ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 125/ मन्त्र 4
उप॑ क्षरन्ति॒ सिन्ध॑वो मयो॒भुव॑ ईजा॒नं च॑ य॒क्ष्यमा॑णं च धे॒नव॑:। पृ॒णन्तं॑ च॒ पपु॑रिं च श्रव॒स्यवो॑ घृ॒तस्य॒ धारा॒ उप॑ यन्ति वि॒श्वत॑: ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । क्ष॒र॒न्ति॒ । सिन्ध॑वः । म॒यः॒ऽभुवः॑ । ई॒जा॒नम् । च॒ । य॒क्ष्यमा॑णम् । च॒ । धे॒नवः॑ । पृ॒णन्त॑म् । च॒ । पपु॑रिम् । च॒ । श्र॒व॒स्यवः॑ । घृ॒तस्य॑ । धाराः॑ । उप॑ । य॒न्ति॒ । वि॒श्वतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप क्षरन्ति सिन्धवो मयोभुव ईजानं च यक्ष्यमाणं च धेनव:। पृणन्तं च पपुरिं च श्रवस्यवो घृतस्य धारा उप यन्ति विश्वत: ॥
स्वर रहित पद पाठउप। क्षरन्ति। सिन्धवः। मयःऽभुवः। ईजानम्। च। यक्ष्यमाणम्। च। धेनवः। पृणन्तम्। च। पपुरिम्। च। श्रवस्यवः। घृतस्य। धाराः। उप। यन्ति। विश्वतः ॥ १.१२५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 125; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स्त्रीपुरुषौ किं कुर्यातामित्याह ।
अन्वयः
ये सिन्धवइव मयोभुवा जना धेनव इव पत्न्यो धात्र्यो वा ईजानं यक्ष्यमाणं चोपक्षरन्ति। ये श्रवस्यवो विद्वांसो विदुष्यश्च पृणन्तं च पपुरिं च शिक्षन्ते ते विश्वतो घृतस्य धारा इव सुखान्युपयन्ति प्राप्नुवन्ति ॥ ४ ॥
पदार्थः
(उप) (क्षरन्ति) वर्षन्तु (सिन्धवः) नदा इव (मयोभुवः) सुखं भावुकाः (ईजानम्) यज्ञं कुर्वन्तम् (च) (यक्ष्यमाणम्) यज्ञं करिष्यमाणम् (च) (धेनवः) पयः प्रदा गाव इव (पृणन्तम्) पुष्यन्तम् (च) (पपुरिम्) पुष्टम् (च) (श्रवस्यवः) स्वयं श्रोतुमिच्छवः (घृतस्य) जलस्य (धाराः) (उप) (यन्ति) (विश्वतः) सर्वतः ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये पुरुषाः स्त्रियश्च गृहाश्रमे परस्परस्य प्रियाचरणं कृत्वा विद्या अभ्यस्य सन्तानानभ्यासयन्ति ते सततं सुखान्यश्नुवते ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर स्त्री-पुरुष क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (सिन्धवः) बड़े नदों के समान (मयोभुवः) सुख की भावना करानेवाले मनुष्य और (धेनवः) दूध देनेहारी गौओं के समान विवाही हुई स्त्री वा धायी (ईजानम्) यज्ञ करते (च) और (यक्ष्यमाणम्) यज्ञ करनेवाले पुरुष के (उप, क्षरन्ति) समीप आनन्द वर्षावें वा जो (श्रवस्यवः) आप सुनने की इच्छा करते हुए विद्वान् (च) और विदुषी स्त्री (पृणन्तम्) पुष्ट होते (च) और (पपुरिम्) पुष्ट हुए (च) भी पुरुष को शिक्षा देते हैं, वे (विश्वतः) सब ओर से (घृतस्य) जल की (धाराः) धाराओं के समान सुखों को (उप, यन्ति) प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष और स्त्री गृहाश्रम में एक दूसरे के प्रिय आचरण और विद्याओं का अभ्यास करके सन्तानों को अभ्यास कराते हैं, वे निरन्तर सुखों को प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥
विषय
ईजान, यक्ष्यमाण, पृणत् व पपुरि
पदार्थ
१. (सिन्धवः) = स्यन्दनशील, बहने के स्वभाववाले, (मयोभुवः) = सुरक्षित होने पर कल्याण व नीरोगता को जन्म देनेवाले (धेनवः) = शरीर में सब शक्तियों का आप्यायन करके प्रीणित करनेवाले सोमकण - वीर्यशक्ति के कण (ईजानं च) = [यज् देवपूजा] सर्वशक्तिमान् देव का पूजन करनेवाले (यक्ष्यमाणं च) = और यज्ञादि उत्तम कर्म करनेवाले व्यक्ति को (उपक्षरन्ति) = समीपता से प्राप्त होते हैं । वीर्यकणों को शरीर में ही सुरक्षित रखने का साधन यही है कि [क] हम प्रभु का पूजन करें, [ख] यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहें । २. (पृणन्तं च) = सदा दान देनेवाले को (पपुरि च) = और दान के द्वारा दूसरों का पालन व पोषण करनेवाले को (विश्वतः) = सब ओर से वे (घृतस्य धाराः) = घृत की, मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति की धाराएँ-धारण-शक्तियाँ (उपयन्ति) = समीप्ता से प्राप्त होती हैं, जोकि (श्रवस्यवः) = उसके यश की कामना करनेवाली होती हैं, उसके यश को चारों ओर फैलानेवाली होती हैं । दान की वृत्ति से लोभ का नाश होकर सब व्यसनों का अन्त हो जाता है और इस पृणन् - पपुरि का यश चारों ओर फैलता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुपूजन व उत्तम कर्मों में लगे रहने के द्वारा हम सोम का शरीर में संरक्षण करें और दान की वृत्ति को अपनाकर यशस्वी बनें ।
विषय
आयु के पूर्वभाग में ब्रह्मचर्य का और अनन्तर गृहस्थ का उपदेश, और उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( धेनवः ) दुधार गौए जिस प्रकार ( ईजानं ) यज्ञ करने वाले और ( यक्ष्यमाणं च ) यज्ञ करने में उत्सुक जन को प्राप्त होती है उसी प्रकार ( ईजानं ) यज्ञशील, सबको सत्संगति या व्यवस्था में रखने हारे और ( यक्ष्यमाणं च ) सबको उत्तम व्यवस्था में रखने की इच्छा करने वाले पुरुष को (सिन्धवः) वेग से बहने वाले, सबको व्यवस्था में बांधने वाले उत्तम २ प्रबन्धकर्त्ता ( मयोभुवः ) अति शान्ति सुख के जनक जन और ( धेनवः ) सब को सुख और अन्नादि से रस का पान कराने वाले, उत्तम पोषक जन और प्रजा गण भी ( उप क्षरन्ति ) नदियों के समान आप से आप प्राप्त होते और नाना पदार्थ प्राप्त कराते हैं । और ( घृतस्य धाराः ) घी की धाराएं जिस प्रकार अग्नि में आपसे आप पड़ती हैं और जिस प्रकार ( घृतस्य ) जल की धाराएं, नदियें समुद्र को या भूतल को आपसे आप प्राप्त होती हैं और वे ( श्रवस्यवः ) अन्नोत्पादन में समर्थ होती है उसी प्रकार ( श्रवस्यवः ) अन्न, यश, की कामना करने हारे लोग भी ( पृणन्तं च ) सबका पालन पोषण करने वाले और ( पपुरिं च ) स्वयं पुष्ट और सबको प्रसन्न और हृष्ट पुष्ट, पूर्ण करने वाले समर्थ पुरुष ( उप यन्ति ) प्राप्त होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः ॥ दम्पती देवते दानस्तुतिः ॥ छन्दः– १,३,७ त्रिष्टुप । २, ६ निचृत् त्रिष्टुप । ४, ५ जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे स्त्री व पुरुष गृहस्थाश्रमात एकमेकांना प्रिय आचरण करतात व विद्येचा अभ्यास करून संतानांकडून अभ्यास करवून घेतात ते निरंतर सुख प्राप्त करतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Streams of joy, peace and prosperity flow from all round to the man performing the yajna of social charity and divine dedication now and in the future. Cows for love of food and care stand round the man feeding and satisfying the needy. And streams of water, milk and ghrta flow to the charitable man incessantly from all round.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men and women do is taught in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Those men who like the health-bringing rivers are conferrers of happiness and joy and those wives and foster mothers who like the kine, benefit the person who has performed a Yajna or is about to do it; in the same manner, those learned men and women who impart education or give good advice to a well-built man or to him who is trying to be so through proper exercise, attain happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(घृतस्य) उदकस्य = Of the water. (पपुरिम्) पुष्टम् = Well built. घृतम् इत्युदकनाम (निघ० १.१२) पू-पालन पूरणयो:
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men and women who in their domestic life always try to do good and are agreeable to one another, acquire knowledge and teach their children, enjoy happiness constantly like the pure streams of water.
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