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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 129 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 129/ मन्त्र 3
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    द॒स्मो हि ष्मा॒ वृष॑णं॒ पिन्व॑सि॒ त्वचं॒ कं चि॑द्यावीर॒ररुं॑ शूर॒ मर्त्यं॑ परिवृ॒णक्षि॒ मर्त्य॑म्। इन्द्रो॒त तुभ्यं॒ तद्दि॒वे तद्रु॒द्राय॒ स्वय॑शसे। मि॒त्राय॑ वोचं॒ वरु॑णाय स॒प्रथ॑: सुमृळी॒काय॑ स॒प्रथ॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒स्मः । हि । ष्म॒ । वृष॑णम् । पिन्व॑सि । त्वच॑म् । कम् । चि॒त् । या॒वीः॒ । अ॒ररु॑म् । शू॒र॒ । मर्त्य॑म् । प॒रि॒ऽवृ॒णक्षि॑ । मर्त्य॑म् । इन्द्र॑ । उ॒त । तुभ्य॑म् । तत् । दि॒वे । तत् । रु॒द्राय॑ । स्वऽय॑शसे । मि॒त्राय॑ । वोच॑म् । वरु॑णाय । स॒ऽप्रथः॑ । सु॒ऽमृ॒ळी॒काय॑ । स॒ऽप्रथः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दस्मो हि ष्मा वृषणं पिन्वसि त्वचं कं चिद्यावीरररुं शूर मर्त्यं परिवृणक्षि मर्त्यम्। इन्द्रोत तुभ्यं तद्दिवे तद्रुद्राय स्वयशसे। मित्राय वोचं वरुणाय सप्रथ: सुमृळीकाय सप्रथ: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दस्मः। हि। ष्म। वृषणम्। पिन्वसि। त्वचम्। कम्। चित्। यावीः। अररुम्। शूर। मर्त्यम्। परिऽवृणक्षि। मर्त्यम्। इन्द्र। उत। तुभ्यम्। तत्। दिवे। तत्। रुद्राय। स्वऽयशसे। मित्राय। वोचम्। वरुणाय। सऽप्रथः। सुऽमृळीकाय। सऽप्रथः ॥ १.१२९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 129; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः के जगदुपकारका भवन्तीत्याह ।

    अन्वयः

    हे शूरेन्द्र हि यतो दस्मस्त्वं यं कञ्चित् त्वचं यावीर्वृषणमररुं मर्त्यमिव मर्त्यं परिवृणक्षि पिन्वस्यतस्तस्मै स्वयशसे मित्राय तुभ्यं च तद्वोचं दिवे रुद्राय वरुणाय सुमृळीकाय सप्रथ इव सप्रथोऽहं तदुत स्म वोचम् ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (दस्मः) शत्रूणामुपक्षयिता (हि) यतः (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (वृषणम्) विद्यावर्षकम् (पिन्वसि) सेवसे (त्वचम्) आच्छादकम् (कम्) (चित्) अपि (यावीः) अयावी पृथक् करोषि (अररुम्) प्रापकम् (शूर) शत्रूहिंसक (मर्त्यम्) मनुष्यम् (परिवृणक्षि) सर्वतस्त्यजसि (मर्त्यम्) मनुष्यमिव (इन्द्र) सभेश (उत) अपि (तुभ्यम्) (तत्) (दिवे) कामयमानाय (तत्) (रुद्राय) दुष्टानां रोदयित्रे (स्वयशसे) स्वकीयं यशः कीर्त्तिर्यस्य तस्मै (मित्राय) सुहृदे (वोचम्) उच्याम् (वरुणाय) वराय (सप्रथः) प्रथसा विस्तारेण युक्तम् (सुमृळीकाय) सुष्ठु सुखकराय (सप्रथः) सप्रसिद्धि ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो मित्रभावेन सत्यमुपदिशन्ति धर्मं सेवन्ते ते परमसुखप्रदा भवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन संसार का उपकार करनेवाले होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (शूर) शत्रुओं को मारनेवाले (इन्द्र) सभापति ! (हि) जिस कारण (दस्मः) शत्रुओं को विनाशनेहारे आप जिस (कञ्चित्) किसी (त्वचम्) धर्म के ढाँपनेवाले को (यावीः) पृथक् करते और (वृषणम्) विद्यादि गुणों के वर्षाने (अररुम्) वा दूसरे को उनकी प्राप्ति करानेवाले (मर्त्यम्) मनुष्य के समान (मर्त्यम्) मनुष्य को (परिवृणक्षि) सब ओर से छोड़ते स्वतन्त्रता देते वा (पिन्वसि) उसका सेवन करते हैं, इस कारण उस (स्वयशसे) स्वकीर्त्ति से युक्त (मित्राय) सबके मित्र के लिये वा (तुभ्यम्) आपके लिये (तत्) उस व्यवहार को (वोचम्) मैं कहूँ वा (दिवे) कामना करने (रुद्राय) दुष्टों को रुलाने (वरुणाय) श्रेष्ठ धर्म आचरण करने (सुमृळीकाय) और उत्तम सुख करनेवाले के लिये (सप्रथः) सब प्रकार के विस्तार से युक्त मनुष्य के समान (सप्रथः) प्रसिद्धि अर्थात् उत्तम कीर्त्तियुक्त (तत्) उस उक्त आपके उत्तम व्यवहार को (उत) तर्क-वितर्क से (स्म) ही कहूँ ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सब मनुष्यों के लिये मित्रभाव से सत्य का उपदेश करते वा धर्म का सेवन करते, वे परम सुख के देनेवाले होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    वृषण अररु

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! आप (हि) = निश्चय से (दस्मः) = शत्रुओं का उपक्षय करनेवाले (स्म) = हैं । (वृषणम्) = शक्तिशाली पुरुष को, शक्ति के द्वारा औरों पर सुखों का वर्षण करनेवाले पुरुष को (पिन्वसि) = आप बढ़ाते हैं । आप उसे बढ़ाते हैं (कञ्चित् त्वचम्) = जो किसी को आच्छादित या सुरक्षित करनेवाला है [त्वच् - to cover] । यह ठीक है कि अल्प शक्तिवाला होने से जीव दुनियाभर का कल्याण नहीं कर सकता, परन्तु किसी एक-आध का कल्याण तो कर ही सकता है । ऐसी कल्याणकारी शक्ति हमें अपने अन्दर उत्पन्न करनी चाहिए, तभी हम प्रभु के प्रिय होंगे और तभी प्रभु हमारा वर्धन करेंगे । २. हे (शूर) = हमारे शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! (अरकम्) = न देनेवाले, सारे-का-सारा स्वयं खा जानेवाले, अत्यन्त स्वार्थी (मर्त्यम्) = मनुष्य को आप (यावीः) = अपने से पृथक् कर देते हो । इस (मर्त्यम्) = मनुष्य को तो आप (परिवृणक्षि) = [नक्ष - to kill] नष्ट ही कर देते हो । इस प्रकार के अदानशील व्यक्ति समाज के उत्थान में बड़े विघातक होते हैं । वेद में 'अपाररुं देवयजनाद् वध्यासम्' - इन शब्दों में इन अररु मनुष्यों के सामाजिक बहिष्कार का भी विधान है । राजा को तो इन्हें 'निष्टसा अरातयः' -दण्ड-सन्तस करना ही है । ३. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (तुभ्यम्) = आपके लिए (दिवे) = प्रकाशमय के लिए (तत्) = उस (सप्रथः) = अत्यन्त विस्तारवाले - प्राणिमात्र के कल्याण की भावनावाले (वोचम्) = वचनों का उच्चारण करें । आपसे सर्वहित की प्रार्थना ही करूँ । मेरी प्रार्थना में अल्पता व स्वार्थ न हो । रुद्राय ज्ञानोपदेश के द्वारा दुःखों को दूर करनेवाले आपके लिए (तत्) = उस (सप्रथः) = व्यापक प्रार्थनात्मक वचन बोलें । (स्वयशसे) = हे प्रभो! 'जिन आपकी महिमा किसी और से न होकर अपने से ही है' उन आपके लिए व्यापक वचनों को बोलँ, मित्राय सबके साथ स्नेह करनेवाले, (वरुणाय) = सब द्वेषों का निवारण करनेवाले तथा (सुमृळीकाय) = उत्तम सुखों को देनेवाले के लिए (सप्रथः) = व्यापक प्रार्थनात्मक (वोचम्) = वचनों को बोलूँ । ४. यहाँ 'दिव, रुद्र, स्वयश, मित्र, वरुण व सुमुळीक' इन शब्दों से प्रभु का स्मरण यह प्रेरणा देता है कि [क] हम भी प्रकाशमय जीवनवाले बनें, [ख] औरों के लिए ज्ञान देकर उनके दुःखों को दूर करनेवाले हों, [ग] अपने कर्मों से यशस्वी बनें, [घ] सबके प्रति स्नेहवाले हों, [ङ] किसी से द्वेष न करें, [च] सभी के जीवन को सुखी बनाने के लिए यत्नशील हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम शक्तिशाली बनकर दुः खियों के लिए शरण [shelter] बनें, सदा देनेवाले बनें, स्नेह करें, द्वेष से दूर रहें, तभी हम प्रभु के प्रिय बनेंगे । हमारे कर्म ही हमें प्रभु का प्रिय बना सकते हैं ।

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    विषय

    सभापति, सेनापति, अग्रणी नायक मार्गदर्शी का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् ! हे विद्वन् ! हे शत्रुनाशक सेनापते ! हे (शूर) शूरवीर ! अति शीघ्र कार्य करने हारे, कुशल ! तू (हि) निश्चय से ( दस्मः ) दर्शनीय, सर्वद्रष्टा, अथवा शत्रुओं का नाश करने हारा है । ( चित् त्वचं कं ) जिस प्रकार कोई पुरुष चाम की बनी मशक को जल से भरता है और जिस प्रकार वायु या सूर्य किरणों से खिचे (कं) जल से ( त्वचं ) समस्त पृथिवी को आच्छादन करनेवाले वातावरण को पूर्ण कर देता है और ( वृषणं पिन्वति ) वर्षणशील मेघ को पूर्ण करता और बरसा देता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) राजन् ! सेनापते तू भी ( त्वचं ) आच्छादक देह की त्वचा के समान राज्य की रक्षा करने वाले (वृषणं) सुखों के वर्षक, और बलवान् शत्रुओं पर शर वर्षा करने वाले वीर रक्षक पुरुषों को ( पिन्वसि ) ऐश्वर्य से सेचता है, उनका परित्राण करता है। ( अररूं यावीः ) सूर्य जिस प्रकार व्यापनशील मेघ को छिन्न भिन्न करता है उसी प्रकार हे राजन् ! तू ( अररुम् ) अपने पर आ चढ़ने वाले, फैले हुए, या हिंसक ( भर्त्यं ) मनुष्य को (यावीः) दूरकर और ऐसे बुरे पुरुष को ( परि वृणक्षि ) सब तरफ से हटा । ( उत ) और मैं ( दिवे ) ज्ञान प्रकाश, या प्रजा के कामना करने वाले, ( रुद्राय ) शत्रुओं को रुलाने वाले, एवं सदुपदेश देने वाले, ( मित्राय ) सब के स्नेही, और प्रजा को मरण से बचाने वाले, ( वरुणाय ) सर्व श्रेष्ठ, सब कष्टों के वारक, ( सुमृडीकाय ) उत्तम सुख देने वाले ( स्वयशसे ) अपने ही पराक्रम से यश ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले, ( तुभ्यं ) तेरे ही लिये ( तत् तत् ) मैं वह यह नाना प्रकार के ( सप्रथः ) अति प्रसिद्धि जनक और ( सप्रथः ) अति विस्तृत वचन ( वोचम् ) कहता हूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृदत्यष्टिः । ३ विराडत्यष्टिः । ४ अष्टिः । ६, ११ भुरिगष्टिः । १० निचृष्टि: । ५ भुरिगतिशक्वरी ७ स्वराडतिशक्वरी । ८, ९ स्वराट् शक्वरी । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सर्व माणसांसाठी मित्रत्वाच्या नात्याने सत्याचा उपदेश करतात व धर्माचा स्वीकार करतात ती अत्यंत सुख देणारी असतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of power and wealth, justice and generosity, brave hero of wondrous deeds, you shower the generous and protective man with support and plenty, you strike off the destructive saboteur and root out the corrupt man. Great you are, broad of mind and deep in spirit. I say these profuse words of praise for you, Indra, ruler and leader, light of the nation, dispenser of justice, commanding honour and fame, friend of all, universal choice of hearts, inspirer of peace and bliss, great mind and spirit indeed!

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who are benefactors of the world is told further in third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O brave President of the Assembly, Thou art destroyer of thy foes, and subduer of those wicked persons who cover (annihilate) righteousness. Thou Servest those mortals who are showerers of knowledge and thereby conveyors of delight to all, making them free to do noble deeds. Therefore I free do to noble deeds who get good reputation on account of virtues, praise thee and utter glorifying words to thee that cousest wicked men to weep, glorious and good friend of all, giver of good happiness and desiring welfare of all good people.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वृषणम्) विद्यावर्षकम् = Showerer of knowledge. (अररुम् ) प्रापकम् = Conveyor of happiness and knowledge. (ऋ-गतिप्रापणयोः अत्र प्राप्त्यर्थ ग्रहणम् ) Tr.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons are givers of great delight and joy to all who preach truth to all with friendliness and observe righteousness in their dealings.

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