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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 129 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 129/ मन्त्र 6
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    प्र तद्वो॑चेयं॒ भव्या॒येन्द॑वे॒ हव्यो॒ न य इ॒षवा॒न्मन्म॒ रेज॑ति रक्षो॒हा मन्म॒ रेज॑ति। स्व॒यं सो अ॒स्मदा नि॒दो व॒धैर॑जेत दुर्म॒तिम्। अव॑ स्रवेद॒घशं॑सोऽवत॒रमव॑ क्षु॒द्रमि॑व स्रवेत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । तत् । वो॒चे॒य॒म् । भव्या॑य । इन्द॑वे । हव्यः॑ । न । यः । इ॒षऽवा॑न् । मन्म॑ । रेज॑ति । र॒क्षः॒ऽहा । मन्म॑ । रेज॑ति । स्व॒यम् । सः । अ॒स्मत् । आ । नि॒दः । व॒धैः । अ॒जे॒त॒ । दुःऽम॒तिम् । अव॑ । स्र॒वे॒त् । अ॒घऽशं॑सः । अ॒व॒ऽत॒रम् । अव॑ । क्षु॒द्रम्ऽइ॑व । स्र॒वे॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र तद्वोचेयं भव्यायेन्दवे हव्यो न य इषवान्मन्म रेजति रक्षोहा मन्म रेजति। स्वयं सो अस्मदा निदो वधैरजेत दुर्मतिम्। अव स्रवेदघशंसोऽवतरमव क्षुद्रमिव स्रवेत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। तत्। वोचेयम्। भव्याय। इन्दवे। हव्यः। न। यः। इषऽवान्। मन्म। रेजति। रक्षःऽहा। मन्म। रेजति। स्वयम्। सः। अस्मत्। आ। निदः। वधैः। अजेत। दुःऽमतिम्। अव। स्रवेत्। अघऽशंसः। अवऽतरम्। अव। क्षुद्रम्ऽइव। स्रवेत् ॥ १.१२९.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 129; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    केभ्यो विद्या देयेत्याह ।

    अन्वयः

    अहं स्वयं यथा हव्यो रक्षोहा मन्म रेजति न य इषवान् मन्म रेजति तद्भव्यायेन्दवे प्रवोचेयम्। योऽस्मत् शिक्षां प्राप्य वधैर्निदो दुर्मतिं चाजेत सोऽवतरं क्षुद्रमिवावस्रवेत्। योऽघशंसोवास्रवेत् तं वाढं दण्डयेत् ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (प्र) (तत्) उपदेश्यं ज्ञानम् (वोचेयम्) उपदिशेयम् (भव्याय) यो विद्याग्रहणेच्छुर्भवति तस्मै (इन्दवे) आर्द्राय (हव्यः) होतुमादातुमर्हः (न) इव (यः) (इषवान्) ज्ञानवान् (मन्म) मन्तुं योग्यं ज्ञानम् (रेजति) उपार्जति (रक्षोहा) दुष्टगुणकर्मस्वभावहन्ता (मन्म) ज्ञातुं योग्यम् (रेजति) उपार्जति (स्वयम्) (सः) (अस्मत्) (आ) (निदः) निन्दकान् (वधैः) हननैः (अजेत) प्रक्षिपेत्। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (दुर्मतिम्) दुष्टा चासौ मतिश्च ताम् (अव) वैपरीत्ये (स्रवेत्) गमयेत् (अघशंसः) योऽघं पापं शंसति सः (अवतरम्) अवाङ्मुखम् (अव) (क्षुद्रमिव) यथा क्षुद्राऽऽशयम् (स्रवेत्) दण्डयेत् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। विद्वान् ये शुभगुणकर्मस्वभावा विद्यार्थिनः सन्ति तेभ्यः प्रीत्या विद्याः प्रदद्यात्। निन्दकान् चोरान् निस्सारयेत् स्वयमपि सदा धार्मिकः स्यात् ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    किनके लिये विद्या देनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    मैं (स्वयम्) आप जैसे (हव्यः) स्वीकार करने योग्य (रक्षोहा) दुष्ट गुण, कर्म, स्वभाववालों को मारनेवाला (मन्म) विचार करने योग्य ज्ञान का (रेजति) संग्रह करते हुए के (न) समान (यः) जो (इषवान्) ज्ञानवान् (मन्म) जानने योग्य व्यवहार को (रेजति) संग्रह करता है (तत्) उस उपदेश करने योग्य ज्ञान को (भव्याय) जो विद्याग्रहण की इच्छा करनेवाला होता है उस (इन्दवे) आर्द्र अर्थात् कोमल हृदयवाले के लिये (प्र, वोचेयम्) उत्तमता से कहूँ जो (अस्मत्) हमसे शिक्षा पाकर (वधैः) मारने के उपायों से (निदः) निन्दा करनेहारों और (दुर्मतिम्) दुष्टमतिवाले जन को (अजेत) दूर करे (सः) वह (अवतरम्) अधोमुखी लज्जित मुखवाले पुरुष को (क्षुद्रमिव) तुच्छ आशयवाले के समान (अव, स्रवेत्) उसके स्वभाव से विपरीत दण्ड देवे और (अघशंसः) जो पाप की प्रशंसा करता वह चोर, डाँकू, लम्पट, लबाड़ आदि जन (अव, आ, स्रवेत्) अपने स्वभाव से अच्छे प्रकार उलटी चाल चले ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। अध्यापक विद्वान् जो शुभ गुण, कर्म, स्वभाववाले विद्यार्थी हैं, उनके लिये प्रीति से विद्याओं को देवे और निन्दा करनेहारे चोरों को निकाल देवे और आप भी सदैव धर्मात्मा हो ॥ ६ ॥

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    विषय

    दुर्मति-दूरीकरण

    पदार्थ

    १. (भव्याय) = सर्वत्र भवनशील-सर्वव्यापक (इन्दवे) = [इन्द - to be powerful, इदि परमैश्वर्य] शक्तिशाली व परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (तत्) = उन स्तुतिवचनों को (प्रवोचेम्) = प्रकर्षण उच्चारित करूँ । ये स्तुतिवचन मझे भी 'भव्य व इन्दु' बनने की प्रेरणा देंगे । (हव्यः न) = वे प्रभु तो सदा पुकारने योग्य के समान हैं । जैसे एक छोटा बालक माता-पिता को पुकारता है, उसी प्रकार ये प्रभु हमारे द्वारा आराधना करने के योग्य हैं । आपत्ति आई और हमने प्रभु को पुकारा । (यः) = जो प्रभु (इषवान्) = सदा उत्तम प्रेरणावाले हैं । हम प्रभु को पुकारते हैं और प्रभु हमें मार्ग दिखाते हैं, आपत्ति से ऊपर उठने के लिए उचित प्रेरणा देते हैं । (मन्म रेजति) = उस प्रेरणा से हमारा (इन्द्रः) = ज्ञान गतिमय होता है । वह (मन्म रेजति) = ज्ञान गतिमय होता है जो (रक्षोहा) = हमारी सब राक्षसी वृत्तियों का विध्वंस कर देता है । २. इस प्रकार ज्ञान देता हुआ (सः) = वह प्रभु (स्वयम्) = अपने-आप (अस्मत्) = हमसे (निदः) = निन्दनीय प्रवृत्तियों को तथा (दुर्मतिम्) = अशुभ विकारों को (वधैः) = चिन्तन आदि (हनन) = साधनों से (आ अजेत) = सर्वथा दूर कर दे । ३. इस हमारे समाज में (अघशंसः) = पाप का शंसन करनेवाला (अवतरम्) = बहुत ही नीचे (अवस्त्रवेत्) = टपक पड़े । (क्षुद्रम् इव) = एक अत्यन्त क्षुद्र वस्तु की भाँति (अवस्त्रवेत्) = नीचे-ही-नीचे चला जाए । हमारे समाज में पाप के प्रशंसकों को ऊँचा स्थान प्राप्त न हो । वे क्षुद्र समझे जाएँ, तभी समाज में अबों की कमी होगी, लोग पाप की ओर न झुकेंगे । अघशंसकों को प्रधान स्थान प्रास होने पर मनुष्यों की प्रवृत्ति अघों - पापों की ओर ही जाएगी ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु स्मरण करें, प्रभु हमें प्रेरणा देते हैं, हममें वासना - विनाश के ज्ञान को गतिमय करते हैं । समाज में अपशंसकों को ऊँचा स्थान न दिया जाए । इनको ऊँचा स्थान देने से औरों में भी दुर्मति उत्पन्न होने की आशंका होती है ।

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    विषय

    शूरवीर पुरुष और ऐश्वर्यवान् राजा का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( भव्याय ) चन्द्रमा के समान निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होने वाले ( इन्दवे ) ऐश्वर्यवान्, प्रेम से आर्द्र हृदय वाले उस शिष्य को मैं विद्वान् पुरुष ( तत् ) उत्तम उत्तम ज्ञान का ( वोचेयं ) उपदेश करूं । ( यः ) जो ( हव्यः ) आहुति देने योग्य अग्नि के समान ( हव्यः ) स्वीकार करने योग्य शिष्य बन कर ( इषवान् ) इच्छा वाला होकर ( मन्म रेजति ) ज्ञान को प्राप्त होता है और ( रक्षोहा ) बाधक शत्रुओं को नाश करने वाले वीर पुरुष के समान ( रक्षोहा ) बाधक कारणों को नाश करता हुआ ( मन्म ) मनन करने योग्य ज्ञान, स्तम्भन बल, और ब्रह्मचर्य बल को प्राप्त करता है वह ( स्वयं ) अपने आप अकेले ही ( अस्मत् ) हमारे ( निदः ) निन्दा करने वालों को ( वधैः आ अजेत ) हिंसाकारी उपायों, शस्त्रास्त्रों से शूरवीर पुरुष के समान ही ज्ञान साधनों से ही ( निदः ) निन्दनीय आचार विचारों को ( अजेत ) दूर भगा दे और ( दुर्मतिम् ) दुष्टमति, दुर्बुद्धि, विपरीत मिथ्याज्ञान को ( आ अजेत ) दूर करे । ( अधशंसः ) पापाचार की शिक्षा देने वाला पुरुष ( क्षुद्रम्इव ) जल या क्षुद्र जन के समान ( अव स्रवेत् ) भय से भाग जाता है उसी प्रकार ( अव तरम् अवस्त्रवेत् ) वह नीचे जा गिरे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृदत्यष्टिः । ३ विराडत्यष्टिः । ४ अष्टिः । ६, ११ भुरिगष्टिः । १० निचृष्टि: । ५ भुरिगतिशक्वरी ७ स्वराडतिशक्वरी । ८, ९ स्वराट् शक्वरी । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे शुभ गुण कर्म स्वभावाचे विद्यार्थी असतात. त्यांना अध्यापकांनी प्रेमाने विद्या द्यावी व निंदा करणाऱ्या चोरांना दूर करावे आणि स्वतः सदैव धार्मिक असावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I would speak words of appreciation and sing that song of praise for one who is worthy of reverence, brilliant, and like a divinity worthy of invocation, strong, dynamic and favourable, inspires like soma and shines like the moon, who shines at heart and destroys evil, who by himself, with blows, wards off the evil-tongued and the malicious, and who makes the evil go down the gutter and even lower just like worms of dirt.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    To whom knowledge should be given is taught in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let me impart this worthy knowledge, to a pupil who desires to acquire it and who is kind-hearted. Let me impart it like an acceptable (popular) wise man, who is destroyer of ignoble attributers, acts and temperament and who gives it to others, after collecting it profusely. Let the pupil having acquired this good knowledge keep it away from a scorner and drive away all evil intellect with his destructive force. Far let him flee away who praises wickedness and vanish like a mote of dust. Let him be punished severely.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मन्म) १ मन्तुं योग्यं ज्ञानम् = Knowledge that is to be pondered over or reflected upon well. (मन्म) २ ज्ञातुं योग्यम् = That is worthy of being known well. (अवस्त्रवेत् ) दण्डयेत् = Should punish. (इन्दवे) आर्दाय = Of mild nature or kind hearted.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A scholar should impart the knowledge of all sciences to the pupils who are endowed with good qualities, actions and temperament. Those who are scorners, thieves and given to censuring, should be driven away. The teacher himself should be of righteous nature and spotless character.

    Translator's Notes

    मन्म is from मन ज्ञाने = इन्दु is derived from उन्दी क्लेदने उन्देरिच्चादे: उणादि १.१२ इति उ:प्रत्ययः आदिवर्णस्य इकारादेशश्च ||

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