अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
इन्द्र॒ प्रेहि॑ पु॒रस्त्वं विश्व॒स्येशा॑न॒ ओज॑सा। वृ॒त्राणि॑ वृत्रहं जहि ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । प्र । इ॒हि॒ । पु॒र: । त्वम् । विश्व॑स्य । ईशा॑न: । ओज॑सा ॥ वृ॒त्राणि॑ । वृ॒त्र॒ऽह॒न्। ज॒हि॒ ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र प्रेहि पुरस्त्वं विश्वस्येशान ओजसा। वृत्राणि वृत्रहं जहि ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । प्र । इहि । पुर: । त्वम् । विश्वस्य । ईशान: । ओजसा ॥ वृत्राणि । वृत्रऽहन्। जहि ॥५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
विषय - ईश्वर और राजा का वर्णन।
भावार्थ -
हे (वृत्रहन्) वारण करने वाले विपक्ष विघ्नों को नाश करने हारे इन्द्र ! ऐश्वर्यवान् परमेश्वर ! तु (ओजसा) ओज से, पराक्रस से (विश्वस्य ईशानः) समस्त विश्व को अपने वश करने और उसको संचालन करने में समर्थ होकर (त्वं पुरः प्रेहि) तू ही सबसे आगे चल। और (वृत्राणि) समस्त विघ्नों का (जहि) नाश कर।
राजा या सेनापति—शत्रु नाशक होने से या राष्ट्र के विघ्नकारी लोगों को नाश करने हारा होने से ‘वृत्रहा’ है। वह अपने पराक्रम से समस्त राष्ट्र का स्वामी होकर सबसे आगे आगे चले और शत्रु बलों का नाश करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इरिम्बष्ठिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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