अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
अ॒यमु॑ त्वा विचर्षणे॒ जनी॑रिवा॒भि संवृ॑तः। प्र सोम॑ इन्द्र सर्पतु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ऊं॒ इति॑ । त्वा॒ । वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । जनी॑:ऽइव । अ॒भि । सम्ऽवृ॑त: ॥ प्र । सोम॑: । इ॒न्द्र॒ । स॒र्प॒तु॒ ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमु त्वा विचर्षणे जनीरिवाभि संवृतः। प्र सोम इन्द्र सर्पतु ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । ऊं इति । त्वा । विऽचर्षणे । जनी:ऽइव । अभि । सम्ऽवृत: ॥ प्र । सोम: । इन्द्र । सर्पतु ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
विषय - ईश्वर और राजा का वर्णन।
भावार्थ -
हे (विचर्षणे) प्रजाओं को नाना प्रकार से देखने वाले ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (जनीभिः अभि संवृतः इव) जिस प्रकार स्त्रियों से घिरा हुआ नवयुवक वर बड़ी शान से आता है उसी प्रकार (अयम्) यह (सोमः) सर्वप्रेरक, सर्वोत्पादक शक्ति भी (त्वा ३) तेरे पास ही (प्र सर्पतु) आती है अर्थात् वह सर्वोत्पादक शक्ति तुझे ही प्राप्त है। वह सोम कैसा है ? मानो (जनीभिः अभि संवृतः) नाना सृष्टियों को उत्पन्न करने चाली शक्तियों से व्याप्त है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इरिम्बष्ठिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥ आगामिसूक्तस्यादिमन्त्रमुपादाय बृहत्सर्वानुक्रमण्यामिदं सूक्तं अष्टर्चमुच्यते। आगामिचाष्टर्चमेव। सर्वत्र इदं सप्तर्चमेवोपलभ्यते आगामि च नवर्चं।
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