अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 73/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - घर्मः, अश्विनौ
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - धर्म सूक्त
समि॑द्धो अ॒ग्निर॑श्विना त॒प्तो वां॑ घ॒र्म आ ग॑तम्। दु॒ह्यन्ते॑ नू॒नं वृ॑षणे॒ह धे॒नवो॒ दस्रा॒ मद॑न्ति वे॒धसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽइ॑ध्द: । अ॒ग्नि: । अ॒श्वि॒ना॒ । त॒प्त: । वा॒म् । ध॒र्म: । आ । ग॒त॒म् । दु॒ह्यन्ते॑ । नू॒नम् । वृ॒ष॒णा॒ । इ॒ह । धे॒नव॑: । दस्रा॑ । मद॑न्ति । वे॒धस॑: ॥७७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धो अग्निरश्विना तप्तो वां घर्म आ गतम्। दुह्यन्ते नूनं वृषणेह धेनवो दस्रा मदन्ति वेधसः ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइध्द: । अग्नि: । अश्विना । तप्त: । वाम् । धर्म: । आ । गतम् । दुह्यन्ते । नूनम् । वृषणा । इह । धेनव: । दस्रा । मदन्ति । वेधस: ॥७७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 73; मन्त्र » 2
विषय - ब्रह्मानन्द रस।
भावार्थ -
हे (अश्विना) अश्वियो ! (अग्निः) अग्नि सूर्य या यज्ञ की अग्नि (सम् इद्धः) प्रदीप्त होगई और (वां) तुम दोनों के लिये (धर्मः) तेजस्वरूप रस (तप्तः) प्रतप्त, परिपक्व होगया है। (आगतम्) तुम दोनों प्रकट होओ। हे (वृषणा) सुखों और बलों के वर्षक तुम दोनों ! (इह) इस देह और गेह में (धेनवः) रसका पान कराने वाली प्राणवृत्तियां और गौवें (दुह्यन्ते) दुही जाती हैं। हे (दस्रा) दर्शनीयरूप तुम दोनों ! हे सब दुःखों के विनाशक ! तुम दोनों के बल पर ही (वेधसः) देह का कार्य करने वाले इन्द्रियगण, गृहका कार्य सम्पादन करने वाले भृत्यगण, यज्ञ का कार्य सम्पादन करने वाले ऋत्विग्गण (मदन्ति) आनन्द प्रसन्न होते हैं या तुमको प्रसन्न करते। अध्यात्म में—आत्मा के प्रकाशित होने पर वही आत्मा का आनन्द उन प्राण और अपान के लिये परम है जो जीवन का वास्तविक आनन्द है। उस समय ये इन्द्रियां भी परमरस युक्त संवित् ज्ञान प्राप्त करती हैं और (वेधसः) कर्मेन्द्रियां भी स्वयं प्रसन्न रहती और आत्मा को प्रसन्न करती हैं।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘तप्तो धर्मो विराट् सुतः’ (तृ० च०) ‘दुहे धेनुः सरस्वती सोमं शुक्रमिहेन्द्रियम्’ इति यजु०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अश्विनौ देवते। धर्मसूक्तम्। १, ४, ६ जगत्यः। २ पथ्या बृहती। शेषा अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।
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