ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 106/ मन्त्र 6
इन्द्रं॒ कुत्सो॑ वृत्र॒हणं॒ शची॒पतिं॑ का॒टे निवा॑ळ्ह॒ ऋषि॑रह्वदू॒तये॑। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । कुत्सः॑ । वृ॒त्र॒ऽहन॑म् । श॒ची॒ऽपति॑म् । का॒टे । निऽबा॑ळ्हः । ऋषिः॑ । अ॒ह्व॒त् । ऊ॒तये॑ । रथ॑म् । न । दुः॒ऽगात् । व॒स॒वः॒ । सु॒ऽदा॒नवः॒ । विश्व॑स्मात् । नः॒ । अंह॑सः । निः । पि॒प॒र्त॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं कुत्सो वृत्रहणं शचीपतिं काटे निवाळ्ह ऋषिरह्वदूतये। रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम्। कुत्सः। वृत्रऽहनम्। शची३ऽपतिम्। काटे। निऽवाळ्हः। ऋषिः। अह्वत्। ऊतये। रथम्। न। दुःऽगात्। वसवः। सुऽदानवः। विश्वस्मात्। नः। अंहसः। निः। पिपर्तन ॥ १.१०६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 106; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरध्यापकोऽध्येता च किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
कुत्सो निवाढ ऋषिः काट ऊतये यं वृत्रहणं शचीपतिमिन्द्रमह्वत्, तं वयमप्याह्वयेम। अन्यत्पूर्ववत् ॥ ६ ॥
पदार्थः
(इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं शालाद्यध्यक्षम् (कुत्सः) विद्यावज्रयुक्तश्छेत्ता पदार्थानां भेत्ता वा। कुत्स इति वज्रना०। निघं० २। २०। कुत्स इत्येतत्कृन्ततेर्ऋषिः कुत्सो भवति कर्त्ता स्तोमानामित्यौपमन्यवोऽत्राप्यस्य वधकर्मैव भवति। निरु० ३। ११। (वृत्रहणम्) शत्रूणां हन्तारम्। अत्र हन्तेरत्पूर्वस्य। अ० ८। ४। २२। इति णत्वम्। (शचीपतिम्) वेदवाचः पालकम् (काटे) कटन्ति वर्षन्ति सकला विद्या यस्मिन्नध्यापने व्यवहारे तस्मिन् (निवाढः) नित्यं सुखानां प्रापयिता (ऋषिः) अध्यापकोऽध्येता वा (अह्वत्) अह्वयेत् (ऊतये) रक्षणाद्याय (रथं, न, दुर्गात्०) इति पूर्ववत् ॥ ६ ॥
भावार्थः
नहि विद्यार्थिना कपटिनोऽध्यापकस्य समीपे स्थातव्यं किन्तु विदुषां समीपे स्थित्वा विद्वान् भूत्वर्षिस्वभावेन भवितव्यम्। स्वात्मरक्षणायाधर्माद्भीत्वा धर्मे सदा स्थातव्यम् ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर पढ़ाने और पढ़नेवाले क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(कुत्सः) विद्यारूपी वज्र लिये वा पदार्थों को छिन्न-भिन्न करने (निवाढः) निरन्तर सुखों को प्राप्त करानेवाला (ऋषिः) गुरु और विद्यार्थी (काटे) जिसमें समस्त विद्याओं की वर्षा होती है उस अध्यापन व्यवहार में (ऊतये) रक्षा आदि के लिए जिस (वृत्रहणम्) शत्रुओं को विनाश करने वा (शचीपतिम्) वेद वाणी के पालनेहारे (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यवान् शाला आदि के अधीश को (अह्वत्) बुलावे, हम लोग भी उसी को बुलावें। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये ॥ ६ ॥
भावार्थ
विद्यार्थी को कपटी पढ़ानेवाले के समीप ठहरना नहीं चाहिये किन्तु आप्त विद्वानों के समीप ठहर और विद्वान् होकर ऋषिजनों के स्वभाव से युक्त होना चाहिये और अपने आत्मा की रक्षा के लिये अधर्म से डरकर धर्म में सदा रहना चाहिये ॥ ६ ॥
विषय
जितेन्द्रियता - वासना - विनाश व शक्ति
पदार्थ
१. (कुत्सः) = [कुथ हिंसायाम्] काम - क्रोध - लोभादि शत्रुओं की हिंसा करनेवाला (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा ज्ञानी पुरुष (काटे)= इस संसार - कूप में (निबाळ्ह) = गिरा हुआ (ऊतये) = अपने रक्षण के लिए (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली (वृत्रहणम्) = असुरों के सेनानी वृत्र का नाश करनेवाले , ज्ञान पर आवरणभूत वासना का विनाश करनेवाले (शचीपतिम्) = सब शक्तियों व प्रज्ञानों के पति प्रभु को (अह्वत्) = पुकारता है । प्रभु के रक्षण के अभाव में एक ज्ञानी पुरुष के लिए भी इन वासनाओं के फिर से आक्रमण न होने देने का सम्भव नहीं होता । ज्ञानी भी प्रभु का स्मरण करता हुआ ही इन वासनाओं को अपने से दूर रख पाता है । यह प्रभु का ही ऐश्वर्य है कि ज्ञानी भक्त वासनाओं को अपने से दूर रख पाता है । प्रभु ही वस्तुतः वासनाओं का विनाश करते हैं । सब शक्तियों के पति भी प्रभु ही हैं ।
२. हे (सुदानवः) = बुराइयों का खूब खण्डन करनेवाले (वसवः) = उत्तम निवासवाले ज्ञानी पुरुषो ! आप (नः) = हमें (विश्वस्मात् अंहसः) = सब पापों से इस प्रकार (निष्पिपर्तन) = पार कीजिए (न) = जैसे एक उत्तम सारथि (रथम्) = रथ को (दुर्गात्) = दुर्गम मार्ग से पार करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - ''इन्द्र , वृत्रहा और शचीपति'' प्रभु का स्मरण हमें इस संसार - कूप में गिरने से बचाता है । हममें भावना पैदा होती है कि हमें जितेन्द्रिय बनना है , वासना का विनाश करना है और शक्ति का स्वामी होना है ।
विषय
बृहस्पति मनु, कुत्स, इन्द्र आदि का रहस्य ।
भावार्थ
( कुत्सः ) विद्युत् ( ऋषिः ) वेग से जाने वाली होकर ( काटे ) कूप आदि गहरे स्थान में ( निबाढः ) गिरता हुआ ( वृत्रहणम् ) मेघों को छिन्न भिन्न करने वाले ( शचीपतिम् ) शक्ति या समस्त कर्मों के पालक ( इन्द्रम् ) जलों के भीतर उनको फाड़ने में समर्थ तेज को ( अह्वत् ) प्रकट करता है। इसी प्रकार ( कुत्सः ) विद्युत आदि विद्याओं का प्रकट करने वाला विद्वान् ( निबाढः ) निरन्तर ज्ञानवान् होकर, ( ऋषिः ) मन्त्रार्थों और सत्य सिद्धान्तों का साक्षात् करने वाला होकर, (काटे) कूप आदि गिर जाने के विषम स्थान में ( वृत्रहणं ) अज्ञानान्धकार के नाशक, ( शचीपतिम् ) सब कर्म सामर्थ्य और वाणियों के पालक, ( इन्द्रम् ) विद्याज्ञान और धन के स्वामी परमेश्वर आचार्य और नायक पुरुष को ( ऊतये ) रक्षा तथा ज्ञान वृद्धि के लिये ( अह्वत् ) पुकारता है। उससे प्रार्थना करता है । कि वह उसे गिरावट के स्थानों से बचावे । ( रथं न दुर्गात् ) इत्यादि पूर्ववत् ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–७ कुत्स ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः-१-६ जगती। ७ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ स्वरः-१-६ निषादः । ७ धैवतः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्यार्थ्यांनी कपट अध्यापकाजवळ राहता कामा नये, तर आप्त विद्वानाजवळ राहून व विद्वान बनून ऋषीच्या स्वभावाप्रमाणे बनले पाहिजे. आपल्या आत्म्याच्या रक्षणासाठी अधर्माला भिऊन सदैव धर्मात राहिले पाहिजे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Rshi, divine seer, Kutsa, master of knowledge and power, creator of peace and joy, in his programmes of peace and progress, invokes for help, inspiration and protection Indra, lord of universal action, speech and knowledge and divine destroyer of evil and darkness. We pray, may the generous Yasus save us from all sin and evil and take us forward as a chariot over the difficult paths of earth, sea and sky.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a teacher and a student do is taught further in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Let us also invoke or invite the President of an educational institution who is destroyer of internal enemies like ignorance and sin, who is the guardian of the Vedic Speech and whom a sage like noble teacher, bringer of happiness to all, possessing the thunderbolt of knowledge and analyzer of various articles invites for protection in the work of teaching where all knowledge rains down.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्रम् ) परमैश्वर्यवन्तं शालाद्यध्यक्षम् = The President of an educational institution possessing the great wealth of wisdom. (कुत्स:) विद्या वज्रयुक्तः, छेत्ता पदार्थानां भेत्ता वा = Having the thunderbolt of knowledge or analyser of various articles कुत्स इति वज्रनाम (निघ० २.२० ) कुत्स एतत् कृन्ततेः ऋषि: कुत्सो भवति कत्र्ता स्तोमानाम इत्यौपमन्यवः निरुक्ते ३.११ (काटे ) कटन्ति वर्षन्ति सकला विद्या यस्मिन्नध्यापनव्यवहारे तस्मिन् । = In the work of teaching whene wall.oknowledge rains down. कटे-वर्षावरणयोः भ्वा ( धातु पाठे) Tr.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A student should not stay with a deceitful teacher but he should become a great scholar of the temperament of a Rishi or Sage, being under enlightened persons. A man should be afraid of Adharma or un-righteousness for self-protection and should always be established in Dharma or righteousness.
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