ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 139/ मन्त्र 8
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - मरूतः
छन्दः - स्वराडष्टिः
स्वरः - मध्यमः
मो षु वो॑ अ॒स्मद॒भि तानि॒ पौंस्या॒ सना॑ भूवन्द्यु॒म्नानि॒ मोत जा॑रिषुर॒स्मत्पु॒रोत जा॑रिषुः। यद्व॑श्चि॒त्रं यु॒गेयु॑गे॒ नव्यं॒ घोषा॒दम॑र्त्यम्। अ॒स्मासु॒ तन्म॑रुतो॒ यच्च॑ दु॒ष्टरं॑ दिधृ॒ता यच्च॑ दु॒ष्टर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठमो इति॑ । सु । वः॒ । अ॒स्मत् । अ॒भि । तानि॑ । पौंस्या॑ । सना॑ । भू॒व॒न् । द्यु॒म्नानि॑ । मा । उ॒त । जा॒रि॒षुः॒ । अ॒स्मत् । पु॒रा । उ॒त । जा॒रि॒षुः॒ । यत् । वः॒ । चि॒त्रम् । यु॒गेऽयु॑गे । नव्य॑म् । घोषा॑त् । अम॑र्त्यम् । अ॒स्मासु॑ । तत् । म॒रु॒तः॒ । यत् । च॒ । दुः॒ऽतर॑म् । दि॒धृ॒त । यत् । च॒ । दुः॒ऽतर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षु वो अस्मदभि तानि पौंस्या सना भूवन्द्युम्नानि मोत जारिषुरस्मत्पुरोत जारिषुः। यद्वश्चित्रं युगेयुगे नव्यं घोषादमर्त्यम्। अस्मासु तन्मरुतो यच्च दुष्टरं दिधृता यच्च दुष्टरम् ॥
स्वर रहित पद पाठमो इति। सु। वः। अस्मत्। अभि। तानि। पौंस्या। सना। भूवन्। द्युम्नानि। मा। उत। जारिषुः। अस्मत्। पुरा। उत। जारिषुः। यत्। वः। चित्रम्। युगेऽयुगे। नव्यम्। घोषात्। अमर्त्यम्। अस्मासु। तत्। मरुतः। यत्। च। दुःऽतरम्। दिधृत। यत्। च। दुःऽतरम् ॥ १.१३९.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 139; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मरुतो वस्तानि सना पौंस्याऽस्मन्मो अभिभूवन्। यानि पुरोत जारिषुस्तान्युत द्युम्नान्यस्मन्मा जारिषुः। यद्वो युगेयुगे चित्रममर्त्यं नव्यं यशो यच्च दुस्तरं यच्च दुस्तरं घोषाद् यूयं दिधृत तदस्मासु सुदिधृत ॥ ८ ॥
पदार्थः
(मो) निषेधे (सु) शोभने (वः) (अस्मत्) (अभि) (तानि) (पौंस्या) पुंसु साधूनि बलानि। पौंस्यानीति बलना०। निघं० २। ९। (सना) सनातनानि (भूवन्) अभूवन् भवन्तु। अत्राडभावः। (द्युम्नानि) यशांसि धनानि वा (मा) (उत) अपि (जारिषुः) जरन्तु। अत्राप्यडभावः। (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (पुरा) (उत) अपि (जारिषुः) जीर्णानि भवन्तु (यत्) (वः) (चित्रम्) अद्भुतम् (युगेयुगे) वर्षे वर्षे (नव्यम्) नवेषु नवीनेषु भवम् (घोषात्) वाचः। घोष इति वाङ्ना०। निघं० १। ११। (अमर्त्यम्) नाशरहितम् (अस्मासु) (तत्) (मरुतः) ऋत्विजः। मरुत इति ऋत्विङ्ना० निघं० ३। १८। (यत्) (च) (दुस्तरम्) दुःखेन तरितुं योग्यं बलम् (दिधृत) धरत। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः। अन्येषामपीति दीर्घश्च। (यत्) (च) (दुस्तरम्) ॥ ८ ॥
भावार्थः
मनुष्यैरेवमाशंसितव्यं प्रयतितव्यं च यतो बलं यशो धनमायू राज्यं च नित्यं वर्द्धेत ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (मरुतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करनेवाले विद्वानो ! (वः) तुम्हारे (तानि) वे (सना) सनातन (पौंस्या) पुरुषों में उत्तम बल (अस्मत्) हम लोगों से (मो, अभि, भूवन्) मत तिरस्कृत हों, जो (पुरा, उत) पहिले भी (जारिषुः) नष्ट हुए (उत) वे भी (द्युम्नानि) यश वा धन (अस्मत्) हम लोगों से (मा, जारिषुः) फिर नष्ट न होवें (यत्) जो (वः) तुम्हारा (युगेयुगे) युग-युग में (चित्रम्) अद्भुत (अमर्त्यम्) अविनाशी (नव्यम्) नवीनों में हुआ यश (यत्, च) और जो (दुस्तरम्) शत्रुओं को दुःख से पार होने योग्य बल (यत् च) और जो (दुस्तरम्) शत्रुओं को दुःख से पार होने योग्य काम (घोषात्) वाणी से तुम (दिधृत) धारण करो (तत्) वह समस्त (अस्मासु) हम लोगों में (सु) अच्छापन जैसे हो वैसे धारण करो ॥ ८ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को इस प्रकार आशंसा, इच्छा और प्रयत्न करना चाहिये कि जिससे बल, यश, धन, आयु और राज्य नित्य बढ़े ॥ ८ ॥
विषय
अमर्त्यता
पदार्थ
१. हे (मरुतः) = प्राणो ! (वः) = आपके-आपकी साधना से उत्पन्न होनेवाले तानि वे प्रसिद्ध (सना) = सम्भजनीय– सेवनीय (पौंस्या) = बल (अस्मत्) = हमसे (उ) = निश्चयपूर्वक (मा सु अभिभूवन्) = मत ही अलग हों [अपगतानि माभूवन् - सा०]। उत और (द्युम्नानि) = ज्ञान की ज्योतियाँ (मा जारिषुः) = क्षीण न हों, (उत) = और (अस्मत् पुरा) = हमारी ये शरीररूप नगरियाँ (मा जारिषुः) = जीर्ण न हो जाएँ। प्राणसाधना से [क] शक्ति प्राप्त होती है, [ख] ज्ञानज्योति बढ़ती है, [ग] शरीर स्वस्थ होता है । २. हे मरुतो ! (यत्) = जो (वः) = आपका (चित्रम्) = अद्भुत (युगेयुगे) = जीवन के प्रत्येक काल में-बाल, यौवन व वार्धक्य में (नव्यम्) = स्तुति के योग्य धन है, जो धन (अमर्त्यं घोषात्) = मनुष्य की अमर्त्यता की घोषणा करता है, (तत्) = उस धन को अस्मासु हममें दिधृता = धारण कीजिए। उस धन को धारण कीजिए (यत् च) = जो कि (दुष्टरम्) = शत्रुओं से तैरने योग्य नहीं है, सचमुच (यत् च दुष्टरम्) = जो अत्यन्त कठिनता से तैरने योग्य है। मरुतों का यह धन सोम [वीर्य] है। प्राणसाधना से यह शरीर में सुरक्षित होता है। यह सोमरूप धन अद्भुत तो है ही [चित्रम्], यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्तुत्य परिणामों को पैदा करनेवाला है [नव्यम्], यह मर्त्य मनुष्य को रोगों का शिकार न होने देकर अमर्त्य बना देता है, पूर्णायुष्य को प्राप्त करनेवाला बनाता है।
भावार्थ
जब यह शरीर में सुरक्षित होता है तब रोग- कृमिरूप शत्रु इस पर आक्रमण नहीं कर पाते- उनसे यह 'दुष्टर' होता है।
विषय
व्यापारियों और वीरों का कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) वायु के समान शत्रुओं को कंपाने वाले वीर, पुरुषो ! और देशदेशान्तर में जाने वाले व्यापारियो ! और ज्ञानेच्छु आलस्य रहित विद्यावान् पुरुषो ! ( तानि ) वे नाना प्रकार के ( वः ) आप लोगों के ( सना ) सदा से चले आये ( पौंस्या ) पौरुष के कर्म और बल, सामर्थ्य और पुरुषोचित कर्त्तव्य ( अस्मत् ) हम से ( मा अभि भूवन् ) कभी दूर न हों ( उत ) और ( वः सना द्युम्नानि ) तुम लोगों के सदा काल से चले आये ऐश्वर्य और यश ( मा जारिषुः ) नष्ट न हों ( उत ) और ( वः पुरा मा जारिषुः ) तुम लोगों के नगर और देहादि भी नष्ट न हों और ( यत् ) जो ( वः ) आप लोगों का ( युगे युगे ) युग युग में समय समय पर ( अमर्त्यं ) कभी नाश न होने वाला असाधारण, ( नव्यं ) स्तुति योग्य, उत्तम, नया से नया ( चित्रं ) संग्रह करने योग्य, ( घोषात् ) वेदवाणी से उत्पन्न होने वाला ज्ञान और वाणी के उपदेश या ग्राम नगरादि से उत्पन्न धन है वह भी ( अस्मासु दिधृत ) हम में स्थापित करो और ( यत् च ) जो आप का दुस्तर, अपार वीर्य, बल है वह और ( यत् च ) जो भी ( दुस्तरम् ) दुखों और दुःखदायी पुरुषों के नाशकारी सामर्थ्य है ( तत् ) उसको भी ( अस्मासु दिधृत ) हम में धारण कराओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषिः । देवता—१ विश्वे देवाः । २ मित्रावरुणौ । ३—५ अश्विनौ । ६ इन्द्रः । ७ अग्निः । ८ मरुतः । ६ इन्द्राग्नी । १० बृहस्पतिः । ११ विश्वे देवाः॥ छन्दः–१, १० निचृदष्टिः । २, ३ विराडष्टिः । ६ अष्टिः । = स्वराडत्यष्टिः । ४, ६ भुरिगत्यष्टिः । ७ अत्यष्टिः । ५ निचृद् बृहती । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी या प्रकारच्या इच्छा बाळगाव्या व प्रयत्न करावेत की ज्यामुळे बल, यश, धन, आयुष्य व राज्य सदैव वाढावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Maruts, brave heroes of earth and space vibrant as waves of energy, may your ancient and eternal powers and potentials and ours, and our honour and fame never wear away outmoded, and never forsake us. Whatever is yours, wondrous and excellent, ancient and yet ever new from age to age, what is imperishable from the eternal Voice and your proclamations, fix that within us deep in the mind, so it is difficult to surpass, unchallengeable.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The Glories to the learned again.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Maruts Performers of noble Yajnas or Priests! let us not be deprived of your glorious energies. May our wealth and fame never decline. The previous losses, if any, be regained. We pray you for your wonderful, eternal and admirable fame. We may prove our worth at the difficult assignments and act per your instructions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should always aspire to achieve more strength, wealth, fame longevity and possessions.
Foot Notes
(मरुत:) ऋत्विज: मरुत इति ऋत्त्विङ् नाम (NTU 2:14 ) = Priests. (दयुम्नानि) यशांसि धनानि = Good reputation or wealth.
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