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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 129 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 129/ मन्त्र 4
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः

    अ॒स्माकं॑ व॒ इन्द्र॑मुश्मसी॒ष्टये॒ सखा॑यं वि॒श्वायुं॑ प्रा॒सहं॒ युजं॒ वाजे॑षु प्रा॒सहं॒ युज॑म्। अ॒स्माकं॒ ब्रह्मो॒तयेऽवा॑ पृ॒त्सुषु॒ कासु॑ चित्। न॒हि त्वा॒ शत्रु॒: स्तर॑ते स्तृ॒णोषि॒ यं विश्वं॒ शत्रुं॑ स्तृ॒णोषि॒ यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्माक॑म् । वः॒ । इन्द्र॑म् । उ॒श्म॒सि॒ । इ॒ष्टये॑ । सखा॑य । वि॒श्वऽआ॑युम् । प्र॒ऽसह॑म् । युज॑म् । वाजे॑षु । प्र॒ऽसह॑म् । युज॑म् । अ॒स्माक॑म् । ब्रह्म॑ । ऊ॒तये॑ । अव॑ । पृ॒त्सुषु॑ । कासु॑ । चि॒त् । न॒हि । त्वा॒ । शत्रुः॑ । स्तर॑ते । स्तृ॒णोषि॑ । यम् । विश्व॑म् । शत्रु॑म् । स्तृ॒णोषि॑ । यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्माकं व इन्द्रमुश्मसीष्टये सखायं विश्वायुं प्रासहं युजं वाजेषु प्रासहं युजम्। अस्माकं ब्रह्मोतयेऽवा पृत्सुषु कासु चित्। नहि त्वा शत्रु: स्तरते स्तृणोषि यं विश्वं शत्रुं स्तृणोषि यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्माकम्। वः। इन्द्रम्। उश्मसि। इष्टये। सखाय। विश्वऽआयुम्। प्रऽसहम्। युजम्। वाजेषु। प्रऽसहम्। युजम्। अस्माकम्। ब्रह्म। ऊतये। अव। पृत्सुषु। कासु। चित्। नहि। त्वा। शत्रुः। स्तरते। स्तृणोषि। यम्। विश्वम्। शत्रुम्। स्तृणोषि। यम् ॥ १.१२९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 129; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः कैः सह किं कर्त्तव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा वयमस्माकं वो युष्माकं चेन्द्रं परमैश्वर्य्ययुक्तं वाजेषु पृत्सुषु कासु चित् प्रासहं युजमिव प्रासहं युजं विश्वायुं सखायमिष्टय उश्मसि तथा यूयमपि कामयध्वम्। हे विद्वन्नस्माकमूतये त्वं ब्रह्माऽव। एवं सति यं विश्वं स्तृणोषि यं च विरोधिनं स्तृणोषि स शत्रुस्त्वा नहि स्तरते ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (अस्माकम्) (वः) युष्माकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (उश्मसि) कामयेमहि (इष्टये) इष्टप्राप्तये (सखायम्) मित्रम् (विश्वायुम्) प्राप्तसमग्रशुभगुणम् (प्रासहम्) प्रकृष्टतया सहनशीलम् (युजम्) योगयुक्तम् (वाजेषु) राजजनैः प्राप्तव्येषु (प्रासहम्) अतीवसोढारम् (युजम्) योक्तारम् (अस्माकम्) (ब्रह्म) वेदम् (ऊतये) रक्षाद्याय (अव) रक्ष। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (पृत्सुषु) संग्रामेषु। पृत्सुरिति संग्रामना०। निघं० २। १७। (कासु) (चित्) (नहि) (त्वा) त्वाम् (शत्रुः) (स्तरते) स्तृणोत्याच्छादयति। अत्र व्यत्ययेन शप्। (स्तृणोषि) आच्छादयसि (यम्) (विश्वम्) समग्रम् (शत्रुम्) विरोधिनम् (स्तृणोषि) आच्छादयसि (यम्) ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यावच्छक्यं तावद्बहुमित्राणि कर्त्तुं प्रयतितव्यम्। परन्तु नाऽधार्मिकाः सखायः कार्य्याः न च दुष्टेषु मित्रता समाचरणीया। एवं सति शत्रूणां बलं नैव वर्द्धते ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को किनके साथ क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (अस्माकम्) हमारे और (वः) तुम्हारे (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्ययुक्त वा (वाजेषु) राज जनों को प्राप्त होने योग्य (पृत्सुषु, कासु, चित्) किन्हीं सेनाओं में (प्रासहम्) उत्तमता से सहनशील (युजम्) और योगाभ्यासयुक्त धर्मात्मा पुरुष के समान (प्रासहम्) अतीव सहने (युजम्) और योग करनेवाले (विश्वायुम्) समग्र शुभ गुणों को पाये हुए (सखायम्) मित्र जन की (इष्टये) चाहे हुए पदार्थ की प्राप्ति के लिये (उश्मसि) कामना करते हैं, वैसे तुम भी कामना करो। हे विद्वान् ! (अस्माकम्) हमारी (ऊतये) रक्षा आदि होने के लिए आप (ब्रह्म) वेद की (अव) रक्षा करो, ऐसे हुए पर (यम्) जिस (विश्वम्) समग्र (शत्रुम्) शत्रुगण को (स्तृणोषि) आच्छादन करते अर्थात् अपने प्रताप से ढाँपते और (यम्) जिस विरोध करनेवाले को (स्तृणोषि) ढाँपते अर्थात् अपने प्रचण्ड प्रताप से रोकते वह (शत्रुः) शत्रु (त्वा) आपको (नहि) नहीं (स्तरते) ढाँपता है ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जितना सामर्थ्य हो सके उतने से बहुत मित्र करने को उत्तम यत्न करें परन्तु अधर्मी दुष्ट जन मित्र न करने चाहिये और न दुष्टों में मित्रपन का आचरण करना चाहिये, ऐसे हुए पर शत्रुओं का बल नहीं बढ़ता है ॥ ४ ॥

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    विषय

    वह अद्भुत मित्र

    पदार्थ

    १. (अस्माकम्) = हमारे और (वः) = तुम्हारे, अर्थात् सभी के (इन्द्रम्) = शत्रु-विद्रावक प्रभु को (इष्टये) = अभिमत फलों की प्राप्ति के लिए अथवा यज्ञों में प्रवृत्ति बनाये रखने के लिए [इष्टि - याग], (उश्मसि) = कामना करते हैं । प्रभु की प्राप्ति हम इसलिए चाहते हैं कि वे प्रभु हमें सब इष्ट वस्तुओं को प्राप्त करानेवाले होंगे और हमें यज्ञ की वृत्तिवाला बनाएंगे । प्रभु स्मरण से हमारी प्रवृत्ति अशुभ की ओर न होकर शुभकर्मों की ओर ही होती है । २. हम उस प्रभु को प्राप्त करना चाहते हैं जो [क] (सखायम्) = हमारे सच्चे मित्र हैं, कभी साथ न छोड़नेवाले सखा हैं, [ख] विश्वायुम् हमारे जीवन को पूर्ण बनानेवाले हैं [विश्व - सम्पूर्ण] ; हमारी शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक उन्नति करनेवाले हैं, [ग] (प्रासहम्) = हमारे शत्रुओं का प्रकर्षेण पराभव करनेवाले हैं, [घ] युज (वाजेषु) = [वाज - Battle, conflict] संग्रामों में सदा साथ देनेवाले हैं, (प्रासह युजम्) = प्रभु वे साथी हैं जो युद्ध में शत्रुओं का मर्षण ही कर डालते हैं । ३. हे प्रभो! (कासुचित् पृत्सुषु) = जिन किन्हीं संग्रामों में (ऊतये) = रक्षण के लिए (अस्माकं ब्रह्म) = हमारे ज्ञान को (अव) = उत्तमता से रक्षित कीजिए । ज्ञान के सुरक्षित होने पर ही हम इन अध्यात्म-संग्रामों में विजयी होंगे । ४. हे प्रभो! ज्ञानस्वरूप होने के कारण ही तो (यं स्तृणोषि) = जिस शत्रु को आप हिंसित करते हो वह (शवः) = शत्रु (त्वा) = आपको (न हि स्तरते) = हिंसित नहीं करता । (विश्वम्) = हमारे न चाहते हुए भी हममें प्रविष्ट हो जानेवाले (यं शत्रुम्) = जिस शत्रु को आप (स्तृणोषि) = नष्ट करते हैं, वह हमारा नाश नहीं कर पाता । जब हम प्रभु को अपने हृदय में आसीन करते हैं तब ये काम - क्रोधादि सब अवाञ्छनीय वृत्तियाँ भस्म ही हो जाती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारे सच्चे मित्र हैं, वे ही हमारे शत्रुओं का संहार करते हैं ।

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    विषय

    शूरवीर पुरुष और ऐश्वर्यवान् राजा का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! हम लोग ( सखायं ) सब के मित्र, (विश्वायुं) समस्त उत्तम गुणों को प्राप्त करने वाले, या दीर्घायु, ( प्रासहं ) उत्तम रीति से शत्रुओं को पराजय करने वाले, ( युजं ) सब के सहायक, ( वाजेषु ) संग्रामों और ऐश्वर्य, ज्ञान, बल के कार्यों में ( प्रासहं ) अति सहनशील और अन्यों को भी लगाने वाले नायक, ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् बलवान् विद्यावान् पुरुष को ( अस्माकं वः ) हमारे अपने और आप सब लोगों के ( इष्टये ) इष्ट सुख लाभ के लिये ( उश्मसि ) हम प्राप्त करना चाहते हैं । हे राजन् ! हे विद्वन् ! तू ( कासु चित् ) कई, अनेकों (पृत्सुषु) संग्रामों में ( अस्माकं ऊतये ) हमारी रक्षा के लिये ( ब्रह्म अव ) विशाल,धन की रक्षा कर । ( चित् ) उसी प्रकार हे विद्वन् ! तू हमारी रक्षा के लिये ( ब्रह्म ) वेद ज्ञान की रक्षा कर और उसका ज्ञान कर । तू ( यं ) जिस ( विश्वं ) सब प्रजाजन को ( स्तृणोषि ) आच्छादित करता है अपनी रक्षा में रखता है और ( यं ) जिस ( शत्रुं ) शातन या उच्छेदन करने योग्य शत्रु को ( स्तृणोषि ) ढक लेता है, अपने आधीन कर लेता या अपने नीचे दबा लेता है, वह ( शत्रुः ) शत्रु फिर ( त्वा नहि स्तृणते ) अपने आधीन नहीं करें और इसी प्रकार हे विद्वन् ! ( यं विश्वं शत्रुः ) जिस अपने अधीन वास करने वाले छात्र को तू अपने अधीन लेता है वह अनुशासन करने योग्य छात्र ( त्वा न स्तृणते ) तुझे दुःखदायी न हो । इति पञ्चदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृदत्यष्टिः । ३ विराडत्यष्टिः । ४ अष्टिः । ६, ११ भुरिगष्टिः । १० निचृष्टि: । ५ भुरिगतिशक्वरी ७ स्वराडतिशक्वरी । ८, ९ स्वराट् शक्वरी । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी जितके सामर्थ्य असेल तितके मित्र बनविण्याचे प्रयत्न करावेत. धर्महीन दुष्ट लोकांशी मैत्री करू नये व दुष्टांशी मित्रत्वाच्या नात्याने वागू नये. असे वागल्याने शत्रूचे बळ वाढत नाही. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For your good and ours, we love and celebrate Indra, friend, the very life breath of the world, patient and courageous, cooperative comrade, daring and victorious in battles, dedicated and meditative on life and Divinity. For our protection, O lord, protect and preserve our knowledge and Veda in all the battles. No enemy can overwhelm you. Whatever adversary you defeat, whatever world you win and cover with justice and protection, no enemy anywhere can overcome you.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do with whom is told in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, as we desire Indra (wealthy Commander of the army or the President of the Assembly) to be present at our Yajnas and in the battlefields as he is our friend and your friend, is endowed with all noble qualities, the subduer of enemies, is a Yogi ( man of self control) for the fulfilment of our noble desires, so you should also do. Do thou O learned Indra, guard or preserve our Vedic knowledge, for mayest engage, no our protection in whatever contest thou m enemy whom thou opposest, prevails against thee, thou prevailest over every one whom thou opposest.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विश्वायुम्) प्राप्तसमग्रशुभगुणम् = Endowed with all noble qualities. आयु is from अय-गतौ अत्र प्राप्त्यर्थ ग्रहणम् (युजम्) १ योगयुक्तम् = Practiser of Yoga योक्तारम् = Unifier. (पृत्सु) संग्रामेषु पृत्सुरिति संग्रामनाम (निघ० २.१७ )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should try to get many friends according to the best of their ability: But un-righteous and wicked persons should not be made friends. By so doing, the power of wicked enemies does not increase.

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