ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 129/ मन्त्र 2
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
स श्रु॑धि॒ यः स्मा॒ पृत॑नासु॒ कासु॑ चिद्द॒क्षाय्य॑ इन्द्र॒ भर॑हूतये॒ नृभि॒रसि॒ प्रतू॑र्तये॒ नृभि॑:। यः शूरै॒: स्व१॒॑सनि॑ता॒ यो विप्रै॒र्वाजं॒ तरु॑ता। तमी॑शा॒नास॑ इरधन्त वा॒जिनं॑ पृ॒क्षमत्यं॒ न वा॒जिन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । श्रु॒धि॒ । यः । स्म॒ । पृत॑नासु । कासु॑ । चि॒त् । द॒क्षाय्यः॑ । इ॒न्द्र॒ । भर॑ऽहूतये । नृऽभिः॑ । अ॒सि॒ । प्रऽतू॑र्तये । नृऽभिः॑ । यः । शूरैः॑ । स्वरिति॑ स्वः॑ । सनि॑ता । यः । विप्रैः॑ । वाज॑म् । तरु॑ता । तम् । ई॒शा॒नासः॑ । इ॒र॒ध॒न्त॒ । वा॒जिन॑म् । पृ॒क्षम् । अत्य॑म् । न । वा॒जिन॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स श्रुधि यः स्मा पृतनासु कासु चिद्दक्षाय्य इन्द्र भरहूतये नृभिरसि प्रतूर्तये नृभि:। यः शूरै: स्व१सनिता यो विप्रैर्वाजं तरुता। तमीशानास इरधन्त वाजिनं पृक्षमत्यं न वाजिनम् ॥
स्वर रहित पद पाठसः। श्रुधि। यः। स्म। पृतनासु। कासु। चित्। दक्षाय्यः। इन्द्र। भरऽहूतये। नृऽभिः। असि। प्रऽतूर्तये। नृऽभिः। यः। शूरैः। स्व१रिति स्वः। सनिता। यः। विप्रैः। वाजम्। तरुता। तम्। ईशानासः। इरधन्त। वाजिनम्। पृक्षम्। अत्यम्। न। वाजिनम् ॥ १.१२९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 129; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः कीदृशा भवन्तीत्याह ।
अन्वयः
हे इन्द्र सेनेश यस्त्वं प्रतूर्त्तये नृभिरिव नृभिर्भरहूतये कासु चित्पृतनासु दक्षाय्योऽसि यस्त्वं शूरैः स्वः सनिता यो विप्रैर्वाजं तरुता वाजिनमत्यं नेव पृक्षं वाजिनं धरसि तं त्वामीशानास इरधन्त स स्मैव सर्वस्य न्यायं श्रुधि ॥ २ ॥
पदार्थः
(सः) सेनेशः (श्रुधि) शृणु (यः) (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (पृतनासु) सेनासु (कासु) (चित्) अपि (दक्षाय्यः) यो राजकर्मसु प्रवीणः (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (भरहूतये) भराणां पालकानां हूतये स्पर्द्धायै (नृभिः) नायकैः (असि) (प्रतूर्त्तये) सद्योऽनुष्ठानाय (नृभिः) नायकैः (यः) (शूरैः) निर्भयैः (स्वः) सुखम् (सनिता) संविभाजकः (यः) (विप्रैः) मेधाविभिः (वाजम्) विज्ञानम् (तरुता) प्लविता (तम्) (ईशानासः) समर्थाः (इरधन्त) ये इरान् इलान् प्रेरकान् दधति ते इरधास्त इवाचरन्तु (वाजिनम्) विज्ञानवन्तम् (पृक्षम्) सुखैः सेचकम् (अत्यम्) व्याप्तिशीलम् (न) इव (वाजिनम्) अश्वम् ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वद्भिर्न्यायाऽधीशैः सह राजधर्मं नयन्ति ते प्रजास्वानन्दप्रदा भवन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्ययुक्त सेनापति ! (यः) जो आप (प्रतूर्त्तये) शीघ्र आरम्भ करने के लिये (नृभिः) मुख्य अग्रगन्ता मनुष्यों के समान (नृभिः) अपने अधिकारी कामचारी मनुष्यों से (भरहूतये) दूसरों की पालना करनेवाले राजजनों की स्पर्द्धा अर्थात् उनकी हार करने के लिये (कासु, चित्) किन्हीं (पृतनासु) सेनाओं में और (दक्षाय्यः) राजकामों में अति चतुर (असि) हो वा (यः) जो आप (शूरैः) निडर शूरवीरों के साथ (स्वः) सुख को (सनिता) अच्छे बाँटनेवाले वा (यः) जो (विप्रैः) धीर बुद्धिवालों के साथ (वाजम्) विशेष ज्ञान को (मरुता) पार होनेवाले (वाजिनम्) विशेष ज्ञानवान् (अत्यम्) व्याप्त होनेवाले के (न) समान (पृक्षम्) सुखों को सींचनेवाले (वाजिनम्) घोड़े को धारण करते हो (तम्) उन आपको (ईशानासः) समर्थ जन (इरधन्त) जो प्रेरणा करनेवालों को धारण करते उनके जैसा आचरण करें अर्थात् प्रेरणा दें और (सः, स्म) वही आप सबके न्याय को (श्रुधि) सुनें ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् और न्यायाधीशों के साथ राजधर्म को प्राप्त करते, वे प्रजाजनों में आनन्द को अच्छे प्रकार देनेवाले होते हैं ॥ २ ॥
विषय
संग्राम - विजय
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (यः) = जो आप (पृतनासु कासुचित्) = जिन किन्हीं भी संग्रामों में (दक्षाय्यः स्म) = हमारी वृद्धि करनेवाले हैं, (सः) = वे आप (अधि) = हमारी पुकार को सुनिए । हे प्रभो! आप (नृभिः) = अपने को उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाले लोगों से (भरहूतये) = [भर - संग्राम नि०] संग्राम में पुकारने के लिए (असि) = होते हैं । काम - क्रोधादि वासनाओं के साथ चलनेवाले संग्राम में प्रगतिशील पुरुष प्रभु को ही पुकारता है । प्रभु की सहायता से ही वह इन शत्रुओं को जीतनेवाला होता है । हे प्रभो! आप ही (नृभिः) = इन प्रगतिशाली पुरुषों द्वारा (प्रतूर्तये) = काम क्रोधादि के संहार के लिए होते हैं । प्रभु की सहायता से ही ये काम - क्रोधादि को नष्ट कर पाते हैं । २. (यः) = जो प्रभु [क] शूरः शूरवीरों के द्वारा (स्वः) = स्वर्ग को (सनिता) = प्राप्त करानेवाले होते हैं, शूरवीरों से हममें शक्ति की भावना भरके हमें युद्धभीरुता से ऊपर उठाते हैं और युद्ध में अपराङ्मुखता के द्वारा हमें स्वर्ग प्राप्त कराते हैं, [ख] (यः) = जो प्रभु (विप्रैः) = ज्ञानियों के द्वारा (वाजं तरुता) = हमें शक्ति देनेवाले हैं ['वि'तरणदान], ज्ञानी पुरुष ज्ञानप्रकाश के द्वारा हमें विषयान्धकार से ऊपर उठाते हैं और हमें शक्ति को नष्ट करने से बचाकर शक्ति-सम्पन्न बनाते हैं, (तम्) = उस शूर के द्वारा, स्वर्ग तथा ज्ञानियों के द्वारा शक्ति देनेवाले प्रभु को (ईशानासः) = अपनी इन्द्रियों व मन के स्वामी बननेवाले लोग ही (इरधन्त) = उपासित करते हैं । ईशान ही प्रभु का उपासक बनता है । ३. हम उस प्रभु को उपासते हैं जो (वाजिनम्) = प्रशस्त शक्तियोंवाले हैं, (पृक्षम्) = सबके साथ सम्पर्कवाले हैं, सर्वव्यापक हैं और (वाजिनं अत्यं न) = एक शक्तिशाली घोड़े के समान हैं । जैसे एक शक्तिशाली घोड़ा खूब गतिवाला होता हुआ हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचाता है, उसी प्रकार प्रभु का आश्रय करके एक भक्त सर्वत्र विजयी होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की सहायता से हम संग्रामों में विजयी हों । प्रभु ही हमें शूरता की भावना व शक्ति से भरते हैं । हम इन्द्रियों, मन व बुद्धि के ईशान बनकर प्रभु के उपासक हों ।
विषय
सभापति, सेनापति, अग्रणी नायक मार्गदर्शी का वर्णन ।
भावार्थ
हे इन्द्र ! विद्वन् ! सेना और सभा के स्वामिन् ! (यः) जो तू ( कासु चित् ) कई सेनाओं संग्रामों, और कई प्रकार की प्रजाओं के बीच में ( नृभिः ) उत्तम नेता पुरुषों के सहित ( भरहूतये ) पालक पुरुषों को बीच सर्व श्रेष्ठ पालक कहलाने और शत्रुओं को संग्राम के लिये ललकारने के लिये ( दक्षाय्यः ) समर्थ, एवं प्रवीण होता है और जो तू ( कासु चित् ) ( पृतनासु ) कई, अनेक सेनाओं के ऊपर ( नृभिः ) नायक पुरुषों द्वारा ही ( प्र-तूर्त्तये ) अच्छी प्रकार शत्रुओं के नाश करने में भी ( दक्षाय्यः असि ) समर्थ होता है । ( सः ) वह तू ( श्रुधि ) हमारे प्रजाजनों के वचन और न्याय-व्यवहार आदि भी श्रवण कर । क्योंकि ( यः ) जो पुरुष ( शूरैः ) शूरवीर पुरुषों के साथ मिलकर प्रजाओं को ( स्वः ) सुख ( सनिता ) प्रदान करने में समर्थ होता है और ( यः ) जो ( विप्रैः ) विद्वान् पुरुषों के द्वारा ( वाजं तरुता ) ज्ञान और ऐश्वर्य और अन्न प्रदान करने या युद्ध पार करने में समर्थ होता है ( तं वाजिनम् ) उस ऐश्वर्यवान् और बलवान् पुरुष को ( ईशानासः ) शक्तिशाली, अधिकारवान् पुरुष भी ( पृक्षम् ) सत्संग योग्य और सुखों और ऐश्वर्यों से प्रजा और आश्रितजनों के सेचन और संवर्धन करने वाला जानकर ( अत्यं वाजिनं न ) अतिवेगवान् बलवान् अश्व के समान ( इरधन्त ) आश्रय करते हैं, उसे समस्त शासकों का भी शासक बना देते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृदत्यष्टिः । ३ विराडत्यष्टिः । ४ अष्टिः । ६, ११ भुरिगष्टिः । १० निचृष्टि: । ५ भुरिगतिशक्वरी ७ स्वराडतिशक्वरी । ८, ९ स्वराट् शक्वरी । एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वान व न्यायाधीशाबरोबर राजधर्मात प्रवीण असतात. ते प्रजेला आनंद देतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May Indra, lord of wealth and power, listen to our voice of prayer and suggestion, Indra who is an expert hero in the projects of social fulfilment in cooperation with the socially motivated people and an instant fighter in battles of defence and development with men of martial nature, who meditates on the heavenly light of the spirit and with the brave, intelligent and wise men is the creator and distributor of food and energy among people, and with whom the strong and powerful leaders love to work exactly as successful people love to take to a strong and fast horse to reach their destination, fast as he is and versatile in everything.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are learned men is told further in the Second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (Commander of the army) Hear our invocation thou who in various battles and competitions of the protectors of men, for quick action art animated by leading men and art expert in thy official duties. Thou art the sharer of happiness with heroes and of the knowledge with wise men. Thou upholdest or supportest a learned person who is giver of happiness, like a fleet course. Mighty persons and lords of wealth praise thee and act like the inspirers of act.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्र ) सेनेश:= o Commander of the army. (प्रतूर्तये ) सद्योऽनुष्ठानाय = For prompt action. (इरधन्त ) ये इरान् इलान प्रेरकान् दधति ते इरधास्त इव आचरन्तु | = Let them act like the upholders or supporters of the inspirers of good actions. (पृक्षे ) सुखैः सेचकम् = Fillers with delight.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who lead men to the discharge of their duties towards the State along with the learned Judges and Magistrates, become givers of happiness and joy among the people.
Translator's Notes
सेना वा इन्द्राणी (मैत्रायणी २, २, ५) कांठक १०.१० When सेना is इन्द्राणी (Indrani) it is clear that the word इन्द्र stands for सेनेश or Commander of the army, Rishi Dayananda Sarasvavti's interpretation is therefore quite authonticated. The following passages from Taittireeya Brahmana 2. 4. 2, 7-8 also clearly substantiate it. Here the word Indrani stands with सेना or army. सेना ह नाम पृथिवी धनंजयाविश्वव्यचा अदितिः सूर्यत्वक् । इन्द्राणी देवी प्रासहाददाना साप्ते देवी सुहवा शर्मयच्छतु । (तैत्तिरीय ब्राह्मणे २, ४, २, ७, ८)
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