अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
यस्ते॑ शृङ्गवृषो नपा॒त्प्रण॑पात्कुण्ड॒पाय्यः॑। न्यस्मिन्दध्र॒ आ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । शृ॒ङ्ग॒ऽवृ॒ष॒: । न॒पा॒त् । प्रन॑पा॒दिति॒ प्रऽन॑पात् । कु॒ण्ड॒ऽपाय्य॑: ॥ नि । अ॒स्मि॒न् । द॒ध्रे॒ । आ । मन॑: ॥५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते शृङ्गवृषो नपात्प्रणपात्कुण्डपाय्यः। न्यस्मिन्दध्र आ मनः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । शृङ्गऽवृष: । नपात् । प्रनपादिति प्रऽनपात् । कुण्डऽपाय्य: ॥ नि । अस्मिन् । दध्रे । आ । मन: ॥५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
विषय - ईश्वर और राजा का वर्णन।
भावार्थ -
(यः) जो (ते) तेरा (शृङ्गवृषः) लोकसंहारक और साथ ही सकल सुख का वर्धक (नपात्) अगम्य या अनाश्रय सर्वजगत् का आश्रय (प्रणपात्) अति अधिक अगम्य या शक्तिशाली (कुण्डपाय्यः*) दाहकारी, प्रलयाग्नि द्वारा पान करने वाले कर्म या सामर्थ्य अथवा रक्षण सामर्थ्य से सबको ग्रहण करने वाला है। तू (मनः) अपना समस्त मानस व्यापार (अस्मिन्) इसमें ही (आ नि दध्रे) लगा रहा है। ईश्वर के संकल्प मात्र से जगत् का प्रलय और सर्ग का कार्य होरहा है।
टिप्पणी -
* ‘कुडि दाहे’ (ग्वादिः) पचाद्यच्। कुडि रक्षणे (चुरादिः) कुणतेर्वा।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इरिम्बष्ठिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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