ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 125/ मन्त्र 2
ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः
देवता - दम्पती
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सु॒गुर॑सत्सुहिर॒ण्यः स्वश्वो॑ बृ॒हद॑स्मै॒ वय॒ इन्द्रो॑ दधाति। यस्त्वा॒यन्तं॒ वसु॑ना प्रातरित्वो मु॒क्षीज॑येव॒ पदि॑मुत्सि॒नाति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽगुः । अ॒स॒त् । सु॒ऽहि॒र॒ण्यः । सु॒ऽअश्वः॑ । बृ॒हत् । अ॒स्मै॒ । वयः॑ । इन्द्रः॑ । द॒धा॒ति॒ । यः । त्वा॒ । आ॒ऽयन्त॑म् । वसु॑ना । प्रा॒तः॒ऽइ॒त्वः॒ । मु॒क्षीज॑याऽइव । पदि॑म् । उ॒त्ऽसि॒नाति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुगुरसत्सुहिरण्यः स्वश्वो बृहदस्मै वय इन्द्रो दधाति। यस्त्वायन्तं वसुना प्रातरित्वो मुक्षीजयेव पदिमुत्सिनाति ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽगुः। असत्। सुऽहिरण्यः। सुऽअश्वः। बृहत्। अस्मै। वयः। इन्द्रः। दधाति। यः। त्वा। आऽयन्तम्। वसुना। प्रातःऽइत्वः। मुक्षीजयाऽइव। पदिम्। उत्ऽसिनाति ॥ १.१२५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 125; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
कोऽत्र धर्मात्मा यशस्वी जायत इत्याह ।
अन्वयः
हे प्रातरित्वो य इन्द्रो वसुना आयन्तं त्वा दधात्यस्मै बृहद्वयश्च मुक्षीजयेव पदिमुत्सिनाति स सुगुस्सुहिरण्यस्स्वश्वोऽसद्भवेत् ॥ २ ॥
पदार्थः
(सुगुः) शोभना गावो यस्य सः (असत्) भवेत् (सुहिरण्यः) शोभनानि हिरण्यानि यस्य सः (स्वश्वः) शोभना अश्वा यस्य सः (बृहत्) महत् (अस्मै) (वयः) चिरंजीवनम् (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (दधाति) (यः) (त्वा) त्वाम् (आयन्तम्) आगच्छन्तम् (वसुना) उत्तमेन द्रव्येण सह (प्रातरित्वः) प्रातःकालमारभ्य प्रयत्नकर्त्तः (मुक्षीजयेव) मुक्ष्या मुञ्जाया जायते सा मुक्षीजा तयेव (पदिम्) पद्यते गम्यते या श्रीस्ताम् (उत्सिनाति) उत्कृष्टतया बध्नाति ॥ २ ॥
भावार्थः
यो विद्वान् प्राप्तान् शिष्यान् सुशिक्षयाऽधर्मविषयलोलुपतात्यागोपदेशेन दीर्घायुषो विद्यावतः श्रीमतश्च करोति सोऽत्र पुण्यकीर्तिर्जायते ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इस संसार में कौन धर्मात्मा और यशस्वी कीर्तिमान् होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (प्रातरित्वः) प्रातःसमय से लेकर अच्छा यत्न करनेहारे (यः) जो (इन्द्रः) ऐश्वर्य्यवान् पुरुष (वसुना) उत्तम धन के साथ (आयन्तम्) आते हुए (त्वा) तुझको (दधाति) धारण करता (अस्मै) इस कार्य के लिये (बृहत्) बहुत (वयः) चिरकाल तक जीवन और (मुक्षीजयेव) जो मूँज से उत्पन्न होती उससे जैसे बाँधना बने वैसे साधन से (पदिम्) प्राप्त होते हुए धन को (उत्सिनाति) अत्यन्त बाँधता अर्थात् सम्बन्ध करता, वह (सुगुः) सुन्दर गौओं (सुहिरण्यः) अच्छे-अच्छे सुवर्ण आदि धनों और (स्वश्वः) उत्तम-उत्तम घोड़ोंवाला (असत्) होवे ॥ २ ॥
भावार्थ
जो विद्वान् पाये हुए शिष्यों को उत्तम शिक्षा अर्थात् अधर्म और विषय भोग की चञ्चलता के त्याग आदि के उपदेश से बहुत आयुर्दायुक्त विद्या और धनवाले करता है, वह इस संसार में उत्तम कीर्तिमान् होता है ॥ २ ॥
विषय
सुगुः, सुहिरण्यः, स्वश्वः
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार प्रातः प्रबुद्ध होकर गतिशील होनेवाला व्यक्ति (सुगुः असत्) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियरूप गौओं-[इन्द्रियों]-वाला होता है । इन ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञानप्रकाश करता हुआ यह (सुहिरण्यः) = उत्तम ज्ञानज्योतिवाला बनता है - 'हिरण्यं वै ज्योतिः' । (स्वश्वः) = यह उत्तम कर्मेन्द्रियरूप अश्वोंवाला होता है और (इन्द्रः) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला प्रभु (अस्मै) = इस प्रातरित्वा के लिए (बृहत् वयः) = [बृहि वृद्धौ] सब प्रकार से बढ़ी हुई शक्तियोंवाले आयुष्य को (दधाति) = धारण करता है । कर्मेन्द्रियों से उत्तम कर्मों में लगे रहने से ही इस 'बृहत् वयः' की प्राप्त होती है । २. हे (प्रातरित्वः) = प्रातः प्रबुद्ध होकर कर्तव्यों में लगनेवाले जीव ! ये प्रभु वे हैं (यः) = जो (आयन्तम्) = [आ समन्तात, इ गतौ] चारों ओर से कार्यों में व्याप्त होनेवाले (त्वा) = तुझे (वसुना) = सब वसुओं से-निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों से (उत्सिनाति) = उत्कृष्ट रूप से बद्ध करते हैं, उसी. प्रकार (इव) = जैसे कि (मुक्षीजया) = रज्जु से (पदिम्) = इधर-उधर गति करनेवाले पशु-पक्षी को बाँधते हैं । बद्ध पशु अपने स्वामी से दूर नहीं होता, इसी प्रकार वसुओं से बँधा हुआ यह प्रातरित्वा प्रभु से दूर नहीं जाता । प्रभु से दूर जाने की अपेक्षा यह प्रभु के अधिक समीप रहने का ध्यान करता है । यह प्रभु को ही सब वसुओं के निधान के रूप में देखता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रातः प्रबुद्ध होकर प्रभुपूजन आदि कर्मों में व्याप्त होनेवाला व्यक्ति [क] उत्तम ज्ञानेन्द्रियों से जानी बनता है, [ख] उत्तम कर्मेन्द्रियों से उत्कृष्ट जीवनवाला होता है, [ग] वसुओं को प्राप्त करता हुआ प्रभु के और अधिक निकट हो जाता है ।
विषय
आयु के पूर्वभाग में ब्रह्मचर्य का और अनन्तर गृहस्थ का उपदेश, और उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( प्रातरित्वः ) अपने जीवन के प्रभात काल से अपने गुरु के समीप आने वाले, वा प्रातःकाल से ही यत्नशील ! ( यः ) जो विद्वान् ( इन्द्रः ) समस्त ज्ञानों का दाता आचार्य ( वसुना ) ऐश्वर्य के सहित ( त्वा आयन्तं ) तुझे अपने समीप आते को प्राप्त करके ( मुक्षीजया इव ) मूंज की रस्सी से ( पदिम् ) वेगवान् अश्व को जिस प्रकार बांधा जाता है उसी प्रकार ( पदिम् ) ज्ञान की अभिलाषा से प्राप्त हुए तुझ को ( मुक्षीजया ) मूंज की बनी रस्सी या मेखला से ( उत्सिनाति ) उत्तम उद्देश्य के लिये नियम में बांधता है वही ( इन्द्रः ) आचार्य, ज्ञानोपदेष्टा ( अस्मै ) उस तुझ शिष्य को ( बृहत् वयः ) बड़ा बल, ज्ञान और दीर्घायु, ब्रह्मचर्य धारण कराता है। उसी से तू ( सुगुः ) उत्तम ज्ञानवाणियों, एवं उत्तम बलवान् इन्द्रियों से युक्त ( सुहिरण्यः ) उत्तम हितकारी और रमण करने योग्य, मनोहर ज्ञान से सम्पन्न ( सु-अश्वः ) उत्तम अश्व, भोक्ता आत्मा और उत्तम कर्मेन्द्रियों से युक्त हो जाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ दम्पती देवते दानस्तुतिः ॥ छन्दः– १,३,७ त्रिष्टुप । २, ६ निचृत् त्रिष्टुप । ४, ५ जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो विद्वान त्याच्या शिष्यांना उत्तम शिक्षण देतो. अर्थात, अधर्म व विषय भोगाच्या चंचलतेचा त्याग इत्यादी उपदेश करून पुष्कळ आयुष्य देणारी विद्या देतो आणि धनवान करतो त्याची या जगात उत्तम कीर्ती होते. ॥ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
He is blest with good cows, good gold and good horses, and Indra, lord of life and power, brings him liberal gifts of food and energy for body, mind and soul for a long life time, who, rising early, binds you, the needy and deserving man, in a bond of thanks with a gift of ample means and money, like a calf bound with a rope to the post, while you come to him for help and assistance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who becomes righteous and illustrious is told in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A man getting up early in the morning and industrious, the wealthy person who binds thee with wealth of knowledge as a calf is tied with rope, becomes rich in kin, in gold and in horses by the grace of God and on account of his liberality. God bestows upon you long life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मुक्षीजया) मुक्ष्या मुंजाया जायते या सा मुक्षीजा = By the rope made of core. (पदिम्) पद्यते गम्यते या श्रीस्ताम् = Wealth that is not stable.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The scholar who makes his pupils learned, long-living and wealthy by imparting them good education and by giving the teaching of the renouncement of un-righteousness and indulgence of passions becomes renowned and illustrious.
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