अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
शाचि॑गो॒ शाचि॑पूजना॒यं रणा॑य ते सु॒तः। आख॑ण्डल॒ प्र हू॑यसे ॥
स्वर सहित पद पाठशाचि॑गो॒ इति॒ शाचि॑ऽगो । शाचि॑ऽपूजन । अ॒यम् । रणा॑य । ते॒ । सु॒त: । आख॑ण्डल । प्र । हू॒य॒से॒ ॥५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
शाचिगो शाचिपूजनायं रणाय ते सुतः। आखण्डल प्र हूयसे ॥
स्वर रहित पद पाठशाचिगो इति शाचिऽगो । शाचिऽपूजन । अयम् । रणाय । ते । सुत: । आखण्डल । प्र । हूयसे ॥५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
विषय - ईश्वर और राजा का वर्णन।
भावार्थ -
हे (शाचिपूजन) शक्तिशाली पुरुषों से भी पूजने योग्य अथवा शक्तिशाली पूजन वाले परमेश्वर ! हे (शाचिगो) शक्तिशाली किरणों से युक्त ! अथवा शक्तिशाली गति देने के साधनों वाले ! अथवा शक्तिशाली गौ, सूर्यादि लोकों के स्वामिन् ! (अयं सुतः) यह उत्पादित समस्त संसार (ते रणाय) तेरे ही रमण करने के लिये है। इसलिये हे (आखण्डल) सर्वत्र खण्ड खण्ड में भी व्यापक ! सर्वशक्तिमन् ! तू ही (प्र हूयसे) सबसे अधिक स्तुति किया जाता है।
राजा के पक्ष में—हे (शाचिगो) शक्ति से गमन करने वाले ! हे (शाचिपूजन) शक्ति द्वारा पूजने के योग्य, प्रतिष्ठित यह तेरा निष्पन्न राष्ट्र भी तेरे रण, रमण करने के लिये है। हे (आखण्डल) शत्रुनाशक तू (प्रहूयसे) भली प्रकार आदरपूर्वक स्तुति किया जाता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इरिम्बष्ठिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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