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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - सीता छन्दः - विराट्पुरउष्णिक् सूक्तम् - कृषि

    शुना॑सीरे॒ह स्म॑ मे जुषेथाम्। यद्दि॒वि च॒क्रथुः॒ पय॒स्तेनेमामुप॑ सिञ्चतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शुना॑सीरा । इ॒ह । स्म॒ । मे॒ । जु॒षे॒था॒म् । यत् । दि॒वि । च॒क्रथु॑: । पय॑: । तेन॑ । इ॒माम् । उप॑ । सि॒ञ्च॒त॒म् ॥१७.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुनासीरेह स्म मे जुषेथाम्। यद्दिवि चक्रथुः पयस्तेनेमामुप सिञ्चतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुनासीरा । इह । स्म । मे । जुषेथाम् । यत् । दिवि । चक्रथु: । पय: । तेन । इमाम् । उप । सिञ्चतम् ॥१७.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    (इह) इस देह रूप क्षेत्र में हे (शुनासीरा) वायु आदित्य के समान हे प्राण और उदान ! (मे) मुझ आत्म-साधक योगी के (जुषेथाम्) अनुकूल, वशीभूत होकर रहो। (दिवि) द्यौलोक में स्थित (यत् पयः) जिस जलको जिस प्रकार सूर्य और वायु इस पृथ्वी पर बरसा देते हैं उसी प्रकार तुम दोनों भी (यत्) जो (दिवि) मूर्धास्थान में, ब्रह्मरन्ध्र में समाहित हो जाने के कारण होने वाला समाधिजन्य (पयः) आनन्द रस है (तेन इमाम्) उससे इस चित्तभूमि को (उप सिञ्चतम्) आप्लावित कर दो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः सीता देवता । १ आर्षी गायत्री, २, ५, ९ त्रिष्टुभः । ३ पथ्या-पंक्तिः । ७ विराट् पुरोष्णिक् । ८, निचृत् । ३, ४, ६ अनुष्टुभः । नवर्चं सूक्तम् ॥

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