अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 5
शु॒नं सु॑फा॒ला वि तु॑दन्तु॒ भूमिं॑ शु॒नं की॒नाशा॒ अनु॑ यन्तु वा॒हान्। शुना॑सीरा ह॒विषा॒ तोश॑माना सुपिप्प॒ला ओष॑धीः कर्तम॒स्मै ॥
स्वर सहित पद पाठशु॒नम् । सु॒ऽफा॒ला: । वि । तु॒द॒न्तु॒ । भूमि॑म् । शु॒नम् । की॒नाशा॑: । अनु॑ । य॒न्तु॒ । वा॒हान् । शुना॑सीरा । ह॒विषा॑ । तोश॑माना । सु॒ऽपि॒प्प॒ला: । ओष॑धी: । क॒र्त॒म् । अ॒स्मै ॥१७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अनु यन्तु वाहान्। शुनासीरा हविषा तोशमाना सुपिप्पला ओषधीः कर्तमस्मै ॥
स्वर रहित पद पाठशुनम् । सुऽफाला: । वि । तुदन्तु । भूमिम् । शुनम् । कीनाशा: । अनु । यन्तु । वाहान् । शुनासीरा । हविषा । तोशमाना । सुऽपिप्पला: । ओषधी: । कर्तम् । अस्मै ॥१७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 5
विषय - कृषि और अध्यात्म योग का उपदेश ।
भावार्थ -
अध्यात्म-योग के तत्व को पुनः कृषि कर्म के दृष्टान्त से उपदेश करते हैं । (सुफालाः) उत्तम, तीक्ष्ण फालिएं, हल के नीचे लगीं लोहे की तीक्ष्ण हलिएं (शुनं) खूब तेजी से सुखपूर्वक (भूमिं) भूमि को (वि तुदन्तु) खोदें। और (कीनाशाः) किसान लोग (शुनं) सुखपूर्वक (वाहान्) अपने हल को वाहने वाले बैलों के पीछे २ (अनु-यन्तु) चलें । हे (शुनासीराः) हे शुन और सीर ! वायु और सूर्य तुम दोनों (हविषा) पृथिवीस्थ जल से (तोशमाना) पृथिवी को ही सेचन करते हुए (अस्मै) इस आत्मा के लिये या इस संसार के लिये या हमारे लिये (सुपिप्पलीः) उत्तम फलों से सम्पन्न (ओषधीः) अन्न आदि ओषधियों को (कर्तम्) उत्पन्न करो।
अध्यात्म पक्ष में—उत्तम फालियां प्राण ही इस भूमि, क्षेत्र या अन्तः करण का या अविद्या रूप क्षेत्र का विनाश करें, (कीनाशाः) सब अज्ञानों का नाश करने हारे विद्वान् उन प्राणों का आयमन करें। या प्राणगण इन्द्रियों के द्वारों में ठीक रीति से गमन करें। शुन-प्राण वायु और सीर-अपान वायु दोनों ‘हविः’ अर्थात् कर्म योग से वशीभूत होकर इस आत्मा को उत्तम फलसम्पन्न और पापनाशक ज्ञान, ध्यान-वृत्तियों को उत्पन्न करे ।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘शुनं नः फाला’ इति ऋ०। ‘वि कृषन्तु’ ऋ०, यजु०। (द्वि०) ‘कीनाशो अभ्येतु वाहैः’ इति मै० सं०। ‘कीनाशा अभियन्तु वाहेः’ इति ऋ०।
हविषा जलेनेत्युव्वटमहीधरौ।
‘तोषमाणा’ इति सायणसम्मतः पाठः। ‘शुनं केनाशो अन्वेतु वाहं शुनंफालो विनदन्नयतु भूमिम्। शुनासीरा हविषा यो यजत्रै ! सुपिप्पला ओषधयः सन्तु तस्मै।’ इति पैप्प० सं० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः सीता देवता । १ आर्षी गायत्री, २, ५, ९ त्रिष्टुभः । ३ पथ्या-पंक्तिः । ७ विराट् पुरोष्णिक् । ८, निचृत् । ३, ४, ६ अनुष्टुभः । नवर्चं सूक्तम् ॥
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