अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
इन्द्रः॒ सीतां॒ नि गृ॑ह्णातु॒ तां पू॒षाभि र॑क्षतु। सा नः॒ पय॑स्वती दुहा॒मुत्त॑रामुत्तरां॒ समा॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । सीता॑म् । नि । गृ॒ह्णा॒तु॒ । ताम् । पू॒षा । अ॒भि । र॒क्ष॒तु॒ । सा । न॒: । पय॑स्वती । दु॒हा॒म् । उत्त॑राम्ऽउत्तराम् । समा॑म् ॥१७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषाभि रक्षतु। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । सीताम् । नि । गृह्णातु । ताम् । पूषा । अभि । रक्षतु । सा । न: । पयस्वती । दुहाम् । उत्तराम्ऽउत्तराम् । समाम् ॥१७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
विषय - कृषि और अध्यात्म योग का उपदेश ।
भावार्थ -
अध्यात्म-कृषि का उपदेश करते हैं। (इन्द्रः) राजा जिस प्रकार (सीतां) कृषि से उत्पन्न हुए कर को स्वयं अपने लिये ग्रहण करता है और (तां पूषां अभिरक्षतु) और ‘पूषा-भांगदुह्’ नामक अधिकारी उसकी रक्षा करता है उसी प्रकार यह (इन्द्रः) आत्मा (सीतां) शरीर, मन, आत्मा तीनों को एक सूत्र में बांधने वाली प्राण शक्ति चेतना को (नि गृह्णातु) व्यवस्थित करे। (पूषा) पोषण स्वभाव वाला प्राण (तां रक्षतु) उसकी रक्षा करे। (सा) वह (पयस्वती) आनन्द रस की वर्षा करने हारी, ऋतम्भरा कामधेनु (उत्तरां उत्तराम् समाम्) प्रति वर्ष, उत्तरोत्तर अधिक फल देने वाली कृषि के समान (दुहाम्) ब्रह्मानन्द, योग-समाधिजन्य समता-रस को अधिकाधिक उत्पन्न करे।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘पूषा अनुयच्छतु’ इति ऋ०। ‘पूषा मह्यं’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः सीता देवता । १ आर्षी गायत्री, २, ५, ९ त्रिष्टुभः । ३ पथ्या-पंक्तिः । ७ विराट् पुरोष्णिक् । ८, निचृत् । ३, ४, ६ अनुष्टुभः । नवर्चं सूक्तम् ॥
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