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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 125 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 125/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः देवता - दम्पती छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आय॑म॒द्य सु॒कृतं॑ प्रा॒तरि॒च्छन्नि॒ष्टेः पु॒त्रं वसु॑मता॒ रथे॑न। अं॒शोः सु॒तं पा॑यय मत्स॒रस्य॑ क्ष॒यद्वी॑रं वर्धय सू॒नृता॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आय॑म् । अ॒द्य । सु॒ऽकृत॑म् । प्रा॒तः । इ॒च्छन् । इ॒ष्टेः । पु॒त्रम् । वसु॑मता । रथे॑न । अं॒शोः । सु॒तम् । पा॒य॒य॒ । म॒त्स॒रस्य॑ । क्ष॒यत्ऽवी॑रम् । व॒र्ध॒य॒ । सू॒नृता॑भिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयमद्य सुकृतं प्रातरिच्छन्निष्टेः पुत्रं वसुमता रथेन। अंशोः सुतं पायय मत्सरस्य क्षयद्वीरं वर्धय सूनृताभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आयम्। अद्य। सुऽकृतम्। प्रातः। इच्छन्। इष्टेः। पुत्रम्। वसुमता। रथेन। अंशोः। सुतम्। पायय। मत्सरस्य। क्षयत्ऽवीरम्। वर्धय। सूनृताभिः ॥ १.१२५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 125; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरत्र स्त्रीपुरुषौ कीदृशौ भवेतामित्याह ।

    अन्वयः

    हे धात्रि अहमद्य वसुमता रथेन प्रातरिष्टेः सुकृतमिच्छन् यं पुत्रमायँस्तं सुतं मत्सरस्यांशो रसं पायय सूनृताभिः क्षयद्वीरं वर्द्धय ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (आयम्) आगच्छेयं प्राप्नुयाम् (अद्य) अस्मिन् दिने (सुकृतम्) धर्म्यं कर्म (प्रातः) प्रभाते (इच्छन्) (इष्टेः) इष्टस्य गृहाश्रमस्य स्थानात् (पुत्रम्) पवित्रं तनयम् (वसुमता) प्रशंसितधनयुक्तेन (रथेन) रमणीयेन यानेन (अंशोः) स्त्रीशरीरस्य भागात् (सुतम्) उत्पन्नम् (पायय) (मत्सरस्य) हर्षनिमित्तस्य (क्षयद्वीरम्) क्षयतां शत्रुहन्तॄणां मध्ये प्रशंसायुक्तम् (वर्द्धय) उन्नय (सूनृताभिः) विद्यासत्यभाषणादिशुभगुणयुक्ताभिर्वाणीभिः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    स्त्रीपुरुषौ पूर्णब्रह्मचर्य्येण विद्यां संगृह्य परस्परस्य प्रसन्नतया विवाहं कृत्वा धर्म्येण व्यवहारेण पुत्रादीनुत्पादयेताम्। तद्रक्षायै धार्मिकीं धात्रीं समर्प्पयेतां सा चेमं सुशिक्षया सम्पन्नं कुर्यात् ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर इस संसार में स्त्री और पुरुष कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे धायि ! मैं (अद्य) आज (वसुमता) प्रशंसित धनयुक्त (रथेन) मनोहर रमण करने योग्य रथ आदि यान से (प्रातः) प्रभात समय (इष्टेः) चाहे हुए गृहाश्रम के स्थान से (सुकृतम्) धर्मयुक्त काम की (इच्छन्) इच्छा करता हुआ जिस (पुत्रम्) पवित्र बालक को (आयम्) पाऊँ उस (सुतम्) उत्पन्न हुए पुत्र को (मत्सरस्य) आनन्द करानेवाला जो (अंशोः) स्त्री का शरीर उसके भाग से जो रस अर्थात् दूध उत्पन्न होता उस दूध को (पायय) पिला। हे वीर ! (सूनृताभिः) विद्या सत्य भाषण आदि शुभगुणयुक्त वाणियों से (क्षयद्वीरम्) शत्रुओं का क्षय करनेवालों में प्रशंसित वीर पुरुष की (वर्द्धय) उन्नति कर ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुष पूरे ब्रह्मचर्य से विद्या का संग्रह और एक-दूसरे की प्रसन्नता से विवाह कर धर्मयुक्त व्यवहार से पुत्र आदि सन्तानों को उत्पन्न करें और उनकी रक्षा कराने के लिये धर्मवती धायि को देवें और वह इस सन्तान को उत्तम शिक्षा से युक्त करे ॥ ३ ॥

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    विषय

    'सुकृत, इष्टि - पुत्र प्रभु की ओर

    पदार्थ

    १. प्रातरित्वा प्रभु से प्रार्थना करता है कि (अद्य) = आज (प्रातः) = इस दिन के प्रारम्भ में (सुकृतम्) = इस सुन्दर संसार की रचना करनेवाले (इष्टेः) = यज्ञों के (पुत्रम्) = [पुरु त्रायते-नि०] खूब रक्षण करनेवाले आपको (इच्छन्) = चाहता हुआ, आपकी प्राप्ति की कामना करता हुआ मैं (वसुमता रथेन) = आपसे दिये हुए उत्तम वसुओं - [ऐश्वयों]-वाले इस शरीररूप रथ से (आयम्) = समन्तात् गतिवाला हुआ है, अपने विविध कार्यों में व्यापृत हुआ हूँ । २. आप मुझे (मत्सरस्य) = [मद् सर] आनन्द का सञ्चार करनेवाले (अंशोः) = मुझे आपका ही अंश-[छोटा रूप] बनानेवाले सोमशक्ति के - वीर्यशक्ति के (सुतम्) = शरीर में उत्पन्न अंश का (पायय) = पान कराइए । आपकी उपासना करता हुआ मैं सोम को शरीर में ही सुरक्षित कर सकूँ । इस सोम के रक्षण से ही तो मैं सोमरूप आपको प्राप्त कर सकूँगा । ३. सोमरक्षण के द्वारा (क्षयद्वीरम्) = वीरता के निवासस्थानभूत मुझे (सूनृताभिः) = उत्तम, दूसरों के दुःखों को दूर करनेवाली ऋतवाणियों से (वर्धय) = बढ़ाइए । सोमरक्षण से वीर बनकर मैं सून्त वाणियों का ही प्रयोग करूँ । यही तो वृद्धि का मार्ग है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - 'मैं शरीर को वसुमान बनाकर कर्तव्यपरायण बनूं' यही तो प्रभु - प्राप्ति का मार्ग है । सोम का रक्षण करता हुआ मैं वीर बनूं और सून्त वाणियों का ही उच्चारण करूँ । सच्चा प्रभुभक्त ऐसा ही करता है ।

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    विषय

    आयु के पूर्वभाग में ब्रह्मचर्य का और अनन्तर गृहस्थ का उपदेश, और उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अद्य ) अब मैं ( प्रातः ) जीवन या गृहस्थ काल के उदय काल में ही ( इष्टेः ) यज्ञ, परस्पर संगति रूप गृहस्थ के ( सुकृतम् ) उत्तम धर्मयुक्त कर्म को ( इच्छन् ) चाहता हुआ ( वसुमता स्थेन ) उत्तम ऐश्वर्य से युक्त रथ से जिस प्रकार राष्ट्र को प्राप्त किया जाता है उसी प्रकार ( वसुमता ) उत्तम ऐश्वर्य युक्त ( रथेन ) रमण योग्य गृहस्थाश्रम से मैं ( पुत्रम् आयम् ) पुत्र को प्राप्त करूं । हे माता ! हे धात्रि ! हे आचार्य वर ! तू ( मत्सरस्य ) अति तृप्तिकर, ( अंशोः ) अपने अंश, शरीर के एक भाग, स्त्री से ( सुतं ) उत्पन्न पुत्र को (पायय) दूध वा ज्ञान का अंश पान करा । और (सूनृताभिः) उत्तम सत्य भाषणादि गुणों से युक्त, प्रिय वाणियों, वेदवाणियों और उत्तम अन्नों से ( क्षयद्वीरं ) वीर जनों सहित राजा के समान, प्राणों सहित विद्यमान स्वस्थ पुत्र को ( वर्धय ) बढ़ा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ दम्पती देवते दानस्तुतिः ॥ छन्दः– १,३,७ त्रिष्टुप । २, ६ निचृत् त्रिष्टुप । ४, ५ जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुषांनी पूर्ण ब्रह्मचर्याने विद्या संग्रहित करावी. परस्पर प्रसन्नतेने विवाह करून धर्मयुक्त व्यवहाराने पुत्र इत्यादी संतानांना उत्पन्न करावे. त्यांचे रक्षण करण्यासाठी धार्मिक दायीला ठेवावे. तिने संतानांना उत्तम शिक्षण देऊन संपन्न करावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Generous Indra, lord giver of every gift of life, nourishment, training and honour, by the most precious chariot I have come today early morning for the reason of an honest desire, wishing to have a son growing to be capable of noble yajnic deeds. I pray, nourish and promote the son born of the most delightful essence of my life, and with holy words of truth, wisdom and Law develop the young man to be a centre and shelter of the brave.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should be husband and wife is told in the the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O foster mother, cause the son of a virtuous woman along with whom I have come with wealth-laden car, desiring the merit of the Yajna (non-violent sacrifice) performed in the morning, take the milk which gives joy and augment with the words and owed with wisdom, truth and other good qualities a brave man who is admired among the destroyers of enemies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अंशो:) स्त्रीशरीस्य भागात् = From the part of the wife's body. (क्षयद्वीरम् ) क्षयतां शत्रुहन्तृण मध्ये प्रशंसायुक्तम् । = Admired among the destroyers of enemies.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of men and women to acquire knowledge with the observance of perfect Brahmacharya, (continence) marry with their free will and satisfaction and beget children with righteous conduct. They should engage a righteous foster-mother who should give them good education, for the proper bringing up of the children.

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