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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 106 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 106/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    बृह॑स्पते॒ सद॒मिन्न॑: सु॒गं कृ॑धि॒ शं योर्यत्ते॒ मनु॑र्हितं॒ तदी॑महे। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॑स्पते । सद॑म् । इत् । नः॒ । सु॒ऽगम् । कृ॒धि॒ । शम् । योः । यत् । ते॒ । मनुः॑ऽहितम् । तत् । ई॒म॒हे॒ । रथ॑म् । न । दुः॒ऽगात् । व॒स॒वः॒ । सु॒ऽदा॒नवः॒ । विश्व॑स्मात् । नः॒ । अंह॑सः । निः । पि॒प॒र्त॒न॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पते सदमिन्न: सुगं कृधि शं योर्यत्ते मनुर्हितं तदीमहे। रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पते। सदम्। इत्। नः। सुऽगम्। कृधि। शम्। योः। यत्। ते। मनुःऽहितम्। तत्। ईमहे। रथम्। न। दुःऽगात्। वसवः। सुऽदानवः। विश्वस्मात्। नः। अंहसः। निः। पिपर्तन ॥ १.१०६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 106; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे बृहस्पते ते तव यन्मनुर्हितं शं योश्चास्ति यत्सदमित्वं नोऽस्मभ्यं सुगं कृधि तद्वयमीमहे। अन्यत्पूर्ववत् ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (बृहस्पते) परमाध्यापक (सदम्) (इत्) एव (नः) अस्मभ्यम् (सुगम्) सुष्ठु गच्छन्ति यस्मिन् (कृधि) कुरु निष्पादय (शम्) सुखम् (योः) धर्मार्थमोक्षप्रापणम् (यत्) (ते) (मनुर्हितम्) मनुषो मनसो हितकारिणम् (तत्) (ईमहे) याचामहे (रथं न०) इति पूर्ववत् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यथाऽध्यापकाद्विद्या संगृह्यते तथैव सर्वेभ्यो विद्वद्भ्यश्च स्वीकृत्य दुःखानि विनाशनीयानि ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (बृहस्पते) परम अध्यापक अर्थात् उत्तम रीति से पढ़ानेवाले ! (ते) आपका जो (मनुर्हितम्) मन का हित करनेवाला (शम्) सुख वा (योः) धर्म, अर्थ और मोक्ष की प्राप्ति कराना है तथा (यत्) जो (सदम् इत्) सदैव तुम (नः) हमारे लिये (सुगम्) सुख (कृधि) करो अर्थात् सिद्ध करो (तत्) उस उक्त समस्त को हम लोग (ईमहे) माँगते हैं। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य समझना चाहिये ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जैसे गुरुजन से विद्या ली जाती है, वैसे ही सब विद्वानों से विद्या लेकर दुःखों का विनाश करें ॥ ५ ॥

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    विषय

    रोगशमन व अभय

    पदार्थ

    १. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो ! (नः) = हमारे लिए (सदम् इत्) = सदा ही (सुगम्) = [सुष्टु गम्यतेऽस्मिन्] उत्तम मार्ग को (कृधि) = कीजिए । ज्ञान के द्वारा आप हमें मार्ग - दर्शन कीजिए ताकि हम ठीक मार्ग पर चलते हुए कभी भटकें नहीं । हम सदा उत्तम मार्ग पर ही चलें । 

    २. हे प्रभो ! (यत्) = जो ते आपका (शंयोः) = सब प्रकार के रोगों का शमन और भयों का यावन [पृथक्करण] (मनुर्हितम्) = ज्ञानी पुरुषों में , विचारशील पुरुषों में स्थापित होता है (तत्) = उसे पाने के लिए हम आपसे (ईमहे) = याचना करते हैं । आपकी कृपा से हमारे रोग शान्त हों और हमें किसी प्रकार का भय न हो । 

    ३. (सुदानवः) = बुराइयों का खूब खण्डन करनेवाले (वसवः) = उत्तम निवासवाले पुरुषो ! आप (नः) = हमें (विश्वस्मात् अंहसः) = सब पापों से (निष्पिपर्तन) = इस प्रकार पार करो न जैसे कि एक उत्तम सारथि (रथम्) = रथ को (दुर्गात्)= दुर्गम मार्ग से पार करता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारा मार्ग उत्तम हो । हमारे रोगों का शमन हो और हमें निर्भयता की प्राप्ति हो । 
     

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    विषय

    सर्व हितकारी ज्ञानवान्, ऐश्वर्यवान् पुरुष का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (बृहस्पते ) वेदवाणी के पालक एवं बड़े भारी राष्ट्र पालक राजन् ! विद्वन् ! और ब्रह्माण्ड के स्वामिन् ! परमेश्वर ! ( ते ) तेरा ( यत् ) जो ( मनुर्हितम् ) मनुष्यों को हितकारी ( शं ) शान्तिदायक और ( योः ) दुःख विनाशक, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनके देने वाला है उसे ( नः ) हमारे लिये ( सदम् इत् ) सदा ही ( सुगं कृधि ) सुखदायक कर। हम ( तत् ) उसे ही ( ईमहे ) चाहते हैं, उसे ही प्राप्त हों । ( रथं न दुर्गात् ० इत्यादि पूर्ववत् )

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–७ कुत्स ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः-१-६ जगती। ७ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ स्वरः-१-६ निषादः । ७ धैवतः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसे जशी गुरुजनांकडून विद्या प्राप्त करतात, तसेच सर्व विद्वानांकडून विद्या प्राप्त करून दुःखांचा नाश करावा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Brhaspati, lord of the wide wide world, lord of universal knowledge, we pray, make our path of movement easy for all time. We pray for peace and all round protection against suffering, all that is good for mankind. And, we pray, may the generous Vasus save us from all sin and evil and take us forward as a chariot over the difficult paths of earth, sea and sky.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Brihaspati (Great Teacher) we always solicit that happiness which is beneficial to mind, attainment of Dharma (righteousness) Artha (Wealth) and Moksha (emancipation) that you can confer upon us, making our path easy. The rest as before.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (बृहस्पते) परमाध्यापक = Great teacher. (मनुहितम्) मनुषो मनसो हितकारिणम् = Beneficial to the mind of a man.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men acquire knowledge from good teachers, they should also destroy all miseries or alleviate all suffering.

    Translator's Notes

    The word Brihaspati has been interpreted by Rishi Dayananda Saraswati here as परमाध्यापक or great teacher in support of which the following and other passages from the Brahmanas may be quoted. बाग वै बृहती तस्या एष पतिस्तस्माद् बृहस्पतिः || शत० १४. ४. १.२२ यदस्य वाचो बृहत्यै पतिस्तस्माद् बृहस्पतिः । (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे २.२.५ )

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