ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 106/ मन्त्र 7
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दे॒वैर्नो॑ दे॒व्यदि॑ति॒र्नि पा॑तु दे॒वस्त्रा॒ता त्रा॑यता॒मप्र॑युच्छन्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वैः । नः॒ । दे॒वी । अदि॑तिः । नि । पा॒तु॒ । दे॒वः । त्रा॒ता । त्रा॒य॒ता॒म् । अप्र॑ऽयुच्छन् । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवैर्नो देव्यदितिर्नि पातु देवस्त्राता त्रायतामप्रयुच्छन्। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥
स्वर रहित पद पाठदेवैः। नः। देवी। अदितिः। नि। पातु। देवः। त्राता। त्रायताम्। अप्रऽयुच्छन्। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.१०६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 106; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 7
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यो देवैः सह वर्त्तमानोऽप्रयुच्छँस्त्राता देवो विद्वानस्ति स नो निपातु, या देव्यदितिः सर्वाँस्त्रायताम्। तन्नो मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्मामहन्ताम् ॥ ७ ॥
पदार्थः
(देवैः) विद्वद्भिर्दिव्यगुणैर्वा सह वर्त्तमानः (नः) अस्मान् (देवी) दिव्यगुणयुक्ता (अदितिः) प्रकाशमयी विद्या (नि) (पातु) (देवः) विद्वान् (त्राता) सर्वाभिरक्षकः (त्रायताम्) (अप्रयुच्छन्) अप्रमाद्यन् (तन्नो मित्रो०) इति पूर्ववत् ॥ ७ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्योऽप्रमादी विद्वत्सु विद्वान् विद्यारक्षको विद्यादानेन सर्वेषां सुखवर्द्धकोऽस्ति तं सत्कृत्य विद्याधर्मौ जगति प्रसारणीयौ ॥ ७ ॥।अत्र विश्वेषां देवानां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति षडुत्तरशततमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (देवैः) विद्वानों वा दिव्यगुणों के साथ वर्त्तमान (अप्रयुच्छन्) प्रमाद न करता हुआ (त्राता) सबकी रक्षा करनेवाला (देवः) विद्वान् है वह (नः) हम लोगों की (नि, पातु) निरन्तर रक्षा करे तथा (देवी) दिव्य गुण भरी सब गुण अगरी (अदितिः) प्रकाशयुक्त विद्या सबकी (त्राताम्) रक्षा करें (तत्) उस पूर्वोक्त समस्त कर्म को (नः) और हम लोगों को (मित्रः) मित्रजन (वरुणः) श्रेष्ठ विद्वान् (अदितिः) अखण्डित नीति (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) भूमि (उत) और (द्यौः) सूर्य्य का प्रकाश (मामहन्ताम्) बढ़ावें अर्थात् उन्नति देवें ॥ ७ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जो अप्रमादी, विद्वानों में विद्वान्, विद्या की रक्षा करनेवाला विद्यादान से सबके सुख को बढ़ाता है, उसका सत्कार करके विद्या और धर्म का प्रचार संसार में करें ॥ ७ ॥इस सूक्त में समस्त विद्वानों के गुणों का वर्णन है। इससे इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह १०६ एकसौ छः वाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
विषय
अदिति व देवता का रक्षण
पदार्थ
१. (देवी) = दिव्य गुणों से युक्त (अदितिः) = स्वास्थ्य (देवैः) = सब दिव्यगुणों के उत्पादन के द्वारा (नः) = हमें (निपातु) = निश्चितरूप से सुरक्षित करे । स्वास्थ्य दिव्यगुणों से युक्त है । यह सब दिव्यगुणों का जन्म देनेवाला है । अस्वस्थ पुरुष में ईर्ष्या , द्वेष व चिड़चिड़ापन आदि आसुर गुण उत्पन्न हो जाते हैं । यह स्वास्थ्य [अ - नहीं , दिति - खण्डन] अदिति नामवाला है । यह ''अदीना देवमाता'' है । सब अच्छाइयों का मूल है । यह दिव्यगुणों को जन्म देकर हमारा रक्षण करता है ।
२. वह (त्राता) = सबका रक्षक (देवः) = दीप्तिवाला प्रभु (अप्रयुच्छन्) = अप्रमाद से (त्रायताम्) = हमारा रक्षण करे । प्रभु का रक्षण हमें सदा प्राप्त हो । प्रभु का स्मरण हमें संसार के किसी भी विषय से बद्ध नहीं होने देता । हम संग्राम में वासनाओं को पराजित करनेवाले बनते हैं । ३. हमें ''अदिति का - स्वास्थ्य की देवता का तथा उस महान् देव प्रभु का रक्षण प्राप्त हो'' (नः) = हमारे (तत्) = उस संकल्प को (मित्रः) = मित्र , (वरुणः) = वरुण , (अदितिः) = अदिति , (सिन्धुः) = सिन्धु , (पृथिवी) = पृथिवी (उत) = और (द्यौः) = द्युलोक (मामहन्ताम्) = आदृत करें । हममें ''स्नेह , निर्द्वेषता , स्वास्थ्य , रेतः कणों , दृढ़ शरीर व मस्तिष्क'' का वास हो । इन (देवों) = दिव्यताओं के कारण हमें प्रभु का रक्षण प्राप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अदिति व देव के रक्षण के पात्र हों ।
विशेष / सूचना
विशेष—इस सूक्त की मूलभावना यही है कि हम सब पापों से पार हो जाएँ [१ ७] । इसी दृष्टिकोण से हमें देवों की सुमति प्राप्त हो
विषय
बृहस्पति मनु, कुत्स, इन्द्र आदि का रहस्य ।
भावार्थ
( अदितिः देवी ) प्रकाश देने वाली, अविनाशी नित्य ज्ञान को देने वाली विद्या, माता और आचार्य आदि ( नः ) हमें ( देवैः ) दिव्य ज्ञानों, गुणों और सामर्थ्यों सहित (नि पातु ) पालन करे । ( त्रातादेवः ) त्राण करने वाला रक्षक, राजा और विद्वान् ( त्रायताम् ) पालन करे । ( तत् नः मित्रः० इत्यादि ) पूर्ववत् । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–७ कुत्स ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः-१-६ जगती। ७ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ स्वरः-१-६ निषादः । ७ धैवतः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी जो प्रमाद न करणारा, विद्वानांमध्ये विद्वान, विद्येचे रक्षण करणारा, विद्यादानाने सर्वांचे सुख वाढविणारा असतो. त्याचा सत्कार करून जगात विद्या व धर्माचा प्रसार करावा. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May Aditi, eternal knowledge with the gift of noble virtues protect us. May the scholar and generous seer, saviour from ignorance, in all sincerity protect us without relent. And may Mitra, the sun, Varuna, the moon, Aditi, the sky, the sea and rivers, earth and heaven support and bless us in our progress onward.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they (teachers and the taught) is taught further in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May a great scholar who is associated with learned persons or divine and who is ever wakeful or free from sloth, protect us. May the glorious knowledge or wisdom full of divine attributes, protect all. The rest as explained before in Hymn 101.11.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Translator's Notes
Here ends the commentary on one hundred & sixth hymn and twenty fourth Verga of the first Mandala of the Rigveda.
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