अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा भुरिग्जगती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
अ॒यं स्रा॒क्त्यो म॒णिः प्र॑तीव॒र्तः प्र॑तिस॒रः। ओज॑स्वान्विमृ॒धो व॒शी सो अ॒स्मान्पा॑तु स॒र्वतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । स्रा॒क्त्य: । म॒णि: । प्र॒ति॒ऽव॒र्त: । प्र॒ति॒ऽस॒र: । ओज॑स्वान् । वि॒ऽमृ॒ध: । व॒शी । स: । अ॒स्मान् । पा॒तु॒ । स॒र्वत॑: ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं स्राक्त्यो मणिः प्रतीवर्तः प्रतिसरः। ओजस्वान्विमृधो वशी सो अस्मान्पातु सर्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । स्राक्त्य: । मणि: । प्रतिऽवर्त: । प्रतिऽसर: । ओजस्वान् । विऽमृध: । वशी । स: । अस्मान् । पातु । सर्वत: ॥५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
विषय - शत्रुनाशक सेनापति की नियुक्ति।
भावार्थ -
(अयम्) यह (मणिः) जिस प्रकार (स्राक्त्यः) स्रक्ति नामक तिलक वृक्ष से बना है, उसी प्रकार यह (मणिः) मणि को धारण करने वाला वीर भी (स्राक्त्यः) समस्त सेना के बीच तिलक के योग्य है। अथवा माला आदि से सुशोभित करने योग्य है। वही (प्रतीवर्तः) शत्रुओं से अभिमुख खड़ा होने वाला और (प्रतिसरः) शत्रुओं पर चढ़ाई करने में समर्थ है। वह (ओजस्वान्) ओजस्वी (विमृधः) नाना प्रकार से युद्ध करने में समर्थ (वशी) शत्रुओं पर, अपने सेनासमूह और अपने इन्द्रियगणों पर भी वशकारी होकर (सर्वतः) सब प्रकार से (अस्मान्) हमारी (पातु) रक्षा करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुक्र ऋषिः। कृत्यादूषणमुत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ६, उपरिष्टाद् बृहती। २ त्रिपाद विराड् गायत्री। ३ चतुष्पाद् भुरिग् जगती। ७, ८ ककुम्मत्यौ। ५ संस्तारपंक्तिर्भुरिक्। ९ पुरस्कृतिर्जगती। १० त्रिष्टुप्। २१ विराटत्रिष्टुप्। ११ पथ्या पंक्तिः। १२, १३, १६-१८ अनुष्टुप्। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १५ पुरस्ताद बृहती। १३ जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। २० विराड् गर्भा आस्तारपंक्तिः। २२ त्र्यवसाना सप्तपदा विराड् गर्भा भुरिक् शक्वरी। द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥
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