ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 125/ मन्त्र 7
ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः
देवता - दम्पती
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मा पृ॒णन्तो॒ दुरि॑त॒मेन॒ आर॒न्मा जा॑रिषुः सू॒रय॑: सुव्र॒तास॑:। अ॒न्यस्तेषां॑ परि॒धिर॑स्तु॒ कश्चि॒दपृ॑णन्तम॒भि सं य॑न्तु॒ शोका॑: ॥
स्वर सहित पद पाठमा । पृ॒ण॒न्तः॒ । दुःऽइ॑तम् । एनः॑ । आ । अ॒र॒न् । मा । जा॒रि॒षुः॒ । सू॒रयः॑ । सु॒ऽव्र॒तासः॑ । अ॒न्यः । तेषा॑म् । प॒रि॒ऽधिः । अ॒स्तु॒ । कः । चि॒त् । अपृ॑णन्तम् । अ॒भि । सम् । य॒न्तु॒ । शोकाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा पृणन्तो दुरितमेन आरन्मा जारिषुः सूरय: सुव्रतास:। अन्यस्तेषां परिधिरस्तु कश्चिदपृणन्तमभि सं यन्तु शोका: ॥
स्वर रहित पद पाठमा। पृणन्तः। दुःऽइतम्। एनः। आ। अरन्। मा। जारिषुः। सूरयः। सुऽव्रतासः। अन्यः। तेषाम्। परिऽधिः। अस्तु। कः। चित्। अपृणन्तम्। अभि। सम्। यन्तु। शोकाः ॥ १.१२५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 125; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 7
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
इह संसारे कतिविधाः पुरुषा भवन्तीत्याह ।
अन्वयः
हे मनुष्या भवन्तः पृणन्तः सन्तो दुरितमेनो माऽरन् दुरितमेनो मा जारिषुः किन्तु सुव्रतासः सूरयः सन्तो धर्ममेवाचरन्तु ये च युष्मदध्यापकास्तेषां युष्माकं च कश्चिदन्यः परिधिरस्तु। अपृणन्तं जनं शोका अभिसंयन्तु ॥ ७ ॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (पृणन्तः) स्वं स्वकीयांश्च पुष्यन्तः (दुरितम्) दुःखायेतं प्राप्तम् (एनः) पापाचरणम् (आ) समन्तात् (अरन्) आचरन्तु (मा) (जारिषुः) जारकर्माणि कुर्वन्तु (सूरयः) विद्वांसः (सुव्रतासः) शोभनानि व्रतानि सत्याचरणानि येषान्ते (अन्यः) भिन्नः (तेषाम्) धार्मिकाणां विदुषामधार्मिकाणां मूर्खाणां च (परिधिः) आवरणं मर्य्यादा (अस्तु) (कः) (चित्) अपि (अपृणन्तम्) धर्मेणापुष्यन्तमन्यानपोषयन्तम् (अभि) सर्वतः (सम्) सम्यक् (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (शोकाः) विलापाः ॥ ७ ॥
भावार्थः
अस्मिन् जगति द्विविधा जनाः सन्ति। एके धार्मिका अपरे पापाश्च, ते प्रभिन्नप्रस्थानास्सन्ति। ये धार्मिकास्ते धार्मिकस्याऽनुकरणेनैव धर्ममार्गे चलन्ति। ये च दुष्टास्ते त्वधार्मिकानुकरणेनैवाधर्मे चलन्ति। नैव कदाचिद् धार्मिकैरधार्मिकमार्गे गन्तव्यमधार्मिकैस्तु धार्मिकमार्गे गन्तुं योग्यमेवं प्रत्येकजातौ धार्मिकाधार्मिकयोर्द्वौ मार्गौ स्तः, तत्र धार्मिकान् सुखान्यधार्मिकान् दुःखानि च सदाप्नुवन्ति ॥ ७ ॥अस्मिन् सूक्ते धर्म्याचरणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति पञ्चविंशोत्तरं शततमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
इस संसार में कै प्रकार के पुरुष होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! आपलोग (पृणन्तः) स्वयं वा अपने सन्तान आदि को पुष्ट करते हुए (दुरितम्) दुःख के लिये जो प्राप्त होता अर्थात् (एनः) पापः का आचरण (मा, आ, अरन्) मत करो और दुःख के लिये प्राप्त होनेवाला पापाचरण जैसे हो वैसे (मा, जारिषुः) खोटे कामों को मत करो किन्तु (सुव्रतासः) उत्तम सत्य आचरणवाले (सुरयः) विद्वान् होते हुए धर्म ही का आचरण करो और जो तुम्हारे अध्यापक हों (तेषाम्) उन धार्मिक विद्वानों तथा तुम लोगों के बीच (कश्चित्) कोई (अन्यः) भिन्न (परिधिः) मर्य्यादा अर्थात् तुम सभों को ढाँपने, गुप्त राखने, मूर्खपन से बचानेवाला प्रकार (अस्तु) हो और (अपृणन्तम्) धर्म से न पुष्ट होने न दूसरों को पुष्ट करनेवाले किन्तु अधर्म से पुष्ट होने तथा अधर्म ही से औरों को पुष्ट करनेवाले मनुष्य को (शोकाः) शोक विलाप (अभि, सम्, यन्तु) सब ओर से प्राप्त हों ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं, एक धार्मिक और दूसरे पापी। ये दोनों अच्छे प्रकार अलग-अलग स्थान और आचरणवाले हैं अर्थात् जो धार्मिक हैं, वे धर्मात्माओं के अनुकरण ही से धर्ममार्ग में चलते और जो दुष्ट आचरण करनेवाले पापी हैं, वे अधर्मी दुष्ट जनों के आचरण ही से अधर्म में चलते हैं। कभी किन्हीं धर्मात्माओं को अधर्मी दुष्ट जनों के मार्ग में नहीं चलना चाहिये और अधर्मी दुष्टों को अपनी दुष्टता छोड़ धार्मिकों के मार्ग में चलना योग्य है। इस प्रकार प्रत्येक जाति के पीछे धार्मिक और अधार्मिकों के दो मार्ग हैं, उनमें धर्म करनेवालों को सुख और अधर्मी दुष्टों को दुःख सदा प्राप्त होते हैं ॥ ७ ॥इस सूक्त में धर्म के अनुकूल आचरण का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ पच्चसीवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
पृणन् व अपृणन् की तुलना
पदार्थ
१. (पृणन्तः) = दान देनेवाले (दुरितम्) = दुर्गति व दुःख को तथा (एनः) = दुःख के कारणभूत पाप को (मा आरन्) = प्राप्त न हों । दान से व्यसन-वृक्ष के मूलभूत लोभ का ही विनाश हो जाता है । व्यसनों की समाप्ति से कष्ट भी समाप्त हो जाते हैं । २. इस प्रकार दुरित व एनस् से ऊपर उठनेवाले, (सुव्रतासः) = उत्तम 'सत्य, यश, श्री' आदि की प्राप्ति के व्रतोंवाले (सूरयः) = ज्ञानीपुरुष (मा जारिषः) = जीर्ण न हों । भोगों में फंसने से ही तो रोगों व जरा का भय होता है । भोगातीत जीवन जीर्णता से ऊपर उठा रहता है । ३. (तेषाम्) = उन सुन्नत, सूरि पुरुषों का (अन्यः) = वह विलक्षण (कश्चित्) = निश्चय से आनन्दस्वरूप प्रभु (परिधिः अस्तु) = सब ओर से धारण-रक्षण करनेवाला हो । ये सुव्रत पुरुष केन्द्र में निवास करते हैं, प्रभु परिधि होते हैं । इस परिधि से रक्षित होने से ये सुव्रत पुरुष दुरितों व पापों के शिकार नहीं होते । ४. इनके विपरीत (अपृणन्तम्) = दान न देनेवाले को (शोकाः अभि संयन्तु) = सब ओर से शोक प्राप्त होते हैं । ये ऐहिक ऐश्वर्य को भी नष्ट कर बैठते हैं, आमुष्मिक निःश्रेयस को तो इन्हें प्राप्त ही क्या करना? माय ।
भावार्थ
भावार्थ - दान से दुरित दूर होते हैं, अदानवृत्ति शोक का कारण बनती है ।
विषय
आयु के पूर्वभाग में ब्रह्मचर्य का और अनन्तर गृहस्थ का उपदेश, और उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( सूरयः ) विद्वान् ( सुव्रतासः ) उत्तम रीति से व्रत, धर्माचरण और नियम मर्यादाओं का पालन करने हारे, धार्मिक गृहस्थ ( पृणन्तः ) भरण पोषण करने वाले पुरुष ( दुरितम् ) दुःख या दुरवस्था प्राप्त कराने वाले ( एनः ) पापाचरण को ( मा आरन् ) न करें । और वे ( मा जारिषुः ) जार के समान दूसरों की स्त्री आदि पर लम्पटता आदि कुकर्म न करें । अथवा ( मा जारिषुः ) बुद्धि, बल और आयु का नाश न करें । ( तेषाम् ) उनमें से ( कश्चित् अन्यः ) कोई एक पुरुष उनका ( परिधिः अस्तु ) सब तरफ से रक्षा करने हारा हो । परन्तु ( अपृणन्तम् ) पालन पोषण न करने वाले को (शोकः) शोक दुःख और पीड़ाएं (अभि संयन्तु) सब तरफ से प्राप्त हों । इति दशमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ दम्पती देवते दानस्तुतिः ॥ छन्दः– १,३,७ त्रिष्टुप । २, ६ निचृत् त्रिष्टुप । ४, ५ जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या जगात दोन प्रकारची माणसे असतात. एक धार्मिक व दुसरे पापी. हे दोन्ही वेगवेगळे स्थान व आचरण असणारे असतात. अर्थात, जे धार्मिक असतात ते धर्मात्म्यांच्या मार्गाचे अनुसरण करतात व दुष्ट आचरण करणारे पापी अधार्मिक दुष्ट लोकांच्या आचरणानुसार अधर्माच्या मार्गाने चालतात. धर्मात्म्यांनी अधार्मिक दुष्ट मार्गावर कधीही चालू नये. या प्रकारे धार्मिक व अधार्मिकाचे दोन मार्ग आहेत. त्यापैकी धर्माचे पालन करणाऱ्यांना सुख मिळते व अधर्म करणाऱ्या दुष्टांना दुःख प्राप्त होते. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the generous never come to sin and suffering. May the brilliant people of holy vows never suffer the disabilities of old age. May the orbit of their Karma be something different from evil and pain, since sorrow and suffering is the lot of the ungenerous and selfish.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How many kinds of men are there in this world is told in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, may not you feeding yourselves and others commit any sin that leads to misery. May you never commit the heinous sin of debauchery. But being learned observers of truthful vows may you always act righteously. May there be a dividing line between the righteous and learned persons and other stupid people of unrighteous type. May repentance fall upon them who do not feed themselves and others righteously.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(जारिषु:) जारकर्माणि कुर्वन्तु = Commit adultery. (परिधिः)आवरणं, मर्यादा = Distinguishing line or mark. (शोका:) विलापा: = Moaning or repentance.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
In this world, there are men of two kinds. There are righteous men and there are sinners. They are of different nature and different ways. Those who are righteous, follow the path of Dharma following the foot-steps of the righteous, but those that are wicked follow the path trodden by unrighteous persons only. Righteous persons should never follow the path of un-righteous persons, but it is the duty of un-righteous persons to follow the righteous. Thus in every nation or country the righteous and unrighteous follow two different paths. Righteous persons have to enjoy happiness and un-righteous persons always remain un-happy or miserable.
Translator's Notes
Here there is mention of the righteous conduct, so it has connection with the previous hymn. Here ends the commentary on the 125th hymn and tenth Verga of the first Mandala of the Rigveda.
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