ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 139/ मन्त्र 10
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - निचृदत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
होता॑ यक्षद्व॒निनो॑ वन्त॒ वार्यं॒ बृह॒स्पति॑र्यजति वे॒न उ॒क्षभि॑: पुरु॒वारे॑भिरु॒क्षभि॑:। ज॒गृ॒भ्मा दू॒र आ॑दिशं॒ श्लोक॒मद्रे॒रध॒ त्मना॑। अधा॑रयदर॒रिन्दा॑नि सु॒क्रतु॑: पु॒रू सद्मा॑नि सु॒क्रतु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑ । य॒क्ष॒त् । व॒निनः॑ । व॒न्त॒ । वार्य॑म् । बृह॒स्पतिः॑ । य॒ज॒ति॒ । वे॒नः । उ॒क्षऽभिः॑ । पु॒रु॒ऽवारे॑भिः । उ॒क्षऽभिः॑ । ज॒गृ॒म्भ । दू॒रेऽआ॑दिशम् । श्लोक॑म् । अद्रेः॑ । अध॑ । त्मना॑ । अधा॑रयत् । अ॒रि॒रिन्दा॑नि । सु॒ऽक्रतुः॑ । पु॒रु । सद्मा॑नि । सु॒ऽक्रतुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
होता यक्षद्वनिनो वन्त वार्यं बृहस्पतिर्यजति वेन उक्षभि: पुरुवारेभिरुक्षभि:। जगृभ्मा दूर आदिशं श्लोकमद्रेरध त्मना। अधारयदररिन्दानि सुक्रतु: पुरू सद्मानि सुक्रतु: ॥
स्वर रहित पद पाठहोता। यक्षत्। वनिनः। वन्त। वार्यम्। बृहस्पतिः। यजति। वेनः। उक्षऽभिः। पुरुऽवारेभिः। उक्षऽभिः। जगृभ्म। दूरेऽआदिशम्। श्लोकम्। अद्रेः। अध। त्मना। अधारयत्। अररिन्दानि। सुऽक्रतुः। पुरु। सद्मानि। सुऽक्रतुः ॥ १.१३९.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 139; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
होता पुरुवारेभिरुक्षभिर्यद्वार्य्यं यक्षत् पुरुवारेभिरुक्षभिस्सह वर्त्तमानो वेनो बृहस्पतिर्यद्वार्य्यं यजति सुक्रतुस्त्मना यानि पुरु सद्मान्यधारयत्सुक्रतुरद्वेरररिन्दानीव दूरआदिशं श्लोकमधारयत् तत्सर्वं वनिनो वन्ताऽधैतत्सर्वं वयमपि जगृभ्म ॥ १० ॥
पदार्थः
(होता) गृहीता (यक्षत्) यजेत् (वनिनः) वनानि प्रशस्तविद्यारश्मयो विद्यन्ते येषां ते (वन्त) संभजत। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (वार्यम्) वर्त्तुमर्हम् (बृहस्पतिः) बृहत्या वाचः पालकः (यजति) यजेत्। लेट्प्रयोगोऽयम्। (वेनः) कामयमानः (उक्षभिः) महद्भिः। उक्षेति महन्ना०। निघं० ३। ३। (पुरुवारेभिः) पुरवो बहवो वारा वरितव्या गुणा येषां तैः (उक्षभिः) महद्भिरिव (जगृभ्म) गृह्णीयाम। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (दूर आदिशम्) दूरे य आदिश्यते तम् (श्लोकम्) वाचम् (अद्रेः) मेघात् (अध) अथ (त्मना) आत्मना (अधारयत्) धारयेत् (अररिन्दानि) उदकानि। अररिन्दानीत्युदकना०। निघं० १। १२। (सुक्रतुः) शोभनप्रज्ञः (पुरु) बहूनि (सद्मानि) प्राप्तव्यानि (सुक्रतुः) शोभनकर्मा ॥ १० ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मेघाच्च्युतानि जलानि सर्वान् प्राण्यप्राणिनो जीवयन्ति तथा वेदादिविद्यानामध्यापकाऽध्येतृभ्यः प्राप्ता विद्याः सर्वान्मनुष्यान् वर्धयन्ति यथा महद्भिराप्तैः सह संप्रयोगेण सज्जना वेदितव्यं विदन्ति तथा विद्यासंप्रयोगेण मनुष्या कमनीयं प्राप्नुवन्ति ॥ १० ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(होता) सद्गुणों का ग्रहण करनेवाला जन (पुरुवारेभिः) जिनके स्वीकार करने योग्य गुण हैं उन (उक्षभिः) महात्माजनों के साथ जिस (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य जन का (यक्षत्) सङ्ग कर वा जिनके स्वीकार करने योग्य गुण उन (उक्षभिः) महात्माजनों के साथ वर्त्तमान (वेनः) कामना करने और (बृहस्पतिः) बड़ी वाणी की पालना करनेवाला विद्वान् जिस स्वीकार करने योग्य का (यजति) सङ्ग करता है (सुक्रतुः) सुन्दर बुद्धिवाला जन (त्मना) आपसे जिन (पुरु) बहुत (सद्मानि) प्राप्त होने योग्य पदार्थों को (अधारयत्) धारण करावे वा (सुक्रतुः) उत्तम काम करनेवाला जन (अद्रेः) मेघ से (अररिन्दानि) जलों को जैसे वैसे (दूर आदिशम्) दूर में जो कहा जाय उस विषय और (श्लोकम्) वाणी को धारण करावे उस सबको (वनिनः) प्रशंसनीय विद्या किरणें जिनके विद्यामान हैं वे सज्जन (वन्त) अच्छे प्रकार सेवें, (अध) इसके अनन्तर इस उक्त समस्त विषय को हम लोग भी (जगृभ्म) ग्रहण करें ॥ १० ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मेघ से छुटे हुए जल समस्त प्राणी-अप्राणियों अर्थात् ज़ड़-चेतनों को जिलाते उनकी पालना करते हैं, वैसे वेदादि विद्याओं के पढ़ाने-पढ़नेवालों से प्राप्त हुई विद्या सब मनुष्यों को वृद्धि देती हैं और जैसे महात्मा शास्त्रवेत्ता विद्वानों के साथ सम्बन्ध से सज्जन लोग जानने योग्य विषय को जानते हैं, वैसे विद्या के उत्तम सम्बन्ध से मनुष्य चाहे हुए विषय को प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥
विषय
उन्नति-पथ
पदार्थ
१. गतमन्त्र में कहा था कि हमारा भी देवों के साथ सम्बन्ध हो। वह सम्बन्ध कैसे हो ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि-[क] (होता यक्षत्) = यह दानपूर्वक अदन करनेवाला बनकर यज्ञशील होता है, [ख] (वनिनः) = सम्भजन एवं उपासन करनेवाले बनकर ये (वार्यं वन्त) = वरणीय वस्तुओं का सेवन करते हैं, [ग] (बृहस्पतिः) = ऊँचे से ऊँचे ज्ञान का पति बनकर (यजति) = यह ज्ञान का दान करता है, [घ] (वेनः) = प्रभुप्राप्ति की कामनावाला होता हुआ (उक्षभिः) = शरीर को शक्ति से सिक्त करनेवाले रेतः कणों से [यजति] अपना संगतिकरण करता है। (पुरुवारेभिः उक्षभि:) = खूब वरणीय इन रेतः कणों से अपने को संगत करता है। २. (अध) = अब (त्मना) = स्वयं (अद्रेः) = उपासक के दूरे (आदिशम्) = [दूरदेश आदेशः 'श्रवणं' यस्य - सा०] दूर-दूर तक सुन पड़नेवाले (श्लोकम्) = स्तोत्र को जगृभ्म हम ग्रहण करते हैं, अर्थात् प्रभु के उपासक बनकर उच्च स्वर से प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं। ३. इस प्रकार प्रभुस्तवन को अपनाने से (सुक्रतुः) = यह शोभन कर्मोंवाला पुरुष अररिन्दानि जलों, अर्थात् रेतः कणों को (अधारयत्) = अपने में धारण करता है। इन रेतःकणों के धारण से यह (सुक्रतुः) = शोभनकर्मा पुरुष (सद्मानि) = इन शरीरगृहों को (पुरु) = खूब ही धारण करता है।
भावार्थ
भावार्थ - उन्नत जीवन यही है कि हम (क) होता बनें, (ख) वरणीय वस्तुओं का वरण करें (ग) उच्च ज्ञान को प्राप्त करें, (घ) रेतः कणों का रक्षण करें, (ङ) प्रभु की उपासना द्वारा इन रेतः कणों को शरीर में ही सुरक्षित करें, (च) इनके रक्षण द्वारा शरीरों का ठीक से रक्षण करनेवाले बनें। शरीरों में रोग न हो, मन में राग न हो।
विषय
सूर्य, मेघ दृष्टान्त से, विद्या धनादि देने लेने वाले के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( होता वार्यं यक्षत् वनिनः वार्यं वन्त ) जिस प्रकार रसों के ग्रहण करनेवाला सूर्य जल को प्रदान करता और मेघ जल को ग्रहण कर लेते हैं और जलप्रद मेघ जल को प्रदान करता है और ( वनिनः ) वनयुक्त भूप्रदेश उस जल को ग्रहण कर लेते हैं । और ( होता ) दाता जिस प्रकार धन को प्रदान करता और ( वनिनः ) धनाभिलाषी उस श्रेष्ठ धन को ग्रहण कर लेते हैं उसी प्रकार ( होता ) सब ज्ञानों, ऐश्वर्यौ और अधिकारों को धारण करने और योग्य पुरुषों को देने हारा पुरुष ( वार्यम् ) वरण करने योग्य श्रेष्ठ ज्ञान ऐश्वर्य और पदाधिकार प्रदान करे । ( वनिनः ) वन अर्थात् उत्तम विद्यावान् और उत्तम अभिलाषी पुरुष उस ( वार्यं ) वरण करने योग्य ऐश्वर्य आदि पद को ( वन्त ) ग्रहण करें । ( वेनः ) कान्तिमान् तेजस्वी सूर्य जिस प्रकार (पुरुवारेभिः) प्रजा जनों से वरण करने योग्य ( उक्षभिः ) मेघों से ( वार्यं यजति ) जल को सर्वत्र प्रदान करता है उसी प्रकार ( बृहस्पतिः ) वेद वाणी और बृहती भूमि अर्थात् महान् राष्ट्र का पालक (वेनः) तेजस्वी और मेधावी राजा भी ( पुरुवारेभिः ) बहुत से प्रजाजनों से वरण किये जाने वाले, सह सम्मति से चुने गये, ( उक्षभिः ) कार्य भार को अपने कन्धों पर उठा कर राज्य कार्यों के चलाने वाले, धुरन्धर पुरुषों और ( उक्षभिः ) सेघों के समान सुखों के वर्षक पुरुषों द्वारा ( वार्यं ) श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्रदान करे । इसी प्रकार ( वेनः ) विद्वान् आचार्य ( पुरुवारेभिः ) पुरु अर्थात इन्द्रियों को विषयों से वारण करके रखने वाले, जितेन्द्रिय और ( उक्षभिः ) वृषभ के समान हृष्ट पुष्ट और ( उक्षभिः ) वीर्य सेचन में समर्थ वा ज्ञान वर्षणकारी नरपुंगवों से ( वार्यं ) वीर्यादि निषेक तथा प्रजाओं में श्रेष्ठ ज्ञान का ( यजति ) प्रदान करावे । ( अद्रेः दूर आदिशं श्लोकम् ) मेघ के दूर से ही सुनने योग्य शब्द को जिस प्रकार हम लोग ( जगृम्भ ) दूर से ही सुन लेते हैं उसी प्रकार ( अद्रेः ) अखण्ड, तपस्वी, गुरु, और निर्भय, बलवान् अचल राजा के ( दूरे आदिशम् ) दूर से ही सुनाई देने वाले ( श्लोकम् ) वाणी, आज्ञा और घोषणा को ( जगृभ्म ) ग्रहण करें । वह विद्वान् और तेजस्वी पुरुष ( सुक्रतुः ) उत्तम कर्मकुशल और उत्तम प्रज्ञावान् और उत्तम कर्मकर्त्ता पुरुषों का स्वामी होकर ( त्मना ) अपने आत्म सामर्थ्य से ही ( अररिन्दानि ) जलों को मेघ के समान ( अररिन्दानि ) ‘अररि’ न देने वाले अर्थात् अराति, शत्रुओं को दमन करने और नाश करने वाले साधनों और गमानागमन के साधक रथों को और सैन्यों को (अधारयत्) धारण करे। और वही ( सुक्रतुः ) उत्तम प्रजावान् पुरुष ( पुरु सद्मानि ) बहुत से आश्रय गृहों, भवनों और पदाधिकारों को भी ( त्मना अधारयत् ) अपने सामर्थ्य से धारण करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषिः । देवता—१ विश्वे देवाः । २ मित्रावरुणौ । ३—५ अश्विनौ । ६ इन्द्रः । ७ अग्निः । ८ मरुतः । ६ इन्द्राग्नी । १० बृहस्पतिः । ११ विश्वे देवाः॥ छन्दः–१, १० निचृदष्टिः । २, ३ विराडष्टिः । ६ अष्टिः । = स्वराडत्यष्टिः । ४, ६ भुरिगत्यष्टिः । ७ अत्यष्टिः । ५ निचृद् बृहती । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे मेघातून खाली आलेले जल संपूर्ण प्राणी अप्राणी अर्थात् जड चेतनाला जीवन देते. तसे वेद इत्यादी विद्येचे अध्ययन अध्यापन करणाऱ्यांकडून प्राप्त झालेली विद्या सर्व माणसांना वृद्धिंगत करते. जसे महान विद्वानांच्या संगतीने सज्जन लोक जाणण्यायोग्य विषय जाणतात तसे विद्येच्या संगतीने माणसे इच्छित विषय प्राप्त करू शकतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the performer of yajna offer oblations in honour of the divinities of nature and humanity. Let the brilliant man of knowledge honour and serve the virtuous man worthy of choice. Let Brhaspati, scholar of knowledge and master of the speech of knowledge, loving and kind, associate with generous and virtuous people and, with all these noble sacrificing people, engage in yajna, socially creative work. Let us all, with equal mind and soul, hear and internalise what words of truth are spoken even far away as we enjoy the sound of soma stones and the soothing showers of clouds. Let the man of holy intelligence and action enjoy the showers of peace, prosperity and joy, and may the man of noble yajna enjoy many many homes and havens of his choice.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Glory to Brihaspati-deity of speech.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A virtuous man performs Yajna in the company of his like persons. He promotes the right type of Vedic speech in the company of great men dedicated to the welfare of all, and thus performs his Yajna. Such an intellectual man always pursues to the last with his own efforts and achieves the desirable. Like rain waters from the clouds, such a man attracts many with his power of speech, even if his audiences are at distance. Likewise, men of intellect and wisdom act faithfully.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Like rain water, the knowledge of various sciences learnt from the Veda teachers enables man to progress.
Translator's Notes
(उक्षभिः) महभ्दि:। उक्षेति महन्नाम् (NG 3.3 ) = With great men. (अद्रे:) मेघात् – From the clouds ( अररिन्दानि ) उदकानि - Waters. ( सुऋतु:) १. शोभनप्रज्ञः २. शोभनकर्मा – Man of good intellect and noble deeds.
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