ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 128/ मन्त्र 6
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
विश्वो॒ विहा॑या अर॒तिर्वसु॑र्दधे॒ हस्ते॒ दक्षि॑णे त॒रणि॒र्न शि॑श्रथच्छ्रव॒स्यया॒ न शि॑श्रथत्। विश्व॑स्मा॒ इदि॑षुध्य॒ते दे॑व॒त्रा ह॒व्यमोहि॑षे। विश्व॑स्मा॒ इत्सु॒कृते॒ वार॑मृण्वत्य॒ग्निर्द्वारा॒ व्यृ॑ण्वति ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वः॑ । विऽहा॑याः । अ॒र॒तिः । वसुः॑ । द॒धे॒ । हस्ते॑ । दक्षि॑णे । त॒रणिः॑ । न । शि॒श्र॒थ॒त् । श्र॒व॒स्यया॑ । न । शि॒श्र॒थ॒त् । विश्व॑स्मै॒ । इत् । इ॒षु॒ध्य॒ते । दे॒व॒ऽत्रा । ह॒व्यम् । आ । ऊ॒हि॒षे॒ । विश्व॑स्मै । इत् । सु॒ऽकृते॑ । वार॑म् । ऋ॒ण्व॒ति॒ । अ॒ग्निः । द्वारा॑ । वि । ऋ॒ण्व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वो विहाया अरतिर्वसुर्दधे हस्ते दक्षिणे तरणिर्न शिश्रथच्छ्रवस्यया न शिश्रथत्। विश्वस्मा इदिषुध्यते देवत्रा हव्यमोहिषे। विश्वस्मा इत्सुकृते वारमृण्वत्यग्निर्द्वारा व्यृण्वति ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वः। विऽहायाः। अरतिः। वसुः। दधे। हस्ते। दक्षिणे। तरणिः। न। शिश्रथत्। श्रवस्यया। न। शिश्रथत्। विश्वस्मै। इत्। इषुध्यते। देवऽत्रा। हव्यम्। आ। ऊहिषे। विश्वस्मै। इत्। सुऽकृते। वारम्। ऋण्वति। अग्निः। द्वारा। वि। ऋण्वति ॥ १.१२८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 128; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह।
अन्वयः
विश्वो विहाया अरतिस्तरणिर्वसुः श्रवस्ययाऽग्निर्न शिश्रथदिव न शिश्रथद्दक्षिणे हस्ते आमलकइव देवत्राहं विद्या दधे विश्वस्मा इषुध्यते त्वं हव्यमोहिषे तथेद्यो विश्वस्मै सुकृते द्वारा ऋण्वति स सुखमिद्वारं व्यृण्वति ॥ ६ ॥
पदार्थः
(विश्वः) सर्वः (विहायाः) शुभगुणव्याप्तः (अरतिः) प्रापकः (वसुः) प्रथमकल्पब्रह्मचर्यः (दधे) धरामि (हस्ते) (दक्षिणे) (तरणिः) तारकः (न) निषेधे (शिश्रथत्) श्रथयेत् (श्रवस्यया) आत्मनः श्रव इच्छया (न) निषेधे (शिश्रथत्) श्रथयेत्। अत्रोभयत्राऽडभावः। (विश्वस्मै) सर्वस्मै (इत्) एव (इषुध्यते) इषुध इवाचरति तस्मै (देवत्रा) देवेष्विति (हव्यम्) दातुमर्हम् (आ) (ऊहिषे) वितर्कयसि (विश्वस्मै) (इत्) इव (सुकृते) सुष्ठुकर्त्ते (वारम्) पुनः पुनर्वर्त्तुम् (ऋण्वति) प्राप्नोति (अग्निः) विद्युदिव (द्वारा) द्वाराणि (वि) विशेषाऽर्थे (ऋण्वति) प्राप्नोति ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः सर्वान् व्यक्तान् पदार्थान् प्रकाश्य सर्वेभ्यः सर्वाणि सुखानि जनयति तथाऽहिंसका विद्वांसो विद्याः प्रकाश्य सर्वानानन्दयन्ति ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(विश्वः) समग्र (विहायाः) विद्या आदि शुभगुणों में व्याप्त (अरतिः) उत्तम व्यवहारों की प्राप्ति कराता और (तरणिः) तारनेहारा (वसुः) प्रथम श्रेणी का ब्रह्मचारी विद्वान् (श्रवस्यया) अपनी उत्तम उपदेश सुनने की इच्छा से जैसे (अग्निः) बिजुली न (शिश्रथत्) शिथिल हो वैसे (न) नहीं (शिश्रथत्) शिथिल हो वा (दक्षिणे) दाहिने (हस्ते) हाथ में जैसे आमलक धरें वैसे (देवत्रा) विद्वानों में मैं विद्या को (दधे) धारण करूँ वा (विश्वस्मै) सब (इषुध्यते) धनुष् के समान आचरण करते हुए जनसमूह के लिये तूँ (हव्यम्) देने योग्य पदार्थ का (आ, ऊहिषे) तर्क-वितर्क करता (इत्) वैसे ही जो (विश्वस्मै) सब (सुकृते) सुकर्म करनेवाले जनसमूह के लिये (द्वारा) उत्तम व्यवहारों के द्वारों को (ऋण्वति) प्राप्त होता वह सुख (इत्) ही के (वारम्) स्वीकार करने को (वि, ऋण्वति) विशेषता से प्राप्त होता है ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य सब व्यक्त पदार्थों को प्रकाशित कर सबके लिये सब सुखों को उत्पन्न करता, वैसे हिंसा आदि दोषों से रहित विद्वान् जन विद्या का प्रकाश कर सबको आनन्दित करते हैं ॥ ६ ॥
विषय
'वारप्रायण' द्वारोद्घाटन
पदार्थ
१. वे प्रभु (विश्वः) = सर्वत्र प्रविष्ट सर्वव्यापक हैं, (विहायाः) = महान् हैं, (अरतिः) = [ऋ गतौ] निरन्तर क्रियाशील हैं और (वसुः) = सबको बसानेवाले हैं । २. वे हमें (दक्षिणे हस्ते दधे) = दाहिने अथवा कुशल हाथ में धारण करते हैं । 'दक्षिण मार्ग' वाम से विपरीत अकुटिल मार्ग है । अकुटिल मार्ग पर चलनेवालों को प्रभुधारण करते हैं अथवा कुशलता से कार्य करनेवालों को प्रभु धारण करते हैं । ३. (तरणिः न) = सूर्य की भाँति (शिश्नथत्) = [to liberate, release] प्रभु हमें सब अशुभों से मुक्त करते हैं । सूर्य अपनी किरणों द्वारा रोगकृमियों का संहार करके हमें रोगमुक्त करता है, उसी प्रकार प्रभु हमें अपनी ज्ञानकिरणों द्वारा अशुभों से मुक्त करते हैं । वे प्रभु (श्रवस्यया) = ज्ञानप्राप्ति की कामना से (नः शिश्नथत्) = हमें अलग नहीं करते । ४. (इत्) = निश्चय से (इषुष्यते) = [हविरात्मन इच्छते] हवि की कामनावाले के लिए (देवत्रा) = देवों में विद्यमान (विश्वस्मै हव्यम्) = सब हव्यों को (ओहिषे) = आप प्राप्त कराते हो । देव हविर्भुक् हैं, प्रभु इन शुभवृत्तिवालों को भी हव्य प्राप्त कराते हैं । (इत्) = निश्चय से (सुकृते) = शुभ कर्म करनेवाले के लिए (विश्वस्मै) = सब (वारम्) = वरणीय वस्तुओं को (ऋण्वति) = प्राप्त कराते हैं और (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु द्वारा स्वर्ग के सब द्वारों को (वि ऋण्वति) = खोल देते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें अशुभों से मुक्त करते हैं, शुभों से युक्त करते हैं, हवि की वृत्तिवाला बनाते हैं, वरणीय वस्तुओं को प्राप्त कराते हैं और स्वर्गद्वारों को खोलते हैं ।
विषय
विद्वान् पुरोहित, गुरु और यज्ञाग्नि सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
( १ ) विद्वान् आचार्य के पक्ष में—( विश्वः ) समस्त विद्याओं में प्रविष्ट एवं ब्रह्मचारियों को अपने भीतर ग्रहण करने द्वारा गुरु ( विहायाः ) गुणों से महान् ( अरतिः ) अति अधिक मतिमान्, ज्ञानवान्, ( वसुः ) स्वयं अपने अधीन समस्त शिष्यों को बसानेहरा होकर (दक्षिणे हस्ते) दायें हाथ में रखे आमलक के समान प्रत्यक्ष रूप से समस्त ज्ञानेश्वर्य को ( दधे ) धारण करे । वह उस विद्यारूप धन को ( तरणिः न ) सूर्य के समान ( शिश्रथत् ) प्रदान करे । वह केवल उसे ( श्रवस्यया ) यश या धन की अभिलाषा से (न शिश्रयत्) प्रदान न करे। ( इषुध्यते ) बाणों को अपने भीतर धारण कर लेने वाले तर्कस के समान समस्त कामनाओं को अपने भीतर अन्तर्मुख वश कर लेने वाले (विश्वस्मै देवना) समस्तदेवों, विद्वानों के बीच ( हव्यम् ) उत्तम प्रदान करने योग्य ज्ञानोपदेश और आचार को (आ ऊहिषे) सब ओर से धन के समान ही संग्रहीत करके प्रदान करे। ( अग्निः ) अग्नि या सूर्य या दीपक या मशाल के समान मार्ग दिखाने वाला विद्वान् पुरुष ( विश्वस्मै सुकृते इत् ) सभी उत्तम सदाचारी, सत्कर्म करने वाले पुण्याचरणशील जिज्ञासु को (बारम्) उत्तम, वरण करने योग्य ज्ञानैश्वर्य (ऋण्वति) प्रदान करे । और ज्ञान के समस्त ( द्वारा ) द्वारों को ( वि ऋण्वति ) विशेष रूप से उपदेश करे । (२) इसी प्रकार राजा सर्वहितकारी होने से ‘विश्व’ है । वह समस्त ऐश्वर्य को अपने हाथ में रखे । वह सब ( देवत्रा ) इच्छुक याचकों को दान करे । प्रजा के लिये ऐश्वर्य प्राप्त करने के सब द्वार खोलदे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१—८ परुच्छेप ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- निचृदत्यष्टिः । ३, ४, ६, ८ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगष्टिः । ५, ७ निचृदष्टिः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे सूर्य सर्व व्यक्त पदार्थांना प्रकाशित करून सर्वांना सुख देतो तसे हिंसा इत्यादी दोषांनी रहित विद्वान विद्येचा प्रकाश करून सर्वांना आनंदित करतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, universal lord of wealth, honour and grandeur, like a saviour and redeemer, holds the wealth of the world in his right hand for the man of endeavour for his honour and fame, and the gift never slackens, yes, it never slackens. Lord of brilliance and generosity, you bear and bring all the sacrificial riches for the man of martial action and prayer. For the man of yajnic action, you give all the choice gifts of the world, give them through open doors.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should learned persons do is told again in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A great Acharya (Preceptor) who is well-versed in all branches of knowledge and has many pupils under him, the source of happiness, holds wealth of wisdom in his right hand like Amalaka. He should give that knowledge like the sun to a pupil who desires to acquire wisdom, name and fame among enlightened persons. He who opens his gates of knowledge for the benefit of a doer of noble deeds, enjoys desirable happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(विहाया:) शुभगुणव्याप्त: = Virtuous and great. (तरणिः ) तारक: = Taking across the ocean of misery or the sun dispelling all darkness. (अरतिः) प्रापक: = The source of happiness of knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun gives delight to all by illumining all objects, in the same manner, learned persons observing the vow of non-violence, gladden all by giving the light of knowledge.
Translator's Notes
विहाया इति महन्नाम (निघ० ३.३ ) वि-हाक= गतौ गतेस्त्रिष्वर्थेषु प्राप्त्यर्थग्रहणमत्र अरतिः is derived from ॠ-गतिप्रापनयोः अत्र प्रापणार्थ ग्रहणं कृतं महर्षिणा दयानन्देन सुखस्य ज्ञानस्य वा प्रापक:
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