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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 139 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 139/ मन्त्र 4
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    अचे॑ति दस्रा॒ व्यू१॒॑नाक॑मृण्वथो यु॒ञ्जते॑ वां रथ॒युजो॒ दिवि॑ष्टिष्वध्व॒स्मानो॒ दिवि॑ष्टिषु। अधि॑ वां॒ स्थाम॑ ब॒न्धुरे॒ रथे॑ दस्रा हिर॒ण्यये॑। प॒थेव॒ यन्ता॑वनु॒शास॑ता॒ रजोऽञ्ज॑सा॒ शास॑ता॒ रज॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अचे॑ति । द॒स्रा॒ । वि । ऊँ॒ इति॑ । नाक॑म् । ऋ॒ण्व॒थः॒ । यु॒ञ्जते॑ । वा॒म् । र॒थ॒ऽयुजः॑ । दिवि॑ष्टिशु । अ॒ध्व॒स्मानः॑ । दिवि॑ष्टिषु । अधि॑ । वा॒म् । स्थाम॑ । व॒न्धुरे॑ । रथे॑ । द॒स्रा॒ । हि॒र॒ण्यये॑ । प॒थाऽइ॑व । यन्तौ॑ । अ॒नु॒ऽशास॑ता । रजः॑ । अञ्ज॑सा । सास॑ता । रजः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अचेति दस्रा व्यू१नाकमृण्वथो युञ्जते वां रथयुजो दिविष्टिष्वध्वस्मानो दिविष्टिषु। अधि वां स्थाम बन्धुरे रथे दस्रा हिरण्यये। पथेव यन्तावनुशासता रजोऽञ्जसा शासता रज: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अचेति। दस्रा। वि। ऊँ इति। नाकम्। ऋण्वथः। युञ्जते। वाम्। रथऽयुजः। दिविष्टिषु। अध्वस्मानः। दिविष्टिषु। अधि। वाम्। स्थाम। बन्धुरे। रथे। दस्रा। हिरण्यये। पथाऽइव। यन्तौ। अनुऽशासता। रजः। अञ्जसा। शासता। रजः ॥ १.१३९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 139; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे दस्रा युवां यं नाक व्यृण्वथो दिविष्टिषु वां रथयुजो दिविष्टिष्वध्वस्मानो रथं युञ्जते सोऽचेत्यतउ हे दस्रा रजोऽनुशासताऽञ्जसा रजः शासता पथेव यन्तौ वां हिरण्यये बन्धुरे रथे वयमधिष्ठाम ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (अचेति) संज्ञायते (दस्रा) (वि) (उ) (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (ऋण्वथः) (युञ्जते) (वाम्) युवयोः (रथयुजः) ये रथं युञ्जते ते (दिविष्टिषु) आकाशमार्गेषु (अध्वस्मानः) ये नाधः पतन्ति। ध्वसु, अधः पतने। (दिविष्टिषु) दिव्येषु व्यवहारेषु (अधि) (वाम्) युवयोः (स्थाम) तिष्ठेम (बन्धुरे) दृढबन्धनयुक्ते (रथे) (दस्रा) (हिरण्यये) प्रभूतसुवर्णमये (पथेव) यथा मार्गेण (यन्तौ) गमयन्तौ (अनुशासता) अनुशासितारौ (रजः) लोकम् (अञ्जसा) शीघ्रम् (शासता) (रजः) ऐश्वर्यम् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वांसं प्राप्य शिल्पविद्यामधीत्य विमानं यानं निर्मायाऽन्तरिक्षं गच्छन्ति ते सुखमाप्नुवन्ति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (दस्रा) दुःख दूर करनेहारे विद्वानो ! आप जिस (नाकम्) दुःखरहित व्यवहार को (व्यृण्वथः) प्राप्त कराते हो तथा (दिविष्टिषु) आकाश मार्गों में (वाम्) तुम्हारे (रथयुजः) रथों को युक्त करनेवाले अग्नि आदि पदार्थ वा (दिविष्टिषु) दिव्य व्यवहारों में (अध्वस्मानः) न नीच दशा में गिरनेवाले जन (युञ्जते) रथ को युक्त करते हैं सो (अचेति) ज्ञान होता है जाना जाता है, इससे (उ) ही हे (दस्रा) दुःख दूर करने (रजः) लोक को (अनुशासता) अनुकूल शिक्षा देने (अञ्जसा) साक्षात् (रजः) ऐश्वर्य्य की (शासता) शिक्षा देने (पथेव) जैसे मार्ग से वैसे आकाशमार्ग में (यन्तौ) चलानेहारो (वाम्) तुम्हारे (हिरण्यये) सुवर्णमये (बन्धुरे) दृढ़ बन्धनों से युक्त (रथे) विमान आदि रथ में हम लोग (अधि, ष्ठाम) अधिष्ठित हों, बैठें ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वानों को प्राप्त हो शिल्प विद्या पढ़ और विमानादि रथ को सिद्ध कर अन्तरिक्ष में जाते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    प्राणसाधना से स्वर्ग का निर्माण

    पदार्थ

    १. हे (दस्त्रा) = सब दोषों का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो! आपकी महिमा (अचेति) = हमारे द्वारा जानी जाती है। आप (उ) = निश्चय से (नाकम्) = सुखमय लोक को (ऋण्वथः) = विशेषरूप से जाते हो। आपकी साधना से मनुष्य सब दोषों को दूर करके शरीर को नीरोग, मन को निर्मल और बुद्धि को तीव्र बना पाता है। इस प्रकार शरीर, मन व बुद्धि तीनों क्षेत्रों में उन्नति करके यह साधक अपने जीवन को स्वर्गोपम बना लेता है। २. इस दृष्टिकोण से (रथयुज:) = शरीररूप रथ में इन्द्रियाश्वों को जोतनेवाले (अध्वस्मानः) = अपनी शक्तियों का ध्वंस न होने देनेवाले लोग (दिविष्टिषु) = [दिव् इष्टि] स्वर्ग की प्राप्ति के निमित्त अथवा ज्ञानयज्ञों के निमित्त (वाम्) = आपको (दिविष्टिषु) = सुखप्राप्ति के लिए युञ्जते इस शरीररथ में जोतते हैं। आपके द्वारा ही वे इस शरीररथ से स्वर्ग को प्राप्त कर सकेंगे। आपके द्वारा ही ज्ञानयज्ञ का भी विस्तार होगा। प्राणापान की साधना ही बुद्धि को अत्यन्त सूक्ष्म बनाकर हमारे ज्ञान को बढ़ाती है। ३. हे (दस्त्रा) = प्राणापानो! (वाम्) = आपके वन्धुरे इस सुबद्ध व सुन्दर [beautiful], सब श्रियों से युक्त (हिरण्यये रथे) = ज्योतिर्मय रथ में (अधि स्थाम) = हम अधिष्ठित हों। आप (पथा इव यन्तौ) = मार्ग से जाते हुओं के समान (रज:) = उस रञ्जनात्मक स्वर्गलोक को (अनुशासता) = अनुकूलता से शासन करनेवाले होते हो। जब प्राणापान की गति ठीक होती है तब यह शरीर ही स्वर्गलोक बन जाता है। आप (अञ्जसा) = सचमुच [truly] (रजः शासता) = रञ्जनात्मक स्वर्गलोग का शासन करते हो। प्राण-साधना इस शरीर को निर्दोष व शक्तिसम्पन्न बनाकर सचमुच स्वर्ग ही बना देती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से हम शरीर को सर्वथा निर्दोष बनाकर स्वर्गोपम स्थिति को प्राप्त करें।

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    विषय

    रथ में दो अश्वों के समान शासनादि कार्य में उत्तम पुरुषों की नियुक्ति ।

    भावार्थ

    हे ( दस्रा ) दुःखों और दुष्टों का नाश करने हारे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( उ ) ही ( नाकम् ) दुख रहित सुखमय गृहस्थ या ऐश्वर्य को ( वि ऋण्वथः ) विविध उपायों से प्राप्त करो । ( दिविष्टिषु ) आकाश मार्ग में विहार करने के अवसरों में जिस प्रकार ( अध्वरमानः ) कभी नीचे न गिरने हारे, सावधानी से उड़ने हारे उड़ा के ( रथयुजः ) आकाश को जाने वाले ( वां ) जल और अग्नि या रस और विद्युत् के आशुगामी यन्त्रों की ( युञ्जते ) योजना करते हैं और जिस प्रकार ( दिविष्टिषु ) विजय कामना से प्रयाण करने के कार्यों में ( अध्वस्मानः स्थयुजः ) नाश न होने देने वाले सारथी लोग ( अश्विनौ युज्जते ) वेगवान् अश्वों को रथ में जोड़ते हैं उसी प्रकार ( अध्वस्मानः ) राष्ट्र और धर्म को नाश न होने देने वाले, स्वयं कर्त्तव्य मार्ग से पतित न होने वाले ( रथयुजः ) देह और आत्मा को समाहित चित्त से योग द्वारा प्राप्त करने हारे विद्वान् पुरुष ( दिविष्टिषु ) कामना योग्य व्यवहारों के प्राप्तिमार्गों में (युञ्जते) नियुक्त करें । और आप दोनों ( पथा इव यन्तौ ) मार्ग से जाने वाले स्त्री पुरुष जिस प्रकार ( रजः अनु शासता ) धूलियुक्त मार्ग पर गमन करते हुए सुखप्रद गृह को प्राप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार आप दोनों भी ( पथा यन्तौ ) सन्मार्ग से जाते हुए और ( रजः ) लोक समूह का ( अनु शासता ) धर्मानुकूल शासन करते हुए ( अंजसा ) शीघ्र ही ( रजः ) ऐश्वर्य और राजस भोगमय ऐश्वर्य का ( शासता ) शासन करते हुए (अंजसा) शीघ्र ही (नाकं ऋण्वथः) सुखमय पद, गृहस्थ और समृद्ध राज्य को प्राप्त करो। और ( वां ) तुम दोनों के ( बन्धुरे ) अति सुप्रबद्ध, दृढ़ ( हिरण्यये ) लोह सुवर्ण आदि से मढ़े ( रथे ) रथ पर हम ( अधि स्थाम ) भी विराजें । अर्थात् वीर सेनाध्यक्षों के रथ बल पर हम राष्ट्र पर शासनाधिकारी होकर रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः । देवता—१ विश्वे देवाः । २ मित्रावरुणौ । ३—५ अश्विनौ । ६ इन्द्रः । ७ अग्निः । ८ मरुतः । ६ इन्द्राग्नी । १० बृहस्पतिः । ११ विश्वे देवाः॥ छन्दः–१, १० निचृदष्टिः । २, ३ विराडष्टिः । ६ अष्टिः । = स्वराडत्यष्टिः । ४, ६ भुरिगत्यष्टिः । ७ अत्यष्टिः । ५ निचृद् बृहती । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वानांना प्राप्त असलेली शिल्पविद्या (कारागिरी) शिकून विमान इत्यादी रथ तयार करून अंतरिक्षात जातात, ते सुखी होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, lords of grace and destroyers of suffering, you travel by the paradisal paths of joy, it is universally known, Users of the chariot flying by paths of the skies on high join you, they fly in the sky without losing height. Generous lords of light, let us also join you on your golden and stoutly structured chariot. Going on high as on highways of the earth, you are rulers of the skies, you rule the skies with your strength and speed of motion.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Glory to the thrasher of miseries.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Dasras (remover of all miseries)! you lead us to eternal joy and bliss. Electricity, water etc. are like your chariot, and they take you to heavenward journey and divine dealings, never condemnable. This truth is known to everyone. Therefore we will be too glad to take seats in your golden chariot.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Technology learnt from great artists and scholars helps in manufacturing aero planes etc. thus giving much happiness.

    Foot Notes

    (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् = Where there is no misery. (दिषिष्टिषु ) १. आकाशमार्गेषु २. दिव्येषु व्यवहारेषु - 1. In paths leading heavenward 2. In divine dealings. ( रजः ) १. लोकम् २, ऐश्वर्यम् – 1. World 2. Wealthier prosperity.

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