Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 125 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 125/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः देवता - दम्पती छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    नाक॑स्य पृ॒ष्ठे अधि॑ तिष्ठति श्रि॒तो यः पृ॒णाति॒ स ह॑ दे॒वेषु॑ गच्छति। तस्मा॒ आपो॑ घृ॒तम॑र्षन्ति॒ सिन्ध॑व॒स्तस्मा॑ इ॒यं दक्षि॑णा पिन्वते॒ सदा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नाक॑स्य । पृ॒ष्ठे । अधि॑ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । श्रि॒तः । यः । पृ॒णाति॑ । सः । ह॒ । दे॒वेषु॑ । ग॒च्छ॒ति॒ । तस्मै॑ । आपः॑ । घृ॒तम् । अ॒र्ष॒न्ति॒ । सिन्ध॑वः । तस्मै॑ । इ॒यम् । दक्षि॑णा । पि॒न्व॒ते॒ । सदा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नाकस्य पृष्ठे अधि तिष्ठति श्रितो यः पृणाति स ह देवेषु गच्छति। तस्मा आपो घृतमर्षन्ति सिन्धवस्तस्मा इयं दक्षिणा पिन्वते सदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नाकस्य। पृष्ठे। अधि। तिष्ठति। श्रितः। यः। पृणाति। सः। ह। देवेषु। गच्छति। तस्मै। आपः। घृतम्। अर्षन्ति। सिन्धवः। तस्मै। इयम्। दक्षिणा। पिन्वते। सदा ॥ १.१२५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 125; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः कैः कर्मभिरत्र मोक्ष आप्तव्य इत्याह।

    अन्वयः

    यो मनुष्यो देवेषु गच्छति स ह विद्यामाश्रितः सन् नाकस्य पृष्ठेऽधि तिष्ठति सर्वान् पृणाति तस्मा आपः सदा घृतमर्षन्ति तस्मा इयं दक्षिणा सिन्धवः सदा पिन्वते ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (नाकस्य) अविद्यमानदुःखस्यानन्दस्य (पृष्ठे) आधारे (अधि) उपरिभावे (तिष्ठति) (श्रितः) विद्यामाश्रितः (यः) (पृणाति) विद्यासुशिक्षासंस्कृताऽन्नाद्यैः स्वयं पुष्यति सन्तानात् पोषयति च (सः) (ह) किल (देवेषु) दिव्येषु गुणेषु विद्वत्सु वा (गच्छति) (तस्मै) (आपः) प्राणा जलानि वा (घृतम्) आज्यम् (अर्षन्ति) वर्षन्ति (सिन्धवः) नद्यः (तस्मै) (इयम्) अध्यापनजन्या (दक्षिणा) (पिन्वते) प्रीणाति (सदा) ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या नरदेहमाश्रित्य सत्पुरुषसङ्गं धर्म्याऽचारं च सदा कुर्वन्ति ते सदैव सुखिनो भवन्ति। ये विद्वांसो या विदुष्यो बालकान् यूनो वृद्धांश्च कन्या युवतिर्वृद्धाश्च निष्कपटतया विद्यासुशिक्षे सततं प्रापयन्ति तेऽत्राखिलं सुखं प्राप्य मोक्षमधिगच्छन्ति ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    इस संसार में मनुष्यों को किन कामों से मोक्ष प्राप्त हो सकता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यः) जो मनुष्य (देवेषु) दिव्यगुण वा उत्तम विद्वानों में (गच्छति) जाता है (सः, ह) वही विद्या के (श्रितः) आश्रय को प्राप्त हुआ (नाकस्य) जिसमें किञ्चित् दुःख नहीं उस उत्तम सुख के (पृष्ठे) आधार (अधि, तिष्ठति) पर स्थिर होता वा (पृणाति) विद्या उत्तम शिक्षा और अच्छे बनाए हुए अन्न आदि पदार्थों से आप पुष्ट होता और सन्तान को पुष्ट करता है (तस्मै) उसके लिये (आपः) प्राण वा जल (सदा) सब कभी (घृतम्) घी (अर्षन्ति) वर्षाते तथा (तस्मै) उसके लिये (इयम्) यह पढ़ाने से मिली हुई (दक्षिणा) और (सिन्धवः) नदीनद (सदा) सब कभी (पिन्वते) प्रसन्नता करते हैं ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य इस मनुष्य देह का आश्रय कर सत्पुरुषों का सङ्ग और धर्म के अनुकूल आचरण को सदा करते वे सदैव सुखी होते हैं। जो विद्वान् वा जो विदुषी पण्डिता स्त्री, बालक, ज्वान और बुड्ढे मनुष्यों तथा कन्या, युवति और बुड्ढी स्त्रियों को निष्कपटता से विद्या और उत्तम शिक्षा को निरन्तर प्राप्त कराते, वे इस संसार में समग्र सुख को प्राप्त होकर अन्तकाल में मोक्ष को अधिगत होते अर्थात् अधिकता से प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दान से देवत्व की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (श्रितः) = [श्रितं अस्य अस्तीति] लोकसेवा की वृत्तिवाला (यः) = जो (पृणाति) = लोकहित के कार्यों के लिए सदा दान करता है वह नाकस्य पृष्ठ स्वर्गलोक के पृष्ठ पर (अधितिष्ठति) = अधिष्ठित होता है । लोकहित के लिए दान देनेवाला सुख - प्राप्ति का अधिकारी होता है तथा (सः) = वह (ह) = निश्चय से (देवेषु गच्छति) = मनुष्यों से ऊपर उठकर देवों में चला जाता है । सामान्य मनुष्य न रहकर वह देव बन जाता है । दान से अशुभ भावनाओं का नाश होकर शुभ भावनाओं का उदय होता है । ये शुभ भावनाएँ उसे देव बना देती हैं । २. (तस्मै) = इस देव के लिए (सिन्धवः) = ये बहनेवाले (आपः) = जल-शरीरस्थ सोमकण (घृतम्) = मलों के क्षरण व दीप्ति को (अर्षन्ति) = प्राप्त कराते हैं । दान की वृत्तिवाले में व्यसनों व वासनाओं के अंकुरित व विकसित न होने से सोम का रक्षण होता है और यह सोम जहाँ शरीरस्थ मलों को दूर करके शरीर को नीरोग बनाता है, वहाँ मस्तिष्क को ज्ञान की दीप्ति से युक्त करता है । (तस्मै) = उस दानशील पुरुष के लिए (इयम्) = यह दक्षिणा दानशीलता सदा (पिन्वते) = सदा आप्यायन व प्रीणन का कारण बनती है । दान से मनुष्य का सब प्रकार से वर्धन ही होता है । दान से धन भी बढ़ता है, सन्तान भी उत्तम बनती है और मनुष्य यशस्वी होता है । वासनाएँ दूर होकर जीवन तो सुन्दर बनता ही है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - दानशीलता हमें सुख का अधिकारी बनाती है, हमें देव बनाती है, इससे हम स्वस्थ व ज्ञान - दीसिवाले बनते हैं । यह सब प्रकार से हमारा वर्धन करती है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    आयु के पूर्वभाग में ब्रह्मचर्य का और अनन्तर गृहस्थ का उपदेश, और उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो पुरुष ( पृणाति ) अन्यों को धन, अन्न तथा ज्ञान से परिपूर्ण करता और सबको प्रसन्न और सुखी करता है वह (श्रितः) सबसे सेवा करने योग्य और सबको आश्रय देने हारा होने से आश्रय किया जाता है । वह सूर्य के समान ( नाकस्य पृष्ठे ) जहां जरा भी दुःख और क्लेश नहीं ऐसे लोक या परमानन्द स्वरूप परमेश्वर के आश्रय पर (अधितिष्ठति) विराजता है । ( सः ह ) वह ही निश्चय से ( देवेषु ) विद्वानों और दानशील और व्यवहारकुशल पुरुषों के ऊपर और उनके बीच ( गच्छति ) आदर से जाता है । ( तस्मै ) उसके लिये ( आपः ) प्राण गण, आप्त पुरुष और आप्त प्रजाजन सभी ( सिन्धवः इव ) महानदों या जल धाराओं के समान ( घृतम् ) अन्न, जल, ज्ञान और तेज प्रदान करते हैं । और ( तस्मे ) उसके लिये ( इयं दक्षिणा ) यह भूमि ( दक्षिणा ) समस्त अन्न ऐश्वर्य आदि देने में समर्थ होकर ( सदा पिन्वते ) सदा समृद्ध करती है। अथवा ( इयं दक्षिणा ) यह दक्ष अर्थात् ब्रह्मचर्य बल और ज्ञान को सम्पादन करने वाली साधना या यज्ञ अध्ययनाध्यापन के उपरान्त श्रद्धा पूर्वक दी गयी दक्षिणा उसको ( सदा पिन्वते ) सदा सब सुखैश्वर्य प्रदान करती है। जीवन की अत्यन्त सुखमय दशा को ही ‘नाक-लोक’ या ‘स्वर्ग’ कहा गया है ।

    टिप्पणी

    शबर स्वामी के कथनानुसार सांसारिक सब सुख सामग्री भी स्वर्ग शब्द से कहे जाते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ दम्पती देवते दानस्तुतिः ॥ छन्दः– १,३,७ त्रिष्टुप । २, ६ निचृत् त्रिष्टुप । ४, ५ जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे मनुष्य देह प्राप्त करून सत्पुरुषांचा संग व धर्मानुकूल आचरण करतात ती सदैव सुखी होतात. जे विद्वान किंवा विदुषी, बालक, तरुण, वृद्धांना तसेच बालिका, तरुणी, वृद्ध स्त्रियांना निष्कपटीपणाने विद्या व उत्तम शिक्षण देववितात ते या संसारात संपूर्ण सुख प्राप्त करून शेवटी मोक्ष प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The man dedicated to knowledge abides in inviolable peace and joy. The man who feeds and maintains children and scholars moves with the noblest men of knowledge and divinity. For him the waters, rivers and the seas create showers of ghrta, and this earth with her generosity always creates the joy of fulfilment.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    By which acts should a man attain salvation is taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The man who goes to or approaches enlightened persons or divine virtues, having acquired wisdom sits upon the summit of bliss where there is no misery. He satisfies himself and his progeny with wisdom, good education and well-cooked food etc. To him Pranas or flowing waters bear their essence like the Ghee (clarified butter) To him the Dakshina (a present or gift) received from teaching and rivers gratify.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (नाकस्य) अविद्यमानदुःखस्यानन्दस्य = Of the bliss where there is no misery. (पृणाति) विद्यासुशिक्षासंस्कृतान्नाद्यै स्वयं पुष्यति सन्तानान् पोषयति च । = Satisfies himself with wisdom, good education and well-cooked food etc. and satisfies his progeny etc. (आपः) प्राणा जलानि बा. = Pranas (vital breaths) or waters. (श्रितः) विद्यामाश्रितः = Having acquired knowledge or wisdom.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who take human body, always have the association of good people and act righteously, enjoy happiness. Those learned men and women, who constantly impart good education and wisdom to children, young and old men and virgins, young and old women without any deceit, attain all happiness here and emancipation after death.

    Translator's Notes

    (आपो वै प्राणा: (शतपथ ३.८.२.४) प्राणो ह्याप: (जैमिनीयोपनिषद्ब्राहमणे ३.१०.९) It is remarkable that Sayanacharya takes the word दक्षिणा here as भूमि:सस्यादि फल सम्पादनदक्षा = Or the earth able to give grain and other fruits which is a far-fetched meaning, while Rishi Dayananda Sarasvati interprets it as अध्यापन जन्या दक्षिणा = The present or gift received from teaching. No comments are needed.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top