ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 128/ मन्त्र 4
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
स सु॒क्रतु॑: पु॒रोहि॑तो॒ दमे॑दमे॒ऽग्निर्य॒ज्ञस्या॑ध्व॒रस्य॑ चेतति॒ क्रत्वा॑ य॒ज्ञस्य॑ चेतति। क्रत्वा॑ वे॒धा इ॑षूय॒ते विश्वा॑ जा॒तानि॑ पस्पशे। यतो॑ घृत॒श्रीरति॑थि॒रजा॑यत॒ वह्नि॑र्वे॒धा अजा॑यत ॥
स्वर सहित पद पाठसः । सु॒ऽक्रतुः॑ । पु॒रःऽहि॑तः॑ । दमे॑ऽदमे । अ॒ग्निः । य॒ज्ञस्य । अ॒ध्व॒रस्य॑ । चे॒त॒ति॒ । क्रत्वा॑ । य॒ज्ञस्य॑ । चे॒त॒ति॒ । क्रत्वा॑ । वे॒धाः । इ॒षु॒ऽय॒ते । विश्वा॑ । जा॒तानि॑ । प॒स्प॒शे॒ । यतः॑ । घृ॒त॒ऽश्रीः । अति॑थिः । अजा॑यत । वह्निः॑ । वे॒धाः । अजा॑यत ॥
स्वर रहित मन्त्र
स सुक्रतु: पुरोहितो दमेदमेऽग्निर्यज्ञस्याध्वरस्य चेतति क्रत्वा यज्ञस्य चेतति। क्रत्वा वेधा इषूयते विश्वा जातानि पस्पशे। यतो घृतश्रीरतिथिरजायत वह्निर्वेधा अजायत ॥
स्वर रहित पद पाठसः। सुऽक्रतुः। पुरःऽहितः। दमेऽदमे। अग्निः। यज्ञस्य। अध्वरस्य। चेतति। क्रत्वा। यज्ञस्य। चेतति। क्रत्वा। वेधाः। इषुऽयते। विश्वा। जातानि। पस्पशे। यतः। घृतऽश्रीः। अतिथिः। अजायत। वह्निः। वेधाः। अजायत ॥ १.१२८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 128; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः के विद्वांसोऽर्चनीया भवन्तीत्याह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यः सुक्रतुः पुरोहितोऽग्निरिव दमेदमे क्रत्वा यज्ञस्य चेततीवाऽध्वरस्य चेतति क्रत्वा वेधा इषूयते विश्वा जातानि पस्पशे यतो घृतश्रीरतिथिरजायत वह्निरिव वेधा अजायत स एव सर्वैर्विद्योपदेशाय समाश्रयितव्यः ॥ ४ ॥
पदार्थः
(सः) विद्वान् (सुक्रतुः) सुष्ठुकर्मप्रज्ञः (पुरोहितः) संपादितहितपुरस्सरः (दमेदमे) गृहे गृहे (अग्निः) पावकइव वर्त्तमानः (यज्ञस्य) विद्वत्सत्काराऽभिधस्य (अध्वरस्य) हिंसितुमनर्हस्य (चेतति) ज्ञापयति (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (यज्ञस्य) सङ्गन्तुमर्हस्य (चेतति) ज्ञापयति (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (वेधाः) मेधावी (इषूयते) इषुरिवाचरति (विश्वा) सर्वाणि (जातानि) उत्पन्नानि (पस्पशे) प्रबध्नाति (यतः) (घृतश्रीः) घृतमाज्यं सेवमानः (अतिथिः) पूजनीयोऽविद्यमानतिथिः (अजायत) जायेत (वह्निः) वोढेव (वेधाः) मेधावी (अजायत) जायेत ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसो देशे देशे, नगरे नगरे, द्वीपे द्वीपे, ग्रामे ग्रामे, गृहे गृहे च सत्यमुपदिशन्ति ते सर्वैः सत्कर्त्तव्या भवन्ति ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन विद्वान् सत्कार के योग्य होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (सुक्रतुः) उत्तम बुद्धि और कर्मवाला (पुरोहितः) प्रथम जिसने हित सिद्ध किया और (अग्निः) आग के समान प्रतापी वर्त्तमान (दमे दमे) घर-घर में (क्रत्वा) उत्तम बुद्धि वा कर्म से (यज्ञस्य) विद्वानों के सत्काररूप कर्म की (चेतति) अच्छी चितौनी देते हुए के समान (अध्वस्य) न छोड़ने (यज्ञस्य) किन्तु सङ्ग करने योग्य उत्तम यज्ञ आदि काम का (चेतति) विज्ञान कराता वा जो (क्रत्वा) श्रेष्ठ बुद्धि वा कर्म से (वेधाः) धीर बुद्धिवाला (इषूयते) वाण के समान विषयों में प्रवेश करता और (विश्वा) समस्त (जातानि) उत्पन्न हुए पदार्थों का (पस्पशे) प्रबन्ध करता वा (यतः) जिससे (घृतश्रीः) घी का सेवन करता हुआ (अतिथिः) जिसकी कोई कहीं ठहरने की तिथि निश्चित नहीं वह सत्कार के योग्य विद्वान् (अजायत) प्रसिद्ध होवे और (वह्निः) वस्तु के गुणादिकों की प्राप्ति करानेवाले अग्नि के समान (वेधाः) धीर बुद्धि पुरुष (अजायत) प्रसिद्ध होवे (सः) वही विद्वान् विद्या के उपदेश के लिये सबको अच्छे प्रकार आश्रय करने योग्य है ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् देश-देश, नगर-नगर, द्वीप-द्वीप, गाँव-गाँव, घर-घर में सत्य का उपदेश करते, वे सबको सत्कार करने योग्य होते हैं ॥ ४ ॥
विषय
'घृतश्री, अतिथि, वह्नि ब वेधा' प्रभु का दर्शन
पदार्थ
१. (सः) = वह प्रभु (सुक्रतुः) = शोभन कर्मोंवाले हैं । (पुरोहितः) = जीव के लिए उसके सामने [पुरः] आदर्श के रूप से स्थित [हित] हैं । जीव को अपने जीवन को प्रभु के गुणों के अनुकरण से ही तो दिव्यरूप देना है, प्रभु - जैसा ही दयालु व न्यायकारी उसे बनना है । (दमे दमे) = प्रत्येक गृह में वे प्रभु (अग्निः) = अग्रणी हैं । वे ही सबको आगे ले-चलनेवाले हैं । (अध्वरस्य यज्ञस्य) = हिंसारहित श्रेष्ठतम कर्मों का (चेतति) = बोध देनेवाले हैं[चेतयति] । (क्रत्वा) = कर्मशीलता के साथ (यज्ञस्य चेतति) = यज्ञ का ज्ञान देते हैं । यज्ञ के ज्ञान द्वारा यज्ञ की प्रेरणा देते हैं तो साथ ही उन यज्ञों को कर सकने के लिए शक्ति भी प्राप्त कराते हैं । २. (वेधाः) = विविध फलों के देनेवाले प्रभु (इषूयते) = प्रभु के आगमन को [इषु - आगमनं, तदिच्छते] चाहनेवाले के लिए (क्रत्वा) = कर्मशक्ति के साथ विश्वा (जातानि) = सब उत्पन्न पदार्थों को (पस्पशे) = स्पर्श करता है इन पदार्थों का निर्माण करता है । प्रभु ने सृष्टि का निर्माण व जीव को कर्मशक्ति इसीलिए तो दी है कि वह प्रभु की ओर चलता हुआ उसे प्राप्त करनेवाला बने । सब पदार्थ मनुष्य के लिए हैं और मनुष्य प्रभु - प्राप्ति के लिए है । ३. यह संसार वस्तुतः वह है (यतः) = जिससे (घृतश्रीः) = दीप्तज्ञान की शोभावाले (अतिथिः) = निरन्तर क्रियाशील वे प्रभु (अजायत) = हमारे हृदयों में आविर्भूत होते हैं । (वह्निः) = सम्पूर्ण संसार का वहन करनेवाले (वेधाः) = विविध फलों के देनेवाले वे प्रभु (अजायत) = प्रकट होते हैं । संसार की रचना आदि को देखकर प्रभु के विषय में यही विचार उठता है कि वे 'घृतश्री, अतिथि, वह्नि व वेधा हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हदयस्थ प्रभु हमें यज्ञ की प्रेरणा देते हैं । उपासक को यह सारा संसार प्रभु का दर्शन कराता है । प्रभु - दर्शन ही संसार - निर्माण का अन्तिम उद्देश्य है ।
विषय
विद्वान् पुरोहित, गुरु और यज्ञाग्नि सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( यज्ञस्य पुरोहितः ) साक्षी रूप से प्रधान पद पर स्थापित हुआ विद्वान् पुरुष, यज्ञ का पुरोहित ( सुक्रतुः ) उत्तम कर्म और प्रज्ञावान् होकर ( अध्वरस्य ) निर्विघ्न समाप्त होने वाले यज्ञ को ( चेतति ) जानता और अन्यों को उपदेश करता है और (क्रत्वा) ऋतु अर्थात यज्ञ कर्म द्वारा ( यज्ञस्य चेतति ) यज्ञका ज्ञापन कराता है । उसी प्रकार ( सः ) वह ( सुक्रतुः ) उत्तम धर्माचरण कृत्यों का करने वाला, (दमे दमे) प्रत्येक घर में (अग्निः) आग के समान तेजस्वी, सबका नायक गृहपति और राजा ( दमे दमे ) प्रत्येक दमन या शासन कार्य में ( अध्वरस्य ) अविनाशी ( यज्ञस्य चेतति ) संघ या गृहस्थ यज्ञ का ज्ञान रक्खे और ( क्रत्वा ) अपने उत्तम ज्ञान से ( यज्ञस्य चेतति ) उपास्य परमेश्वर या मुख्य प्रजापति पूज्य का भी ज्ञान करे । ( वेधाः ) कार्यों का करने वाला बुद्धिमान् पुरुष ( क्रत्वा ) अपने ज्ञान सामर्थ्य से ही ( इषूयते ) बाण के समान आचरण करे अर्थात् अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़े । वह ( विश्वा ) समस्त (जातानि) उत्पन्न पदार्थों को ( पस्पशे) अपने अधीन रखे, देखे और सुव्यवस्थित करे और भोगे । ( यतः ) क्योंकि ( वन्हिः घृतश्रीः ) जिस प्रकार अग्नि यज्ञ में पूज्य होकर घृत द्वारा विशेष कान्ति को धारण करता है उसी प्रकार ( वेधाः ) बुद्धिमान् पुरुष भी ( अतिथिः ) स्वयं अतिथि के समान प्रतिष्ठित ( अजायत ) होता और ( घृतश्रीः ) तेज और पराक्रम से सबको आश्रय देने योग्य या लक्ष्मी का भाजन हो जाता है और वह उसी प्रकार ( वन्हिः ) मुख्य होकर राष्ट्र आदि कार्यों का निर्वाहक ( अजायत ) बन जाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१—८ परुच्छेप ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- निचृदत्यष्टिः । ३, ४, ६, ८ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगष्टिः । ५, ७ निचृदष्टिः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वान देशोदेशी, नगरानगरात, द्वीपद्वीपान्तरी, गावोगावी, घरोघरी सत्याचा उपदेश करतात ते सर्वांनी सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That Agni, lord of light, knowledge and fire, first agent of cosmic yajna, foremost and leader, inspires and lights the yajna, fragrant acts of creative love and non-violence, advances yajna by yajnic acts, issues forth like penetrative intelligence by the waves of yajnic energy and inspires all things in existence, and from the vedi arises with the glory, light of libations like a guest of honour at its own will, carrier, catalyser, penetrative, intelligent, illuminative for all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What kind of learned persons are worthy of respect is told in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! that person alone should be approached for teaching of various sciences, who is endowed with good knowledge and the power of action, who shines like the fire in every home and imparts knowledge of the honor to be shown to learned persons & inviolable and non-violent Yajna (sacrifice) by his wisdom. A man becomes highly intelligent or genius by his good knowledge and the power of doing noble deeds. He removes all ignorance like the arrow and arranges all objects in proper order. Under his instructions, a guests is supplied with Ghee (Clarified) butter and other articles. That highly intelligent or wise person becomes like the fire, dispeller of all darkness of ignorance and illuminator of knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्नि:) पावक इव वर्तमान = Like the fire. (अध्वरस्य) हिंसितुमनर्हस्य = Inviolable and non-violent. (मेधाः) मेधावी = Genius. (पस्पशे) प्रबध्नाति = Arranges.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those learned persons who preach truth in every home, village, city, country and island deserve honor and worship.
Translator's Notes
वेधा इति मेधाविनाम (निघ० ३.१५) स्पस-बाधनस्पर्शनयोः भ्वा० This Mantra even with the faulty translation of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others makes it clear without the least shadow of a doubt that the word Agni is used in the Vedas, not only for fire but for a learned leader besides God the Supreme Leader. अग्निः पुरोहितवद् यागनिर्वाहक: सन् दमे दमे तत् तद् यजमान गृहे सर्वेषु देवयजनेषु वा अध्वरस्य नाशरहितस्य फलप्रदस्य यज्ञस्य तदर्थे चेतति जानाति प्रबुध्यत इत्यर्थ: (सायणाचार्य:) || “That Agni, who the performer of Holy acts, the priest of the family, every dwelling of the imperishable sacrifice; he thinks of the sacrifice i. e. (Wilson). “That Agni, wise High Priest, in every house takes thought for sacrifice and holy service, yea, takes thought with mental power, for sacrifice." ( Griffith in the Hymns of the Rigveda.) The epithets used for Agni पुरोहित: सुऋतु: वेधा: etc. justify Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation of Agni as पावक , वर्तमानो विद्वान् = a learned person acting or shining like the fire. The passages from the Brahmanas and other Vedic Literature like “अग्निवें दीक्षित: "(काठक सं० २३. ६, २४.६) अग्निवें ब्राह्मणः (काठकसंहिता ६.६ ) काण्व संकलने ८६ अग्निर्वे ब्रह्मा (षड्विंशब्राह्मणे १. १ ) un-equivocally corroborate Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation of Agni as a Brahmana leader.
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