ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 106/ मन्त्र 2
त आ॑दित्या॒ आ ग॑ता स॒र्वता॑तये भू॒त दे॑वा वृत्र॒तूर्ये॑षु श॒म्भुव॑:। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन ॥
स्वर सहित पद पाठते । आ॒दि॒त्याः॒ । आ । ग॒त॒ । स॒र्वऽता॑तये । भू॒त । दे॒वाः॒ । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑षु । श॒म्ऽभुवः॑ । रथ॑म् । न । दुः॒ऽगात् । व॒स॒वः॒ । सु॒ऽदा॒नवः॒ । विश्व॑स्मात् । नः॒ । अंह॑सः । निः । पि॒प॒र्त॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त आदित्या आ गता सर्वतातये भूत देवा वृत्रतूर्येषु शम्भुव:। रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन ॥
स्वर रहित पद पाठते। आदित्याः। आ। गत। सर्वऽतातये। भूत। देवाः। वृत्रऽतूर्येषु। शम्ऽभुवः। रथम्। न। दुःऽगात्। वसवः। सुऽदानवः। विश्वस्मात्। नः। अंहसः। निः। पिपर्तन ॥ १.१०६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 106; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे देवा विद्वांसो यथा ये आदित्या देवाः सूर्यादयः पदार्थास्ते वृत्रतूर्येषु शंभुवो भवन्ति तथैव यूयमस्माकं सनीडमागतागत्य वृत्रतूर्येषु सर्वतातये शंभुवो भूत। अन्यत् पूर्ववत् ॥ २ ॥
पदार्थः
(ते) (आदित्याः) कारणरूपेण नित्याः सूर्यादयः पदार्थाः (आ) क्रियायोगे (गत) गच्छत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सर्वतातये) सर्वस्मै सुखाय (भूत) भवत। अत्र गत भूतेत्युभयत्र लोटि मध्यमबहुवचने बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (देवाः) दिव्यगुणवन्तस्तत्संबुद्धौ दिव्यगुणा वा (वृत्रतूर्येषु) वृत्राणां शत्रूणां मेघावयवानां वा तूर्येषु हिंसनकर्मसु संग्रामेषु (शंभुवः) ये शं सुखं भावयन्ति ते। रथं, न, दुर्गादिति पूर्ववत् ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरेण सृष्टाः पृथिव्यादयः पदार्थाः सर्वेषां प्राणिनामुपकाराय वर्तन्ते तथैव सर्वेषामुपकाराय विद्वद्भिर्नित्यं वर्त्तितव्यम्। यथा सुदृढस्य यानस्योपरि स्थित्वा देशान्तरं गत्वा व्यापारेण विजयेन वा धनप्रतिष्ठे प्राप्य दारिद्र्याप्रतिष्ठाभ्यां विमुच्य सुखिनो भवन्ति तथैव विद्वांस उपदेशेन विद्यां प्रापय्य सर्वान् सुखिनः संपादयन्तु ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (देवाः) दिव्यगुणवाले विद्वान् जनो ! जैसे (आदित्याः) कारणरूप से नित्य दिव्यगुणवाले जो सूर्य्य आदि पदार्थ हैं (ते) वे (वृत्रतूर्य्येषु) मेघावयवों अर्थात् बद्दलों का हिंसन विनाश करना जिनमें होता है, उन संग्रामों में (शंभुवः) सुख की भावना करानेवाले होते हैं, वैसे ही आप लोग हमारे समीप को (आ, गत) आओ और आकर शत्रुओं का हिंसन जिनमें हो, उन संग्रामों में (सर्वतातये) समस्त सुख के लिये (शंभुवः) सुख की भावना करानेवाले (भूत) होओ। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान जानना चाहिये ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर के बनाये हुए पृथिवी आदि पदार्थ सब प्राणियों के उपकार के लिये हैं, वैसे ही सबके उपकार के लिये विद्वानों को नित्य अपना वर्त्ताव रखना चाहिये। जैसे अच्छे दृढ़ विमान आदि यान पर बैठ देश-देशान्तर की जा-आकर व्यापार वा विजय से धन और प्रतिष्ठा को प्राप्त हो दरिद्रता और अयश से छूटकर सुखी होते हैं, वैसे ही विद्वान् जन अपने उपदेश से विद्या को प्राप्त कराकर सबको सुखी करें ॥ २ ॥
विषय
पापों से पार
पदार्थ
१. हम (ऊतये) = अपने रक्षण के लिए (इन्द्रम्) = इन्द्र को (मित्रम्) = मित्र को (वरुणम्) = वरुण को (अग्निम्) = अग्नि को (मारुतं शर्धः) = मरुतों के बल को तथा (अदितिम्) = अदिति को (हवामहे) = पुकारते हैं । ''इन्द्र'' जितेन्द्रियता का प्रतीक है । इन्द्रियों का अधिष्ठाता ही इन्द्र है । ''मित्र'' स्नेह का देवता है , ''वरुण’ निर्द्वेषता का । ''अग्नि'' अग्रणी है , यह उन्नति - पथ पर आगे बढ़ने का संकेत कर रहा है । ''अदिति'' स्वास्थ्य का सूचक है । इस प्रकार 'जितेन्द्रियता , स्नेह , अद्वेष , उन्नति , प्राणशक्ति व स्वास्थ्य' - ये सब गुण हमारा रक्षण करनेवाले होते हैं ।
२. हे (सुदानवः) =उत्तमता से बुराइयों का खण्डन करनेवाले [दाप् लवने] , (वसवः) = उत्तम निवासवाले ज्ञानी पुरुष (नः) = हमें (विश्वस्मात् अंहसः) = सब पापों से (निष्पिपर्तन) = पार करनेवाले हों । धार्मिक ज्ञानियों का सम्पर्क हमें पापों से ऊपर उठाए । ये वसु हमें उसी प्रकार पापों से पार करें (न) = जैसेकि उत्तम सारथि (रथम्) = रथ को (दुर्गात्)= दुर्गम मार्ग से पार करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - जितेन्द्रियता आदि वृत्तियाँ ही हमारा रक्षण करेंगी और धार्मिक ज्ञानियों का सम्पर्क हमें पापों से बचाएगा ।
विषय
ऐश्वर्य और ज्ञान के दानी धनाढ्यों और विद्वानों के कर्तव्य ।
भावार्थ
( आदित्याः ) सूर्य के किरण अथवा अखण्ड, अविनाशी अग्नि आदि तत्व ( देवाः ) दिव्य शक्ति और तेज से युक्त एवं बल के देने वाले होकर ( वृत्रतूर्येषु ) मेघ और अन्धकार आदि आवरणकारी पदार्थों के नाश करने के कार्यों में सब सुखजनक और शान्तिजनक होते हैं । उसी प्रकार हे ( आदित्याः ) सूर्य के समान तेजस्वी, राष्ट्र के मुख्य कार्यों और ऐश्वर्यों को अपने हाथ में लेने वाले, ( देवाः ) विद्वान्, विजयार्थी और दानशील पुरुषो ! आप लोग ( आ गत ) आओ और ( वृत्रतूर्येषु ) बढ़ते शत्रुओं के नाशकारी संग्रामों के अवसरों में आप लोग ( सर्वतातये ) सब प्राणियों और प्रजाओं के कल्याण के लिये ( शम्भुवः भूत ) शान्ति उत्पन्न करने वाले रहो । ( रथं न दुर्गात्० इत्यादि ) विषम भूमियों में रथ को बचाकर लेजाने वाले सारथियों के समान आप लोग हम लोगों को सब, प्रकार के पापाचारों से, सब तरह से बचाते रहो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–७ कुत्स ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः-१-६ जगती। ७ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ स्वरः-१-६ निषादः । ७ धैवतः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे ईश्वराने निर्माण केलेले पृथ्वी इत्यादी पदार्थ सर्व प्राण्यांवर उपकार करण्यासाठी असतात. तसेच सर्वांच्या उपकारासाठी विद्वानांनी वागावे. जसे व्यवस्थित असलेल्या विमान इत्यादी यानात बसून देशदेशांतरी जाऊन येऊन व्यापार, विजय, धन व प्रतिष्ठा प्राप्त करून दारिद्र्य व अपयश दूर होते आणि सुखी होता येते. तसेच विद्वान लोकांनी आपल्या उपदेशाने विद्या प्राप्त करून सर्वांना सुखी करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the Adityas, lights of the world, come for our total protection and prosperity. Come all the nobilities of nature and humanity to fight with us in all the battles against demons of darkness for creation and production, and may they be good for our peace and joy. May the Vasus, generous and giving, save us from all sin and evil of the world and take us forward as a chariot over the difficult paths of earth, sea and sky.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are the Devas is taught further the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons, as the sun and other divine objects are cause of happiness in the destruction of clouds, in the same manner, please come to us and in all battles to us all. with wicked foes, bring joy and happiness The rest as before.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सर्वतातये) सर्वस्मै सुखाय = For the happiness of all. (वृत्रतूर्येषु) वृत्राणां शत्रूणां मेघावयवानां वा तूर्येषु हिंसनकर्मसु संग्रामेषु = In the task of destruction or dispelling of the clouds by the sun or destruction of wicked foes in the battles वृत्र इति मेघनाम (निघ० १.१०) वृत्रतूर्ये इति संग्राम नाम (निघ० २.१७ ) Tr.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the earth and other worlds created by God are for the benefit of all beings, in the same manner, learned persons should always be benevolent to all. As men enjoy happiness by going to different countries on well-built vehicles and by acquiring wealth and getting honor through business and victory, getting rid of poverty and dishonor. in the manner, learned persons should make all happy by giving them knowledge, through their sermons
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