ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 125/ मन्त्र 6
ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः
देवता - दम्पती
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दक्षि॑णावता॒मिदि॒मानि॑ चि॒त्रा दक्षि॑णावतां दि॒वि सूर्या॑सः। दक्षि॑णावन्तो अ॒मृतं॑ भजन्ते॒ दक्षि॑णावन्त॒: प्र ति॑रन्त॒ आयु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठदक्षि॑णाऽवताम् । इत् । इ॒मानि॑ । चि॒त्रा । दक्षि॑णाऽवताम् । दि॒वि । सूर्या॑सः । दक्षि॑णाऽवन्तः । अ॒मृत॑म् । भ॒ज॒न्ते॒ । दक्षि॑णाऽवन्तः । प्र । ति॒र॒न्ते॒ । आयुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दक्षिणावतामिदिमानि चित्रा दक्षिणावतां दिवि सूर्यासः। दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते दक्षिणावन्त: प्र तिरन्त आयु: ॥
स्वर रहित पद पाठदक्षिणाऽवताम्। इत्। इमानि। चित्रा। दक्षिणाऽवताम्। दिवि। सूर्यासः। दक्षिणाऽवन्तः। अमृतम्। भजन्ते। दक्षिणाऽवन्तः। प्र। तिरन्ते। आयुः ॥ १.१२५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 125; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनश्चतुर्वर्णस्थाः किं कुर्युरित्याह ।
अन्वयः
दक्षिणावतां जनानामिमानि चित्राऽद्भुतानि सुखानि दक्षिणावतां दिवि सूर्य्यासः प्राप्नुवन्ति दक्षिणावन्त इदेवामृतं भजन्ते दक्षिणावन्त आयुः प्रतिरन्ते प्राप्नुवन्ति ॥ ६ ॥
पदार्थः
(दक्षिणावताम्) धर्मोपार्जिता धनविद्यादयो बहवः पदार्था विद्यन्ते येषां तेषाम् (इत्) एव (इमानि) प्रत्यक्षाणि (चित्रा) चित्राण्यद्भुतानि (दक्षिणावताम्) प्रशंसितयोर्धर्म्यधनविद्ययोर्दक्षिणा दानं येषां तेषाम्। प्रशंसायां मतुप्। (दिवि) दिव्ये प्रकाशे (सूर्यासः) सवितार इव तेजस्विनो जनाः (दक्षिणावन्तः) बहुविद्यादानयुक्ताः (अमृतम्) मोक्षम् (भजन्ते) (दक्षिणावन्तः) बह्वभयदानदातारः (प्र) (तिरन्ते) संतरन्ति (आयुः) प्राणधारणम् ॥ ६ ॥
भावार्थः
ये ब्राह्मणाः सार्वजनिकसुखाय विद्यासुशिक्षादानं, ये च क्षत्रिया न्यायेन व्यवहारेणाभयदानं, ये वैश्या धर्मोपार्जितधनस्य दानं, ये च शूद्राः सेवादानं च कुर्वन्ति ते पूर्णायुषो भूत्वेहामुत्रानन्दं सततं भुञ्जते ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर चारों वर्णों में स्थिर होनेवाले मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(दक्षिणावताम्) जिनके धर्म से इकट्ठे किये धन, विद्या आदि बहुत पदार्थ विद्यमान हैं, उन मनुष्यों को (इमानि) ये प्रत्यक्ष (चित्रा) चित्र-विचित्र अद्भुत सुख (दक्षिणावताम्) जिनके प्रशंसित धर्म के अनुकूल धन और विद्या की दक्षिणा का दान होता, उन सज्जनों को (दिवि) उत्तम प्रकाश में (सूर्य्यासः) सूर्य्य के समान तेजस्वी जन प्राप्त होते हैं (दक्षिणावन्तः) बहुत विद्या-दानयुक्त सत्पुरुष (इत्) ही (अमृतम्) मोक्ष का (भजन्ते) सेवन करते और (दक्षिणावन्तः) बहुत प्रकार का अभय देनेहारे जन (आयुः) आयु के (प्रतिरन्ते) अच्छे प्रकार पार पहुँचे अर्थात् पूरी आयु भोगते हैं ॥ ६ ॥
भावार्थ
जो ब्राह्मण सब मनुष्यों के सुख के लिये विद्या और उत्तम शिक्षा का दान, वा जो क्षत्रिय न्याय के अनुकूल व्यवहार से प्रजा जनों को अभय दान, वा जो वैश्य धर्म से इकट्ठे किये हुए धन का दान और जो शूद्र सेवा दान करते हैं, वे पूर्ण आयुवाले होकर इस जन्म और दूसरे जन्म में निरन्तर आनन्द को भोगते हैं ॥ ६ ॥
विषय
दान का महत्त्व
पदार्थ
१. (दक्षिणावताम्) = दानशील पुरुषों के (इत्) = निश्चय से (इमानि) = ये लोक (चित्रा) = अद्भुत बनते हैं । ये इस लोक में आश्चर्यजनक उन्नति करते हैं और 'दक्षिणां दुहते ससमातरम्' - इस दान को ससगुणित करके प्राप्त करते हुए ये अभ्युदय को सिद्ध करते हैं । २. (दक्षिणावताम्) = दान देनेवालों के ही (दिवि) = मस्तिष्करूप ह्युलोक में ज्ञान-विज्ञान के (सूर्यासः) = सूर्य उदित होते हैं । कृपणवृत्तिवाले लोग तो धन के दास बनकर लक्ष्मी के वाहनभूत 'उल्लू' ही बन जाते हैं । ३. (दक्षिणावन्तः) = ये दानशील व्यक्ति (अमृतं भजन्ते) = नीरोगता को प्राप्त करते हैं । दान से वृत्ति यज्ञिय बनी रहती है । इनकी वृति भोगप्रवण [इन्द्रियों के विषयों में लिप्त] न होने से इन्हें रोग नहीं सताते और ये अमृत [दीर्घायु] बने रहते हैं । इस प्रकार ये दक्षिणावन्तः दानशील पुरुष (आयुः प्रतिरन्त) = अपने आयुष्य को बढ़ाते हैं । दान से जीवन दीर्घ बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ - दान से यह लोक अभ्युदय - सम्पन्न होता है । ज्ञान का विकास होता है, नीरोगता प्रास होती है और आयु दीर्घ होती है ।
विषय
आयु के पूर्वभाग में ब्रह्मचर्य का और अनन्तर गृहस्थ का उपदेश, और उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( दक्षिणावतां इत् ) जो लोग धर्म से उपार्जित धन ऐश्वर्य,विद्या आदि के निमित्त श्रद्धा से दान देने और बल और ज्ञान प्राप्त करने की साधना करते हैं उनके लिये ही ( इमानि ) ये समस्त प्रकार के (चित्रा) अद्भुत, नाना विध सुखजनक पदार्थ हैं । ( दक्षिणावताम् ) उक्त प्रकार के धन और ज्ञान और आत्मशक्ति सम्पादन करने वालों के लिये ही ( दिवि सूर्यासः ) आकाश में सूर्यों के समान इस भूमि में तेजस्वी पुरुष उनकी सेवा के लिये होते हैं । ( दक्षिणावन्तः ) उस प्रकार के ऐश्वर्य दान देने और बल और प्रज्ञा के सम्पादन करने वाले पुरुष ही ( अमृतं ) मोक्षानन्द, पुत्रादि सन्तति तथा अन्न जल की समृद्धि का भी ( भजन्ते ) भोग करते हैं । और ( दक्षिणावन्तः ) उक्त प्रकार के दाता या ज्ञान बल के स्वामी लोग ही ( आयुः ) दीर्घ जीवन को ( प्रतिरन्त ) उत्तम रीति से प्राप्त करते हैं। ब्राह्मण सबको विद्या दें, क्षत्रिय अभय दें, वैश्य ऐश्वर्य, अन्नादि दान करें और शूद्र सेवा दें, वे सुखी होकर दीर्घ जीवन, नाना सुख और मोक्ष भी प्राप्त करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ दम्पती देवते दानस्तुतिः ॥ छन्दः– १,३,७ त्रिष्टुप । २, ६ निचृत् त्रिष्टुप । ४, ५ जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे ब्राह्मण सर्व माणसांच्या सुखासाठी विद्या व उत्तम शिक्षणाचे दान देतात, जे क्षत्रिय न्यायानुकूल व्यवहाराने प्रजेला अभयदान देतात, जे वैश्य धर्माने संग्रहित केलेले धन दान करतात व जे शूद्र सेवा दान देतात ते पूर्ण आयुष्य भोगून या जन्मी व पुढच्या जन्मी निरंतर आनंद भोगतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For the men of charity and yajna are these wonders of the world. For the men of honour, service and sacrifice shine the stars in heaven and abide. The men of knowledge, education and charity enjoy immortality beyond death, in life and after. And the men of courage, protection, fearlessness and charity cross the seas of suffering and slavery in their life of full age.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men of four Varnas (classes) do is told in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
who These wonderful rewards are verily for those possess knowledge and Dharma. The donors of good knowledge and riches, come in contact with learned men who shine like the sun. The givers of pious donations of wisdom attain immortality, the givers of pious donations of fearlessness prolong their lifetime.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दक्षिणावताम् ) १ धर्मोपार्जिता धनविद्यादयो बहवः पदार्था विद्यन्ते येषां ते । = Of those who possess righteously-earned wealth and knowledge. (२) प्रशंसितयोर्धम्यधन विद्ययोर् क्षिणा दानं येषां ते । प्रशंसार्थो मतुप् | = Donors of righteously earned wealth and knowledge. (३) (दक्षिणावन्त:) १ बहुविद्यादानयुक्ताः (२) बहुभयदानदातार: = Givers of much fearlessness or freedom from anxiety. It is remarkable that while Sayahacharya, Prof. Wilson and Griffith take दक्षिणावताम् here in the sense of बहुविध गोहिरण्यादिरूपदक्षिणा प्रदातृणाम् (सायण:) pious donations (Wilson) or rich needs (Griffith), Rishi Dayananda Sarasvati has taken the word in the wider sense and has included the contribution of the service rendered by all the four Varnas (Classes) according to their ability and worth. Thus he has shown his keen spiritual insight.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those Brahmanas who give the donation of wisdom and good education for public welfare, those Kshatriyas who give the donation of fearlessness by their just dealing, those Vaishyas (traders) who give the donation of their righteously earned wealth and those Shudras who give the donation of their service attain full age and enjoy happiness here and hereafter.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal