अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
यु॒नक्त॒ सीरा॒ वि यु॒गा त॑नोत कृ॒ते योनौ॑ वपते॒ह बीज॑म्। वि॒राजः॒ श्नुष्टिः॒ सभ॑रा असन्नो॒ नेदी॑य॒ इत्सृ॒ण्यः॑ प॒क्वमा य॑वन् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒नक्त॑ । सीरा॑ । वि । यु॒गा । त॒नो॒त॒ । कृ॒ते । योनौ॑ । व॒प॒त॒ । इ॒ह । बीज॑म् । वि॒ऽराज॑: । श्नुष्टि॑: । सऽभ॑रा: । अ॒स॒त् । न॒: । नेदी॑य: । इत् । सृ॒ण्य᳡: । प॒क्वम् । आ । य॒व॒न् ॥१७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
युनक्त सीरा वि युगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम्। विराजः श्नुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वमा यवन् ॥
स्वर रहित पद पाठयुनक्त । सीरा । वि । युगा । तनोत । कृते । योनौ । वपत । इह । बीजम् । विऽराज: । श्नुष्टि: । सऽभरा: । असत् । न: । नेदीय: । इत् । सृण्य: । पक्वम् । आ । यवन् ॥१७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
विषय - कृषि और अध्यात्म योग का उपदेश ।
भावार्थ -
कृषि कर्म का उपदेश करते हैं (सीरा युनक्त) हलों को जोत लो, (युगा) बैल के जोड़ों को (वि तनोत) हल के जुओं में लगाओ और हल चलाओ। और (योनी) बीज-उत्पत्ति के स्थान, क्षेत्र के (कृते) योग्य हो जाने पर उसमें (बीजम्) बीज को (वपत) बोंओ । (विराजः) और जब अन्न की (श्रुष्टिः) सीट्टा या बालें (सभराः) अन्न से पूर्ण (असत्) हो जाय तब (नेदीयः इत्) उसके कुछ काल बाद ही (पक्वं) पका अन्न (सृण्यः) दरांती, काटने के हथियार, हसुओं से काट कर (आ यवन्) प्राप्त करो।
अन्नं वै विराट् । तै० ३। ८। १०। ४॥ यदा वा अन्नं पच्यतेऽथ ते सृण्या उपचरन्ति। श० ७। २। २। ५॥
महर्षि दयानन्द अध्यात्म पक्ष में—हे योगिगण ! (युनक्त) योगाभ्यास द्वारा परमात्मा के साथ अपने आत्मा को मिलाओ और आनन्द को प्राप्त करो । (वि तनुध्वम्) मोक्ष सुख को सदा विस्तार करो। और युग = उपासना युक्त कर्मों को और (सीराः) प्राण आदि से युक्त नाड़ियों को (युनक्त) उपासना कर्म में लगाओ। इस प्रकार (कृते योनौ) अन्तःकरण के शुद्ध कर लेने पर उसमें योगोपासना से विज्ञान के बीज को बोओ और (गिरा च) और परमविद्या, वेदवाणी से (युनक्त) युक्त होवो और (श्रुष्टिः) शीघ्र ही योग का फल (नः नेदीयः) हमारे अत्यन्त समीप (असत्) हो, परमेश्वर के अनुग्रह से (पक्वं) शुद्धानन्दस्वरूप सिद्ध, परिपक्व फल (एयात्) हमें सब ओर से प्राप्त हो, (इत् सृण्यः) और उपासना युक्त योंगवृत्तियां ‘सृणी’ अर्थात् हंसुओं के समान हैं जो सब क्लेशों को काट डालती हैं । ये वृत्तियां (सभराः) शान्ति और पुष्टि गुणों से सम्पन्न हों, इन वृत्तियों से परमात्म-योग को करो ।
टिप्पणी -
‘गिरा च श्रुष्टिः’ इति पाठभेदः, यजुः ०। (द्वि०) ‘तनुध्वं’ इति ऋ०, यजु० । ‘कृते क्षेत्रे ‘ इति पैप्प० सं०। (तृ०) ‘श्नुष्टि’ इति क्वचित् । ‘श्लुष्टिः स्रुष्ट्रिः स्नुष्ठिः’ इति चान्ये पाठाः। ‘श्नुष्टिः’ (च०) ‘पक्वमायुवम्’ इति पैप्प० सं० । ‘पक्वमेयात्’ इति ऋ०, यजु० । ‘पक्वमायात्’ तै० सं०, मै० सं०। ‘इत्सृण्याः’ तै ० सं०। ‘इच्छ्रिण्याः’ इति क्वचित् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः सीता देवता । १ आर्षी गायत्री, २, ५, ९ त्रिष्टुभः । ३ पथ्या-पंक्तिः । ७ विराट् पुरोष्णिक् । ८, निचृत् । ३, ४, ६ अनुष्टुभः । नवर्चं सूक्तम् ॥
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