्तीर्ण छाती वाला राजा सोम अर्थात् राष्ट्र के बल में आकर घेरने वाले शत्रुओं का नाश करता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इरिम्बष्ठिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें