ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 128/ मन्त्र 5
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदष्टिः
स्वरः - मध्यमः
क्रत्वा॒ यद॑स्य॒ तवि॑षीषु पृ॒ञ्चते॒ऽग्नेरवे॑ण म॒रुतां॒ न भो॒ज्ये॑षि॒राय॒ न भो॒ज्या॑। स हि ष्मा॒ दान॒मिन्व॑ति॒ वसू॑नां च म॒ज्मना॑। स न॑स्त्रासते दुरि॒ताद॑भि॒ह्रुत॒: शंसा॑द॒घाद॑भि॒ह्रुत॑: ॥
स्वर सहित पद पाठक्रत्वा॑ । यत् । अ॒स्य॒ । तवि॑षीषु । पृ॒ञ्चते॑ । अ॒ग्नेः । अवे॑न । म॒रुता॒म् । न । भो॒ज्या॑ । इ॒षि॒राय । न । भो॒ज्या॑ । सः । हि । स्म॒ । दान॑म् । इन्व॑ति । वसू॑नाम् । च॒ । म॒ज्मना॑ । सः । नः॒ । त्रा॒स॒ते॒ । दुः॒ऽइ॒तात् । अ॒भि॒ऽह्रुतः॑ । शंसा॑त् । अ॒घात् । अ॒भि॒ऽह्रुतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रत्वा यदस्य तविषीषु पृञ्चतेऽग्नेरवेण मरुतां न भोज्येषिराय न भोज्या। स हि ष्मा दानमिन्वति वसूनां च मज्मना। स नस्त्रासते दुरितादभिह्रुत: शंसादघादभिह्रुत: ॥
स्वर रहित पद पाठक्रत्वा। यत्। अस्य। तविषीषु। पृञ्चते। अग्नेः। अवेन। मरुताम्। न। भोज्या। इषिराय। न। भोज्या। सः। हि। स्म। दानम्। इन्वति। वसूनाम्। च। मज्मना। सः। नः। त्रासते। दुःऽइतात्। अभिऽह्रुतः। शंसात्। अघात्। अभिऽह्रुतः ॥ १.१२८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 128; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
केऽत्र कल्याणविधायका भवन्तीत्याह ।
अन्वयः
यदस्य क्रत्वाऽवेन मरुतामग्नेरिषिराय भोज्या नेव भोज्या न तविषीषु पृञ्चते यो हि मज्मना वसूनां च दानमिन्वति यो नोऽभिह्रुतो दुरितादभिह्रुतोऽघात् त्रासते शंसात् संयोजयति स स्म सुखं प्राप्नोति स च सुखकारी जायते स स्म विद्वान् पूज्यः स सर्वाऽभिरक्षको भवति ॥ ५ ॥
पदार्थः
(क्रत्वा) प्रज्ञया (यत्) यः (अस्य) सेनेशस्य (तविषीषु) प्रशस्तबलयुक्तासु सेनासु (पृञ्चते) सम्बध्नाति (अग्नेः) विद्युतः (अवेन) रक्षणाद्येन (मरुताम्) वायूनाम् (न) इव (भोज्या) भोक्तुं योग्यानि (इषिराय) प्राप्तविद्याय (न) इव (भोज्या) पालयितुं योग्यानि (सः) (हि) (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (दानम्) दीयत यत्तत् (इन्वति) प्राप्नोति (वसूनाम्) प्रथमकोटिप्रविष्टानां विदुषाम् (च) पृथिव्यादीनां वा (मज्मना) बलेन (सः) (नः) अस्मान् (त्रासते) उद्वेजयति (दुरितात्) दुःखप्रदायिनः (अभिह्रुतः) आभिमुख्यं प्राप्तात् कुटिलात् (शंसात्) प्रशंसनात् (अघात्) पापात् (अभिह्रुतः) अभितः सर्वतो वक्रात् ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये सुशिक्षाविद्यादानेन दुष्टस्वभावगुणेभ्योऽधर्माचरणेभ्यश्च निवर्त्य शुभगुणेषु प्रवर्त्तयन्ति तेऽत्र कल्याणकारका आप्ता भवन्ति ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
इस संसार में उत्तम सुख का विधान करनेवाले कौन होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यत्) जो (अस्य) इस सेनापति की (क्रत्वा) बुद्धि और (अवेन) रक्षा आदि काम से (मरुताम्) पवनों और (अग्नेः) बिजुली आग की (इषिराय) विद्या को प्राप्त हुए पुरुष के लिये (भोज्या) भोजन करने योग्य पदार्थों के (न) समान वा (भोज्या) पालने योग्य पदार्थों के (न) समान पदार्थों का (तविषीषु) प्रशंसित बलयुक्त सेनाओं में (पृञ्चते) सम्बन्ध करता वा जो (हि) ठीक-ठीक (मज्मना) बल से (वसूनाम्) प्रथम कक्षावाले विद्वानों तथा (च) पृथिव्यादि लोकों का (दानम्) जो दिया जाता पदार्थ उसको (इन्वति) प्राप्ति होता वा जो (नः) हम लोगों को (अभिह्रुतः) क्षागे आये हुए कुटिल (दुरितात्) दुःखदायी (अभिह्रुतः) सब ओर से टेढ़े-मेढ़े छोटे-बड़े (अघात्) पाप से (त्रासते) उद्वेग करता अर्थात् उठाता वा (शंसात्) प्रशंसा से संयोग कराता (सः, स्म) वही सुख को प्राप्त होता और (सः) वह सुख करनेवाला होता तथा वही विद्वान् सबके सत्कार करने योग्य और वह सभों की ओर से रक्षा करनेहारा होता है ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो उत्तम शिक्षा और विद्या के दान से दुष्टस्वभावी प्राणियों और अधर्म के आचरणों से निवृत्त कराके अच्छे गुणों में प्रवृत्त कराते, वे इस संसार में कल्याण करनेवाले धर्मात्मा विद्वान् होते हैं ॥ ५ ॥
विषय
तीन व्रत
पदार्थ
१. (यत्) = जो (क्रत्वा) = यज्ञात्मक कर्मों के द्वारा (अस्य) = इस परमात्मा की (तविषीषु) = शक्तियों में (पृञ्चते) = सम्पर्क ग्रहण करता है और (अग्नेः अवेन) = प्रभु के रक्षण के द्वारा (न) = जैसे (मरुतां भोज्या) = प्राणों के भोज्य पदार्थों को अपने साथ संपृक्त करता है, न और [न इति चार्थे] (इषिराय भोज्या) = गतिशील के लिए भोज्य पदार्थों को सम्पृक्त करता है, (सः हि ष्मा) - वह ही निश्चय से (दानम्) = [दाप् लवने, दैप शोधने] अशुभों व पापों के विच्छेद को तथा जीवन के शोधन को (इन्वति) = व्याप्त करता है । जीवन को शुद्ध बनाने के लिए आवश्यक है कि [क] यज्ञात्मक कर्मों के द्वारा यज्ञरूप प्रभु का उपासन करके हम प्रभु की शक्ति को प्राप्त करें, [ख] हमारा भोजन प्राणशक्ति की वृद्धि के दृष्टिकोण से हो, [ग] हम क्रियाशील होते हुए ही भोजन करें । 'श्रम तो न करें और भोजन ही करते रहें' - ऐसा न हो । २. उल्लिखित तीन बातों के पालन से हमारा जीवन उत्तम बनेगा । हमारे जीवन - विकास के लिए आवश्यक सब तत्व उपस्थित होंगे (च) = और (वसूनां मज्मना) = इन वसुओं के बल से [मज्मना इति बलनाम - नि० २१९] (सः) = वे प्रभु (नः) = हमें (दुरितात्) = अशुभाचरण से (अभिह्रुतः) = कुटिलता से (शंसात्) = हिंसा से तथा (अभिह्रुतः) कुटिलतामय (अघात्) = औरों को कष्ट पहुँचानेवाले कार्यों से (त्रासते) = बचाते हैं । जीवन में पाप तभी आते हैं जब शारीरिक दृष्टिकोण से किसी प्रकार की कमी होती है । अब्रह्मचर्य कितनी ही अशुभवृत्तियों का कारण बनता है । अस्वस्थ शरीर में मन व बुद्धि अस्वस्थ हो जाते हैं और मनुष्य का आचरण दूषित हो जाता है । इसलिए यह आवश्यक है कि शरीर में सब वसु ठीक से उपस्थित हों । इन वसुओं को ठीक स्थिति के लिए आवश्यक है कि [क] यज्ञात्मक कर्मों से हम प्रभु से अपना सम्बन्ध बनाएँ, [ख] प्राणपोषक भोजन ही करें, [ग] श्रमशील बनकर भोजन करें ।
भावार्थ
भावार्थ - [क] यज्ञात्मक कर्मों द्वारा प्रभु की शक्ति का अपने में सञ्चार करना, [ख] प्राणपोषण के दृष्टिकोण से भोज्य पदार्थों को लेना, [ग] श्रम के साथ भोजन - इन तीन व्रतों के पालन से जीवन शुद्ध होता है और निवास के लिए आवश्यक सब तत्त्वों का ठीक से स्थापन होकर हमारी पापवृत्ति नष्ट हो जाती है ।
विषय
विद्वान् पुरोहित, गुरु और यज्ञाग्नि सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( अग्नेः रवेण ) विद्युत् अग्नि के गर्जन के साथ ( अस्य क्रत्वा ) और इस विद्युत् के कर्म सामर्थ्य से ही ( तविषीषु ) बलवती क्रियाओं में ( मरुताम् भोज्या न ) मनुष्यों के भोगने योग्य अन्नों के समान वायु गणों से भोग्य या सेवित जल ( पृञ्चते ) परस्पर मिल कर स्थूल रूप धारण करते हैं और ( इषिराय ) इच्छुक, वृष्टि के अभिलाषुक कृषक जन के लिये ( भोज्या न ) वे जलकण ही अन्नों के मानते हैं। और जिस प्रकार वह मेघ या विद्युत् ही ( वसूनां च मज्मना ) जल, अग्नि, विद्युत्, वायु आदि अन्तरिक्षगत भौतिक तत्वों के बल से ही ( दानम् इन्वति ) खण्ड खण्ड, बूंद बूंद होकर बहता है और ( सः ) वही ( नः ) हम प्राणियों को ( अभिह्रुतः ) मूर्छा दिला देने वाले ( दुरितात् ) दुःखप्रद दशा से और ( अभिह्रुतः अघात् शंसात् ) अति कुटिल घोर पाप या कष्ट, दुष्काल आदि से ( त्रासते ) रक्षा करता है । उसी प्रकार ( अस्य तविषीषु ) इस नायक की सेनाओं में ( अग्नेः रवेण ) अग्रणी पुरुष की आज्ञा से लोग परस्पर (पृञ्चते) सम्बद्ध मिल कर गठित हो जाते हैं और ( मरुतां भोज्या न ) वायु के समान तीव्र आक्रामक वीर जनों यां प्रजाजनों के जो भोग योग्य ऐश्वर्य है वे सब (इषिराय) इच्छा वशवर्त्ती, राजा को ही प्राप्त हों। वह ही राजा, अग्रणी पुरुष ( वसूनां च मज्मना ) राष्ट्र में बसे प्रजाजनों या अपने ही समवाय बल के सहित ( दानम् ) शत्रुओं के नाशकारी बल को ( इन्वति स्म ) प्राप्त करता है । ( सः ) वह ही ( नः ) हमें ( अभिह्रुतः दुरितात् ) अति कुटिल पापाचार ( अघात् शंसात् ) और पापमय कुटिल शिक्षा से ( त्रासते ) पालन करता है। इति चतुर्दशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१—८ परुच्छेप ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- निचृदत्यष्टिः । ३, ४, ६, ८ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगष्टिः । ५, ७ निचृदष्टिः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे उत्तम शिक्षण व विद्या यांनी दुष्ट स्वभावाच्या प्राण्यांना आणि अधर्माचे आचरण करणाऱ्यांना वाईट गुणांपासून निवृत्त करून चांगल्या गुणात प्रवृत्त करवितात ते या जगात कल्याण करणारे धार्मिक विद्वान असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When a person joins the blazing flames and forces of this Agni with his gift of oblations and energy by the yajna of creative and defensive action, as you would enhance the energy of a vigorous man with refreshments or you augment the force of the winds, then Agni receives the gift and, with his force and power, blesses the givers, and he warns us of the crooked ways of the world, protects us against scandals of the envious, saves us from evil and redeems us from sin and fall off from Divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who are the benefactors of humanity is told in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That man enjoys happiness and gives delight to others, who supplies all necessary articles and edibles to a learned person well-versed in the science of the fire and the winds, with the intellect and protection of the commander of the Army and his brave soldiers. He gets the gifts from the Vasus-persons who observe Brahamcharya up to the age of at least 24 years, on account of his own strength and other virtues. He preserves us from crooked sin, wickedness and overpowering male violence that cause misery and unites us with admirable qualities. Such a man becomes a protector on all sides and is respected and revered everywhere.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अग्ने:) विद्युतः = Of Lightning or electricity. (मरुताम् ) वायूनाम् = Of the winds. (अभिह्वुतः) आभिमुख्यं प्राप्तात् कुटिलात् = From the crooked. ह्ल.कौटिल्ये
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those learned and absolutely truthful persons are real benefactors of humanity, who prevent men from evil tendencies, habits and conduct and prompt them to acquire noble virtues.
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