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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 139 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 139/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराडत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    यद्ध॒ त्यन्मि॑त्रावरुणावृ॒तादध्या॑द॒दाथे॒ अनृ॑तं॒ स्वेन॑ म॒न्युना॒ दक्ष॑स्य॒ स्वेन॑ म॒न्युना॑। यु॒वोरि॒त्थाधि॒ सद्म॒स्वप॑श्याम हिर॒ण्यय॑म्। धी॒भिश्च॒न मन॑सा॒ स्वेभि॑र॒क्षभि॒: सोम॑स्य॒ स्वेभि॑र॒क्षभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ह॒ । त्यत् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । ऋ॒तात् । अधि॑ । आ॒द॒दाथे॒ इत्या॑ऽद॒दाथे॑ । अनृ॑तम् । स्वेन॑ । म॒न्युना॑ । दक्ष॑स्य । स्वेन॑ । म॒न्युना॑ । यु॒वोः । इ॒त्था । अधि॑ । सद्म॑ऽसु । अप॑श्याम । हि॒र॒ण्यय॑म् । धी॒भिः । च॒न । मन॑सा । स्वेभिः॑ । अ॒क्षऽभिः॑ । सोम॑स्य । स्वेभिः॑ । अ॒क्षऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्ध त्यन्मित्रावरुणावृतादध्याददाथे अनृतं स्वेन मन्युना दक्षस्य स्वेन मन्युना। युवोरित्थाधि सद्मस्वपश्याम हिरण्ययम्। धीभिश्चन मनसा स्वेभिरक्षभि: सोमस्य स्वेभिरक्षभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ह। त्यत्। मित्रावरुणौ। ऋतात्। अधि। आददाथे इत्याऽददाथे। अनृतम्। स्वेन। मन्युना। दक्षस्य। स्वेन। मन्युना। युवोः। इत्था। अधि। सद्मऽसु। अपश्याम। हिरण्ययम्। धीभिः। चन। मनसा। स्वेभिः। अक्षऽभिः। सोमस्य। स्वेभिः। अक्षऽभिः ॥ १.१३९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 139; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मित्रावरुणौ सद्मसु मनसा धीभिः सोमस्य स्वेभिरक्षभिरिव स्वेभिरक्षभिः सह वर्त्तमाना वयं युवोः सद्मसु हिरण्ययमध्यपश्याम चनापि यत्सत्यं त्यद्ध ऋताद्गृह्णीयाम्। स्वेन मन्युना दक्षस्य ग्रहणेनाऽनृतं त्यजेम युवामपि स्वेन मन्युना त्यजेतं यथा युवामृतात्सत्यमध्याददाथे इत्था वयमप्यध्याददेमहि ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (यत्) (ह) (त्यत्) अदः (मित्रावरुणौ) प्राणोदानवद्वर्त्तमानौ (ऋतात्) सत्याद्धर्म्याद्व्यवहारात् (अधि) (आददाथे) (अनृतम्) मिथ्याव्यवहारम् (स्वेन) स्वकीयेन (मन्युना) (दक्षस्य) बलस्य (स्वेन) स्वात्मभावेन (मन्युना) क्रोधेन (युवोः) युवयोः (इत्था) अनेन प्रकारेण (अधि) (सद्मसु) गृहेषु (अपश्याम) संप्रेक्षेमहि (हिरण्ययम्) हिरण्यप्रभूतं धनम् (धीभिः) कर्मभिः (चन) अपि (मनसा) प्रज्ञया (स्वेभिः) स्वकीयैः (अक्षभिः) इन्द्रियैः (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (स्वेभिः) स्वकीयैः प्रज्ञानैः (अक्षभिः) प्राणैः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सत्यग्रहणमसत्यत्यागं च कृत्वा स्वपुरुषार्थेन पूर्णे बलैश्वर्ये विधाय स्वमन्तःकरणं स्वानीन्द्रियाणि च सत्ये कर्मणि प्रवर्त्तनीयानि ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मित्रावरुणौ) प्राण और उदान के समान वर्त्तमान सभासेनाधीश पुरुषो ! (सद्मसु) घरों में (मनसा) उत्तम बुद्धि के साथ (धीभिः) कामों से (सोमस्य) ऐश्वर्य्य के (स्वेभिः) निज उत्तमोत्तम ज्ञान वा (अक्षभिः) प्राणों के समान (स्वेभिः) अपनी (अक्षभिः) इन्द्रियों के साथ वर्त्ताव रखते हुए हम लोग (युवोः) तुम्हारे घरों में (हिरण्ययम्) सुवर्णमय धन को (अधि, अपश्याम) अधिकता से देखें (चन) और भी (यत्) जो सत्य है, (त्यत् ह) उसीको (ऋतात्) सत्य जो धर्म के अनुकूल व्यवहार उससे ग्रहण करें, (स्वेन) अपने (मन्युना) क्रोध व्यवहार से (दक्षस्य) बल के साथ (अनृतम्) मिथ्या व्यवहार को छोड़ें, तुम भी (स्वेन) अपने (मन्युना) क्रोधरूपी व्यवहार से मिथ्या व्यवहार को छोड़ो। जैसे आप सत्य व्यवहार से सत्य (अभि, आ ददाथे) अधिकता से ग्रहण करो (इत्था) इस प्रकार हम लोग भी ग्रहण करें ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को सत्य ग्रहण और असत्य का त्याग कर अपने पुरषार्थ से पूरा बल और ऐश्वर्य्य सिद्ध कर अपना अन्तःकरण और अपने इन्द्रियों को सत्य काम में प्रवृत्त करना चाहिये ॥ २ ॥

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    विषय

    प्रभु के ज्योतिर्मय रूप का दर्शन

    पदार्थ

    १. हे (मित्रावरुणौ) = स्नेह व निर्देषता की भावनाओ! (मित्र - स्नेह, वरुण द्वेष निवारण) (यत्) = जब (ह) = निश्चय से (त्यत् अनृतम्) = उस अमृत को (ऋतात्) = ऋत में से (अधि आ ददाथे) = निकाल लेते हो, अर्थात् जब हमारे जीवनों में अनृत का अंश नहीं रहता तब (इत्था) = उस प्रकार जीवन के ऋतमय बनने पर (युवोः) = आपके (सद्मसु) = इन शरीररूप गृहों में (स्वेन मन्युना) = अपने ज्ञान से-आत्मज्ञान से (दक्षस्य) = दक्ष (कुशल) पुरुष के (स्वेन मन्युना) = आत्म-सम्बन्धी ज्ञान से (हिरण्यम्) = प्रभु के ज्योतिर्मय रूप को अपश्याम देखें। द्वेष से दूर होकर स्नेह को अपनाने से हृदय पवित्र होता है, अनृत नष्ट होकर जीवन में ऋत की दीप्ति होती है। इस समय आत्मज्ञान की ओर झुकाववाला यह व्यक्ति प्रभु के ज्योतिर्मय रूप को देखता है। इस रूप को वह (धीभिः चन) = निश्चय से बुद्धियों के द्वारा देखता है [दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः], मनसा मन के द्वारा प्रभु के इस ज्योतिर्मय रूप को देखता है [मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु], (स्वेभिः अक्षभिः) = अपनी इन्द्रियों से आत्मतत्त्व की ओर झुकी हुई इन्द्रियों से (सोमस्य) = सौम्य स्वभाववाले पुरुष की (स्वेभिः अक्षभिः) = आत्मप्रवण इन्द्रियों से उस रूप का आभास मिलता है । इन्द्रियाँ जब विषयप्रवण न होकर आत्मप्रवण होती हैं, उस समय ये इन्द्रियाँ सृष्टि में प्रभु की विभूतियों का दर्शन करती हैं, उस समय वासनाशून्य मन प्रभुप्राप्ति की प्रबल कामनावाला होता है और बुद्धि अपनी तीव्र आलोचना से प्रभु का साक्षात्कार करनेवाली होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ-स्नेह व निर्देषता के अभ्यास से यदि हम जीवन को ऋतमय बनाएँगे तो बुद्धि, मन व इन्द्रियों से प्रभु के ज्योतिर्मय रूप को देख पाएँगे।

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    विषय

    मित्र वरुण का सत्यासत्य विवेक, न्याय का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( मित्रावरुणौ ) मित्र और वरुण ! स्नेहवान् और पाप दुःखनिवारक जनो ! जिस प्रकार सूर्य और चन्द्र दोनों ( ऋतात् अधि अनृतं आ ददाथे ) जलमय पदार्थ से जल से भिन्न रूप वाष्प को भी ग्रहण कर लेते हैं और जिस प्रकार सूर्य चन्द्र ( ऋतात् अनृतम् अधि आ ददाथे ) तेजोमय प्रकाश से भी अतिरिक्त अप्रकाशमय छाया को उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार हे ( मित्रावरुणौ ) मित्र और वरुण ! देह में प्राण और उदान के समान राष्ट्र में जीवन देने और रोगों के समान के दुष्टों और संकटों के वारण करने हारे उत्तम पुरुषों ! आप लोग भी ( ऋतात् अधि ) सत्य से ( अनृतम् ) असत्य को ( स्वेन ) अपने ( मन्युना ) ज्ञान बल से पृथक् करके ( अधि आददाथे ) सर्वोपरि न्याय वितरण किया करो। और हम भी ( युवोः सद्भसु ) आप दोनों के न्याय भवनों में ( दक्षस्य ) ज्ञानवान् आत्मा के ( स्वेन मन्युना ) अपने मननशीलचित्त से और ( धीभिः ) उत्तम प्रज्ञाओं से ( चन ) और ( मनसा ) मन से और ( स्वेभिः अक्षभिः ) अपनी इन्द्रियों या नियुक्त पुरुषों से और ( सोमस्य ) राष्ट्रपति के ( स्वेभिः अक्षभिः ) अपने अध्यक्षों द्वारा भी ( हिरण्यम् ) प्रजा के हितकारी और रमणीय सुखकारी, व्यवहार को ही ( अधि अपश्याम ) सदा अच्छी प्रकार देखा करें और सत्य से असत्य का विवेक किया करें। सब व्यवहारों पर विचार करने के लिये प्रजापक्ष के निज कुछ व्यक्ति हों और कुछ राजपक्ष के अपने अध्यक्ष या नियत पुरुष । उनकी समितियां सभा भवनों में सब कार्यों पर विचार करें । वे सभापति और सेनापति के कार्यों को देख कर सत्य से भिन्न असत्य का विवेक किया करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः । देवता—१ विश्वे देवाः । २ मित्रावरुणौ । ३—५ अश्विनौ । ६ इन्द्रः । ७ अग्निः । ८ मरुतः । ६ इन्द्राग्नी । १० बृहस्पतिः । ११ विश्वे देवाः॥ छन्दः–१, १० निचृदष्टिः । २, ३ विराडष्टिः । ६ अष्टिः । = स्वराडत्यष्टिः । ४, ६ भुरिगत्यष्टिः । ७ अत्यष्टिः । ५ निचृद् बृहती । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सत्याचे ग्रहण व असत्याचा त्याग करून आपल्या पुरुषार्थाने पूर्ण बल व ऐश्वर्य सिद्ध करून आपले अंतःकरण व आपली इंद्रिये यांना सत्य कर्मात प्रवृत्त केले पाहिजे ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, whatever you win and achieve by virtue of your love of goodness and dedication to Truth over untruth with your own valour and passion and with the expert’s own action and passion, we see over and above everything, the same way, shining like gold everywhere in your own homes, and we pray we too may win and achieve the same lustre of truth over untruth by virtue of our understanding, thought and vision and the imagination of Soma, lord lover of peace and beauty.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The COUPLE of MITRA and VARUNA are Adored.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly and the Commander-in-Chief of the Army! you are like the Prana and Udana. You are endowed with intellect and good actions and with powerful senses and breathing power. You are aware of richness and prosperity of the means, of acquiring wealth of all kinds; let us have it in our and your homes. Let us distinguish between truthful and bad conduct and accept only crystal truth Let us ward off entirely the falsehood and give it up like you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should concentrate their mind and their senses in truthful acts. Let them always accept truth and give up untruth and acquire strength and wealth by their own efforts.

    Foot Notes

    (मित्रावरुणौं) प्राणोदानाविव वर्तमानौ ( सभासेनाध्यक्षौ )- Acting like the Prana and Udana-The President of the Assembly and the Commander-in-Chief of the army. (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य - Of wealth.

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