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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 128 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 128/ मन्त्र 3
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अग्निः छन्दः - विराडत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    एवे॑न स॒द्यः पर्ये॑ति॒ पार्थि॑वं मुहु॒र्गी रेतो॑ वृष॒भः कनि॑क्रद॒द्दध॒द्रेत॒: कनि॑क्रदत्। श॒तं चक्षा॑णो अ॒क्षभि॑र्दे॒वो वने॑षु तु॒र्वणि॑:। सदो॒ दधा॑न॒ उप॑रेषु॒ सानु॑ष्व॒ग्निः परे॑षु॒ सानु॑षु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एवे॑न । स॒द्यः । परि॑ । ए॒ति॒ । पार्थि॑वम् । मु॒हुः॒ऽगीः । रेतः॑ । वृ॒ष॒भः । कनि॑क्रदत् । दधत् । रेतः॑ । कनि॑क्रदत् । श॒तम् । चक्षा॑णः । अ॒क्षऽभिः॑ । दे॒वः । वने॑षु । तु॒र्वणिः॑ । सदः॑ । दधा॑नः । उप॑रेषु । सानु॑षु । अ॒ग्निः । परे॑षु । सानु॑षु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवेन सद्यः पर्येति पार्थिवं मुहुर्गी रेतो वृषभः कनिक्रदद्दधद्रेत: कनिक्रदत्। शतं चक्षाणो अक्षभिर्देवो वनेषु तुर्वणि:। सदो दधान उपरेषु सानुष्वग्निः परेषु सानुषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एवेन। सद्यः। परि। एति। पार्थिवम्। मुहुःऽगीः। रेतः। वृषभः। कनिक्रदत्। दधत्। रेतः। कनिक्रदत्। शतम्। चक्षाणः। अक्षऽभिः। देवः। वनेषु। तुर्वणिः। सदः। दधानः। उपरेषु। सानुषु। अग्निः। परेषु। सानुषु ॥ १.१२८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 128; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वांस्त्वं यथा मुहुर्गी रेतः कनिक्रददिव रेतः कनिक्रदद्दधद्वृषभो वनेषु तुर्वणिर्देव उपरेषु सानुषु परेषु सानुषु च सदो दधानोऽग्निरेवेन पार्थिवं सद्यः पर्येति तथाऽक्षभिः शतं चक्षाणो भव ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (एवेन) गमनेन (सद्यः) शीघ्रम् (परि) सर्वतः (एति) प्राप्नोति (पार्थिवम्) पृथिव्यां विदितम् (मुहुर्गीः) मुहुर्मुहुर्गिरं प्राप्तः (रेतः) जलम् (वृषभः) वर्षकः (कनिक्रदत्) भृशं शब्दयन् (दधत्) धरन् (रेतः) वीर्यम् (कनिक्रदत्) अत्यन्तं शब्दयन् (शतम्) असंख्यातानुपदेशान् (चक्षाणः) उपदिशन् (अक्षभिः) इन्द्रियैः (देवः) देदीप्यमानः (वनेषु) रश्मिषु (तुर्वणिः) तमः शीतं हिंसन् (सदः) सीदन्ति येषु तान् (दधानः) धरन् (उपरेषु) मेघेषु (सानुषु) विभक्तेषु शिखरेषु (अग्निः) विद्युत्सूर्यरूपः (परेषु) उत्कृष्टेषु (सानुषु) शैलशिखरेषु ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो वायुश्च सर्वं धृत्वा मेघं वर्षयित्वा सर्वं जगदानन्दयति तथा विद्वांसो वेदविद्यां धृत्वाऽन्येषामात्मसूपदेशान् वर्षयित्वा सर्वान् मनुष्यान् सुखयन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! आप जैसे (मुहुर्गीः) बार-बार वाणी को प्राप्त (रेतः) जल को (कनिक्रदत्) निरन्तर गर्जाता सा (रेतः) पराक्रम को (कनिक्रदत्) अतीव शब्दायमान करता और (दधत्) धारण करता हुआ (वृषभः) वर्षा करने और (वनेषु) किरणों में (तुर्वणिः) अन्धकार और शीत का विनाश करता हुआ (देवः) निरन्तर प्रकाशमान (उपरेषु) मेघों और (सानुषु) अलग अलग पर्वत के शिखरों वा (परेषु) उत्तम (सानुषु) पर्वतों के शिखरों में (सदः) जिनमें जन बैठते हैं, उन स्थानों को (दधानः) धारण करता हुआ (अग्निः) बिजुली तथा सूर्यरूप अग्नि (एवेन) अपनी लपट-झपट चाल से (पार्थिवम्) पृथिवी में जाने हुए पदार्थ को (सद्यः) शीघ्र (पर्येति) सब ओर से प्राप्त होता वैसे (अक्षभिः) इन्द्रियों से (शतम्) सैकड़ों उपदेशों को (चक्षाणः) करनेवाले होते हुए प्रसिद्ध हूजिये ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य और वायु सबको धारण और मेघ को वर्षाकर सब जगत् का आनन्द करते, वैसे विद्वान् जन वेद विद्या को धारण कर औरों के आत्माओं में अपने उपदेशों को वर्षा कर सब मनुष्यों को सुख देते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    प्रभु का निवास किन में ?

    पदार्थ

    १. वह प्रभु (एवेन) = क्रियाशीलता के द्वारा (सद्यः) = शीन (पार्थिवम्) = पार्थिव शरीरधारी मनुष्य को (पर्येति) सर्वथा प्राप्त होता है । अकर्मण्य को कभी प्रभुदर्शन नहीं होता । इस क्रियाशीलता के लिए प्रभु (मुहुर्गीः) = बारम्बार प्रेरणात्मक वाणीवाले होते हैं, हृदयस्थ प्रभु इसे निरन्तर प्रेरणा देते हैं । रेतः वे प्रभु शक्ति के पुञ्ज हैं और (वृषभः) = सब सुखों की वर्षा करनेवाले हैं । (कनिक्रदत्) = 'ज्ञान, कर्म व उपासना' इन तीन वाणियों का उच्चारण करते हुए प्रभु [तिस्रो वाच उदीरते हरिरेति कनिक्रदत्] (रेतः दधत्) = शक्ति को धारण करते हैं । हममें शक्ति के धारण के हेतु से वे प्रभु हमें तीन प्रेरणाएँ देते हैं - [क] मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त करने का प्रयत्न करो, [ख] हृदय को उपासना में लीन करो तथा [ग] हाथों से यज्ञादि उत्तम कर्मों को सिद्ध करो । (कनिक्रदत) = वे प्रभु बारम्बार यही गर्जना कर रहे हैं । २. (देवः) = वे प्रकाशमय प्रभु (शतम्) = सौ वर्षपर्यन्त (अक्षभिः) = इन्द्रियों से (चक्षाणः) = हमारे लिए जीवन-मार्ग को दिखानेवाले हैं और (वनेषु) = उपासकों में (तुर्वणिः) = काम-क्रोधादि शत्रुओं का हिंसन करनेवाले हैं । प्रभु मार्ग दिखाते हैं, मार्ग पर चलनेवालों को शक्ति देते हैं और उनके क्रोधादि शत्रुओं का हिंसन करते हैं । ३. जिनके कामादि शत्रु नष्ट हो जाते हैं, वे सदा यज्ञशील बनते हैं और जीवन में उत्कर्ष के शिखर पर पहुंचते हैं । इन (उपरेषु) = [उपरमन्ते एषु अग्नयः] यज्ञशील पुरुषों के गृहों में (सानुषु) = जो उत्कृष्ट जीवनवाले बने हैं उनमें (सदः दधानः) = प्रभु स्थान ग्रहण करते हैं । इन्हीं के घरों में प्रभु का निवास होता है । वस्तुतः वे (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (परेषु) = उत्कृष्ट (सानुषु) = शिखर पर पहुँचनेवाले मनुष्यों में रहते हैं । ये अग्नि के उपासक ही तो उत्कृष्ट व शिखर पर पहुँचनेवाले बन पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु क्रियाशील को प्राप्त होते हैं, उसी के लिए मार्गदर्शक होते हैं । इस मार्ग पर चलता हुआ व्यक्ति शिखर पर पहुँचता है ।

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    विषय

    अग्नि, विद्युत्, सूर्य, सांड आदि के दृष्टान्तों की योजना, बलवान् सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार अग्नि, विद्युत् ( एवेन ) अपनी व्यापक होने वाली क्रिया से ( पार्थिवं ) पृथ्वी के ऊपर विद्यमान समस्त पदार्थों को ( सद्यः ) अति शीघ्र ( परि एति ) व्याप लेता है उसी प्रकार राजा भी अपने ( एवेन ) गमन साधन स्थादि से ( पार्थिवं ) समस्त पार्थिवलोक को ( परि एति ) प्राप्त करे । और ( मुहुर्गीः ) वार वार गर्जन करने वाला ( वृषभः ) बैल या सांड जिस प्रकार ( कनिक्रदत् ) गर्जता और ( रेतः दधत् ) वीर्य को गौओं में स्थापन करता और जिस प्रकार ( मुहुर्गीः वृषभः ) वार वार गर्जने वाला और ( कनिव्रदत् ) गर्जता हुआ, मेघ ( रेतः ) जल को भूमियों पर बरसाता है उसी प्रकार राजा भी (वृषभः) प्रजा पर ऐश्वर्य सुखों का वर्षण करने वाला एवं ( वृषभः ) सर्वश्रेष्ठ,आर्य एवं वृष अर्थात् धर्म मार्ग से चमकने वाला बलवान् होकर ( कनिक्रदत् ) शत्रुओं को वार वार ललकारता हुआ, ( मुहुर्गीः ) वार वार सेना और अधीन रथों को आज्ञाएं प्रदान करता हुआ ( रेतः दधत् ) राष्ट्र में ऐश्वर्य और बल वीर्य को धारण करावे । और जिस प्रकार ( देवः ) जलप्रद मेघ या तेजस्वी सूर्य ( तुर्वणः ) बड़े वेग से जाने वाला होकर ( वनेषु ) वनों में जलों में, (अक्षभिः शतं चक्षाणः) अपने किरण प्रकाशों से सैकड़ों पदार्थों को दिखाता हुआ, ( उपरेषु ) मेघों में, ( सानुषु ) ऊंचे प्रदेशों में और ( परेषु सानुषु ) अन्य, दूर के गिरि शिखिरों पर भी (सदः दधातु) अपना आश्रय रखता है उसी प्रकार राजा या अग्रणी नायक ( देवः ) विजिगीषु होकर, ( वनेषु ) सेवने योग्य ऐश्वर्यों में ( तुर्वणिः ) शीघ्र ही स्वयं उनको ग्रहण करने वाला होकर या दूर के देशों का भी भोक्ता होकर ( अक्षभिः ) अपने अध्यक्षों द्वारा ( शतं चक्षाणः ) सैकड़ों कार्यों का विचार करे । और वह ( उपरेषु सानुषु ) समीपवर्त्ती, सुखप्रद ( वनेषु ) कार्यकुशल अपने और पर सेना के भृत वीर सैनिकों में ( तुर्वणिः ) आंत वेग से शत्रु को विनाश करने वाला होकर ( अक्षभिः चक्षणः ) नाना अध्यक्षों से देखता हुआ ( उपरेपु सानुषु ) अति आन्तरिक सुख और ऐश्वर्यों या उच्चावच कालों में ( परेषु सानुषु अग्निः इव ) दूरस्थ पर्वतों में अग्नि के समान ( सदः ) अपना आश्रय गढ़, दुर्ग आदि ( दधातु ) स्थापित करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १—८ परुच्छेप ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- निचृदत्यष्टिः । ३, ४, ६, ८ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगष्टिः । ५, ७ निचृदष्टिः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्य व वायू सर्वांना धारण करून मेघाचा वर्षाव करून संपूर्ण जगात आनंद पसरवितात तसे विद्वान लोक वेद विद्या धारण करून इतरांच्या आत्म्यात आपल्या उपदेशांचा वर्षाव करून सर्व माणसांना सुख देतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light, constantly goes by his path, pervading all that is in the world, celebrated in the voices of the divines, life of life, generous shower of vitality, roaring, wielding life and still roaring. The lord of brilliance, breaking and building in waves of energy, watching and illuminating the worlds with a hundred lights, holding, wielding and supporting the homes of life in the clouds, over the peaks, in the farthest regions of space on top, he goes on and on in the orbit along the circumference.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As Agni in the form of lightning is loud-sounding, vigorous and much loud-sounding and it pierces by its force the cloud to rain down and Agni in the form of the bright sun also through its rays dispels darkness and cloud, present in the clouds and the tops of the hill pervades the earthly objects, in the same manner, thou shouldst diffuse knowledge among the people with the help of thy senses and by all thy movements.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रेत:) जलम् = Water. (रेतः) २ वीर्यम्= Semen (वनेषु ) रश्मिषु = In the rays. (तुर्वणिः) तमः शीतं हिंसन् = Dispelling darkness and cold.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun and the air uphold all and gladden the world by making the cloud rain down water, in the same manner, learned persons should make all people happy by raining sermons in their souls i. e. by enlightening them well.

    Translator's Notes

    वनमिति रश्मिनाम (निघ० १.५ ) इत्युदक नाम (निघ० १.१२ ) वन-हिंसायाम्

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