ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 129/ मन्त्र 7
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराडतिशक्वरी
स्वरः - पञ्चमः
व॒नेम॒ तद्धोत्र॑या चि॒तन्त्या॑ व॒नेम॑ र॒यिं र॑यिवः सु॒वीर्यं॑ र॒ण्वं सन्तं॑ सु॒वीर्य॑म्। दु॒र्मन्मा॑नं सु॒मन्तु॑भि॒रेमि॒षा पृ॑चीमहि। आ स॒त्याभि॒रिन्द्रं॑ द्यु॒म्नहू॑तिभि॒र्यज॑त्रं द्यु॒म्नहू॑तिभिः ॥
स्वर सहित पद पाठव॒नेम॑ । तत् । होत्र॑या । चि॒तन्त्या॑ । व॒नेम॑ । र॒यिम् । र॒यि॒ऽवः॒ । सु॒ऽवीर्य॑म् । र॒ण्वम् । सन्त॑म् । सु॒ऽवीर्य॑म् । दुः॒ऽमन्मा॑नम् । सु॒मन्तु॑ऽभिः । आ । ई॒म् । इ॒षा । पृ॒ची॒म॒हि॒ । आ । स॒त्याभिः॑ । इन्द्र॑म् । द्यु॒म्नहू॑तिऽभिः । यज॑त्रम् । द्यु॒म्नहू॑तिऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वनेम तद्धोत्रया चितन्त्या वनेम रयिं रयिवः सुवीर्यं रण्वं सन्तं सुवीर्यम्। दुर्मन्मानं सुमन्तुभिरेमिषा पृचीमहि। आ सत्याभिरिन्द्रं द्युम्नहूतिभिर्यजत्रं द्युम्नहूतिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठवनेम। तत्। होत्रया। चितन्त्या। वनेम। रयिम्। रयिऽवः। सुऽवीर्यम्। रण्वम्। सन्तम्। सुऽवीर्यम्। दुःऽमन्मानम्। सुमन्तुऽभिः। आ। ईम्। इषा। पृचीमहि। आ। सत्याभिः। इन्द्रम्। द्युम्नहूतिऽभिः। यजत्रम्। द्युम्नहूतिऽभिः ॥ १.१२९.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 129; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मात्रादिभिः सन्तानाः कथमुपदेष्टव्या इत्याह ।
अन्वयः
हे रयिवो यथा वयं होत्रया चितन्त्या यद् ज्ञानं वनेम सुवीर्यं रयिं सन्तं रण्वं सुवीर्यं च वनेम सुमन्तुभिरीमिषा च दुर्मन्मानमापृचीमहि द्युम्नहूतिभिर्यजत्रमिव सत्याभिद्युम्नहूतिभिरिन्द्रमापृचीमहि तथा तदेतत्सर्वे त्वं वन पृङ्क्ष्व ॥ ७ ॥
पदार्थः
(वनेम) संभजेम (तत्) विज्ञानम् (होत्रया) आदातुमर्हया (चितन्त्या) बुद्धिमत्या (वनेम) विभज्य दद्याम (रयिम्) श्रियम् (रयिवः) श्रीमन् (सुवीर्यम्) श्रेष्ठपराक्रमम् (रण्वम्) उपदेशकम् (सन्तम्) वर्त्तमानम् (सुवीर्यम्) विद्याधर्माभ्यां सुष्ठ्वात्मबलम् (दुर्मन्मानम्) यो दुष्टं मन्यते स दुर्मन् यस्तं मिनाति तम् (सुमन्तुभिः) शोभनविद्यायुक्तैः (आ) समन्तात् (ईम्) प्राप्तव्यया (इषा) इच्छया (पृचीमहि) सम्बन्धीयाम (आ) (सत्याभिः) सत्याचरणान्विताभिः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (द्युम्नहूतिभिः) द्युम्नस्य धनस्य यशसो वाऽऽह्वानैः (यजत्रम्) सङ्गन्तव्यम् (द्युम्नहूतिभिः) ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मातापित्रादिभिर्विद्वद्भिर्वा स्वसन्ताना इत्थमुपदेष्टव्या यान्यस्माकं धर्म्याणि कर्माणि तान्याचरणीयानि नो इतराणि एवं सत्याचरणैः परोपकारेणैश्वर्यं सततमुन्नेयम् ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर माता आदि को सन्तान कैसे उपदेशों से समझाने चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (रयिवः) धनवान् ! जैसे हम लोग (होत्रया) ग्रहण करने योग्य (चितन्त्या) चेतानेवाली बुद्धिमती (=बुद्धिमानी) से जिस ज्ञान का (वनेम) अच्छे प्रकार सेवन करें वा (सुवीर्यम्) श्रेष्ठ पराक्रमयुक्त (रयिम्) धन तथा (सन्तम्) वर्त्तमान (रण्वम्) उपदेश करनेवाले (सुवीर्य्यम्) विद्या और धर्म से उत्तम आत्मा के बल का (वनेम) सेवन करें वा (सुमन्तुभिः) उत्तम विद्यायुक्त पुरुषों और (ईम्) पाने योग्य (इषा) इच्छा से (दुर्मन्मानम्) दुष्ट जन मान करनेहारे को जो मारनेवाला उसका (आ, पृचीमहि) अच्छे प्रकार सम्बन्ध करें तथा (द्युम्नहूतिभिः) धन वा यश की बातचीतों से (यजत्रम्) अच्छे प्रकार सङ्ग करने योग्य व्यवहार के समान (सत्याभिः) सत्य आचरणयुक्त (द्युम्नहूतिभिः) धनविषयक बातों से (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य का (आ) अच्छे प्रकार सम्बन्ध करें वैसे (तत्) उक्त समस्त व्यवहार को आप भजो और उससे सम्बन्ध करो ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। माता और पिता आदि को वा विद्वानों को चाहिये कि अपने सन्तानों को इस प्रकार उपदेश करें कि जो हमारे धर्म के अनुकूल काम हैं, वे आचरण करने योग्य किन्तु और काम आचरण करने योग्य नहीं, ऐसे सत्याचरणों और परोपकार से निरन्तर ऐश्वर्य्य की उन्नति करनी चाहिये ॥ ७ ॥
विषय
प्रभुभजन - वरणीय धन
पदार्थ
१. (चितन्त्या) = प्रभु के गुणों का ज्ञापन करती हुई (तत् होत्रया) = उस प्रभु - प्रदत्त वेदवाणी से हम (वनेम) = प्रभु का संभजन करें । (रयिवः) = हे सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामिन् प्रभो । हम (सुवीर्यम्) = उत्तम शक्तिवाले (रण्वम्) = रमणीय (सन्तम्) = श्रेष्ठ और अतएव (सुवीर्यम्) = उत्तम सामर्थ्यवाले (रयिम्) = धन को (वनेम) = प्राप्त करें । हम वेदवाणी को समझें, उसके द्वारा प्रभु का स्तवन करें और उत्तम मार्ग से श्रेष्ठ धनों को प्राप्त करें, उस धन को जो हमें उत्तम सामर्थ्यवाला बनाता है । २. धन हमारे विलास का कारण न बन जाए, अतः हम (सुमन्तुभिः) = शोभन मनन-साधनभूत स्तवन-मन्त्रों से (दुर्मन्मानम्) = अत्यन्त कठिनता से मनन करने योग्य उस प्रभु को (ईम्) = निश्चय से (इषा) = प्रेरणा के निमित्त (आपृचीमहि) = अपने साथ सम्पृक्त करते हैं । वेदमन्त्रों द्वारा प्रभु का गुणगान करते हुए प्रभु का उपासन करते हैं, उपासित प्रभु हमें वह उत्तम प्रेरणा प्राप्त कराते हैं जो हमें भटकने से बचाती है । हम (सत्याभिः) = सत्य अर्थ का प्रतिपादन करनेवाली (द्युम्नहूतिभिः) = ज्योतिर्मय पुकारों से (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् प्रभु को (आ) = अपने साथ सम्पृक्त करते हैं । (यजत्रम्) = उस यष्टव्य पूज्य प्रभु को (द्युमहूतिभिः) = इन ज्योतिर्मय पुकारों से प्राप्त होते हैं । ज्योतिर्मय पुकार का अभिप्राय इतना ही है कि हम जिन मन्त्रों से प्रभु का आराधन करते हैं, उनके भाव को अच्छी प्रकार समझते हैं । ये विचारपूर्वक की गई प्रार्थनाएँ हमारे जीवन की दिशा को विकृत नहीं होने देंगी ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अर्थमननपूर्वक मन्त्रों से प्रभु का स्तवन करें और इस संसार में रमणीय श्रेष्ठ धनवाले हों, उस धनवाले जो हमें विलासता की ओर नहीं ले-जाता ।
विषय
शूरवीर पुरुष और ऐश्वर्यवान् राजा का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हम लोग ( चितन्त्या ) ज्ञान उत्पन्न करने वाली (होत्रया) वाणी द्वारा ही ( तत् ) उस परम श्रेष्ठ, ज्ञान योग्य ब्रह्मपद को ( वनेम ) प्राप्त करें और उसका अन्यों को उपदेश करें। हे ( रविः ) ऐश्वर्यवान् हम ( रयिम् ) ऐश्वर्य ( सुवीर्य ) उत्तम वीर्य और उसके समान ( रण्वं ) सुख और ज्ञानप्रद, ( सुवीर्यं ) उत्तम वीर्यवान् ( सन्तं ) सज्जन पुरुष को भी ( वनेम ) प्राप्त करें । ( सुमन्तुभिः ) उत्तम मनन करने योग्य ज्ञानी और मननशील पुरुषों द्वारा उपदेश प्राप्त करके हम ( दुर्मन्मानम् ) विपरीत ज्ञान के नाशक, एवं दुःख या कठिनता से मनन करने योग्य, दुर्विज्ञेय, परमेश्वर या आत्मा के रूप को ( इषा ) प्रबल इच्छा या प्रेरणा द्वारा ( पृचीमहि ) प्राप्त करें, उससे जुड़ जायें । ( यजत्रं ) दानशील या सत्संग करने योग्य उत्तम पुरुष को जिस प्रकार ( घुम्नहूतिभिः ) यशसूचक स्तुतियों द्वारा पहुंचाते हैं उसी प्रकार हम उस ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर को भी ( सत्याभिः ) सत्य, ( घुम्नहूतिभिः ) उसके तेजोमय स्वरूप का वर्णन करने वाली स्तुतियों से ( आपृचीमहि ) खूब भली प्रकार अपने साथ जोड़ लें, उसको अपने हृदय में योग द्वारा ध्यान कर तन्मय हो जावें । ( २ ) इसी प्रकार वीर्यवान् धनैश्वर्यवान्, दुष्टों के हिंसक सत्संग योग्य ( इन्द्रं ) राजा और आचार्य को भी उत्तम ज्ञानों ज्ञानवानों, यश, अन्नवर्धक क्रियाओं और स्तुतियों सहित मिलें; उससे अपना सम्पर्क या सम्बन्ध बढ़ावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृदत्यष्टिः । ३ विराडत्यष्टिः । ४ अष्टिः । ६, ११ भुरिगष्टिः । १० निचृष्टि: । ५ भुरिगतिशक्वरी ७ स्वराडतिशक्वरी । ८, ९ स्वराट् शक्वरी । एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माता व पिता इत्यादींनी व विद्वानांनी आपल्या संतानांना या प्रकारचा उपदेश करावा की आमचे जे काम धर्मानुकूल आहे त्यांचे आचरण करा; परंतु अयोग्य कामाचे आचरण करू नका. असे सत्याचरण व परोपकार करून सदैव ऐश्वर्य वाढवावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let us invoke Indra with most enthusiastic homage, pray and win his favour. O lord of wealth, let us win wealth, win noble strength, noble strength of body and mind abiding with holy joy of the spirit. Let us, with honest thoughts and earnest desire associate and be one with Indra who brooks no nonsense and negativity of mind and spirit. Let us offer prayers and homage to Indra, holiest of the holy, with truth of mind and spirit and the richest offerings, the richest that we have.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should children be taught by mothers and others is told in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wealthy person, as we acquire and distribute good knowledge with the speech that is acceptable (pleasant) and giver of instruction, so thou shouldst also do. We solicit wealth, good vitality, a learned person who is endowed with Vidya (Wisdom) and Dharma (Righteousness) and is possessor of good spiritual power on account of them, preaching always the Truth. May we attain the knowledge of God whom it is difficult to know, with the association of enlightened wisemen and strong will and establish contact with such wise persons who are destroyers of all evils. May we attain or have communion with the Adorable God by true and earnest invocations. May we also have contact with adorable enlightened persons in inviting them sincerely and honoring them with wealth and praise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(होत्रया) आदातुमर्हया (वाण्या) = By acceptable or pleasant speech. (इषा) इच्छया = By strong will. (रण्वम् ) उपदेशकम् = Preacher of truth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Parents and enlightened persons should teach their children and pupils, in this manner. You should imitate only our righteous acts and conduct and not what may not be righteous or noble. In this way, you should advance prosperity by truthful conduct, good character and benevolence.
Translator's Notes
होत्रेतिवाङ्नाम (निघ० १.११ ) (रण्वम्) is derived from रण-शब्दे इष-इच्छायाम्
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal