अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 73/ मन्त्र 6
उप॑ द्रव॒ पय॑सा गोधुगो॒षमा घ॒र्मे सि॑ञ्च॒ पय॑ उ॒स्रिया॑याः। वि नाक॑मख्यत्सवि॒ता वरे॑ण्योऽनुप्र॒याण॑मु॒षसो॒ वि रा॑जति ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । द्र॒व॒ । पय॑सा । गो॒ऽधु॒क् । ओ॒षम् । आ । घ॒र्मे । सि॒ञ्च॒ । पय॑: । उ॒स्रिया॑या: । वि । नाक॑म् । अ॒ख्य॒त् । स॒वि॒ता । वरे॑ण्य: । अ॒नु॒ऽप्र॒यान॑म् । उ॒षस॑: । वि । रा॒ज॒ति॒ ॥७७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
उप द्रव पयसा गोधुगोषमा घर्मे सिञ्च पय उस्रियायाः। वि नाकमख्यत्सविता वरेण्योऽनुप्रयाणमुषसो वि राजति ॥
स्वर रहित पद पाठउप । द्रव । पयसा । गोऽधुक् । ओषम् । आ । घर्मे । सिञ्च । पय: । उस्रियाया: । वि । नाकम् । अख्यत् । सविता । वरेण्य: । अनुऽप्रयानम् । उषस: । वि । राजति ॥७७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 6
विषय - ब्रह्मानन्द रस।
भावार्थ -
हे (गोधुक्) चितिशक्ति रूप कामधेनु का दोहन करने वाले अभ्यासिन् आत्मन् ! (ओषम्) दाहकारी, अन्धकारनाशक तेज को (पयसा) आत्मा के बल-सम्पादक तृप्तिकर, आनन्दरस के साथ मिलाकर (उप द्रव) उस रसमय परब्रह्म के अति निकट पहुँचने का यत्न कर। और (उस्रियायाः) ऊर्ध्व, मूर्धा भाग की ओर ऊर्ध्वगामी वीर्य के बल से सर्पण करने वाली, क्रम से मूल भाग से प्रारम्भ करके ऊपर की ओर सरकती हुई चितिशक्ति के उस (पयः) आनन्द रसको (घर्मे) उस ज्योतिर्मय साक्षात् रस में (सिञ्च) मिला। (सविता) सबका प्रेरक प्रभु स्वतः साक्षात् ज्योतिर्मय, सब पदार्थों का प्रकाशक, (वरेण्यः) सब योगियों का परम वरणीय, श्रेष्ठ हैं, उस दशा में आत्मा में (नाकम्) दुःख से सर्वथा रहित आनन्दमय स्वरूप को (विख्यत्) विशेष रूप से प्रकाशित करता है और अभ्यासी की यह दशा आजाने पर (उषसः) तामस आवरण की विनाशक विशोका, ज्योतिष्मती या ऋतम्भरा प्रज्ञा के उदय होने के (अनुप्रयाणं) अनन्तर ही वह ज्योतिर्मय सविता साक्षात् तेजोमय ब्रह्मका स्वरूप (वि राजति) प्रकाशित होता है।
टिप्पणी -
(प्र०, द्वि०) ‘विश्वा रूपाणि प्रतिमुञ्चते कविः, प्रासावीद भद्रं द्विपदे चतुष्पदे’ इति प्रथम द्वितीयौ पादौ भिद्ये॥ ऋ०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अश्विनौ देवते। धर्मसूक्तम्। १, ४, ६ जगत्यः। २ पथ्या बृहती। शेषा अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।
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