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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒मा धा॒ना घृ॑त॒स्नुवो॒ हरी॑ इ॒होप॑वक्षतः। इन्द्रं॑ सु॒खत॑मे॒ रथे॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माः । धा॒नाः । घृ॒त॒ऽस्नुवः॑ । हरी॒ इति॑ । इ॒ह । उप॑ । व॒क्ष॒तः॒ । इन्द्र॑म् । सु॒खऽत॑मे । रथे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा धाना घृतस्नुवो हरी इहोपवक्षतः। इन्द्रं सुखतमे रथे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाः। धानाः। घृतऽस्नुवः। हरी इति। इह। उप। वक्षतः। इन्द्रम्। सुखऽतमे। रथे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तद्गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    हरी कृष्णशुक्लपक्षाविहेमा घृतस्नुवो धाना इन्द्रं सुखतमे रथ उपवक्षत उपगतं वहतः प्रापयतः॥१२॥

    पदार्थः

    (इमाः) प्रत्यक्षाः (धानाः) धीयन्ते यासु ता दीप्तयः। धापृवस्य० (उणा०३.६) इति नः प्रत्ययः। (घृतस्नुवः) घृतमुदकं स्नुवन्ति प्रस्रवन्ति यास्ताः (हरी) हरति याभ्यां तौ। कृष्णशुक्लपक्षौ वा पूर्वपक्षापरपक्षौ वा इन्द्रस्य हरी ताभ्यां हीदं सर्वं हरति (षड्विंश ब्रा०.१.१) (इह) अस्मिन्संसारे (उप) सामीप्ये (वक्षतः) वहतः। अत्र लडर्थे लेट्। (इन्द्रम्) सूर्य्यलोकम् (सुखतमे) अतिशयेन सुखहेतौ (रथे) रमयति येन तस्मिन्। हनिकुषिनीरमि० (उणा०२.२) इति क्थन् प्रत्ययः॥२॥

    भावार्थः

    यावस्मिन्संसारे रात्रिदिवसौ शुक्लकृष्णपक्षौ दक्षिणायनोत्तरायणौ हरीसंज्ञौ स्तस्ताभ्यां सूर्य्यः सर्वानन्दव्यवहारान् प्रापयति॥२॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में सूर्य्यलोक के गुणों का ही उपदेश किया है-

    पदार्थ

    (हरी) जो पदार्थों को हरनेवाले सूर्य्य के कृष्ण वा शुक्ल पक्ष हैं, वे (इह) इस लोक में (इमाः) इन (धानाः) दीप्तियों को तथा (इन्द्रम्) सूर्य्यलोक को (सुखतमे) जो बहुत अच्छी प्रकार सुखहेतु (रथे) रमण करने योग्य विमान आदि रथों के (उप) समीप (वक्षतः) प्राप्त कराते हैं॥२॥

    भावार्थ

    जो इस संसार में रात्रि और दिन शुक्ल तथा कृष्णपक्ष दक्षिणायन और उत्तरायण हरण करनेवाले कहलाते हैं, उनसे सूर्य्यलोक आनन्दरूप व्यवहारों को प्राप्त कराता है॥२॥

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    विषय

    फिर भी इस मन्त्र में सूर्य्यलोक के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हरी कृष्णशुक्लपक्षौ इह इमा घृतस्नुवो धाना इद्रं  सुखतमे रथ उपवक्षत उपगतं वहतः प्रापयतः॥०२॥ 

    पदार्थ

    (हरी) हरति याभ्यां तौ=जो दोनों पदार्थों के हरने वाले हैं,  (कृष्णशुक्लपक्षौ)=कृष्ण और शुक्ल पक्ष,  (इह) अस्मिन्संसार-इस संसार में, (इमाः)=प्रत्यकक्षाः= प्रत्यकक्ष, (घृतस्नुवः) घृतमुदकं स्नुवन्ति प्रस्रवन्ति यास्ताः=जल वाष्प बनकर टपकाते हैं जिससे, (धानाः) धीयन्ते यासु ता दीप्तयः=जिनसे प्रकाशित होते हैं ऐसी दीप्तियां, (इन्द्रम्) सूर्य्यलोकम्=सूर्य्यलोक को, (सुखतमे) अतिशयेन  सुखहेतौ=अतिशय सुख का कारण, (रथ)-रमयति  येन तस्मिन्=वाहन जिससे भ्रमण करते हैं, (उपवक्षतः) उपगतं (वहतः) प्रापयतः=समीप प्राप्त कराते हैं।   ॥02॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो इस संसार में रात्रि और दिन शुक्ल तथा कृष्णपक्ष दक्षिणायन और उत्तरायण हरण करनेवाले कहलाते हैं, उनसे सूर्य्यलोक आनन्दरूप व्यवहारों को प्राप्त कराता है॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (कृष्णशुक्लपक्षौ) कृष्ण और शुक्ल पक्ष,   (हरी) जो दोनों पदार्थों के हरने वाले हैं, वे (इह) इस संसार में (इमाः) प्रत्यक्ष (घृतस्नुवः) जल वाष्प बनाकर टपकाते हैं, जिससे (धानाः) जिनसे वे प्रकाशित होते हैं, ऐसी दीप्तियां (इद्रम्) सूर्य्यलोक को (सुखतमे) अतिशय सुख प्रदान करने का कारण बनती हैं। (रथे) विमान आदि वाहन जिससे भ्रमण करते हैं, (उपवक्षतः) उसे समीप से प्राप्त कराते हैं।

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इमाः) प्रत्यक्षाः (धानाः) धीयन्ते यासु ता दीप्तयः। धापृवस्य० (उणा०३.६) इति नः प्रत्ययः। (घृतस्नुवः) घृतमुदकं स्नुवन्ति प्रस्रवन्ति यास्ताः (हरी) हरति याभ्यां तौ। कृष्णशुक्लपक्षौ वा पूर्वपक्षापरपक्षौ वा इन्द्रस्य हरी ताभ्यां हीदं सर्वं हरति (षड्विंश ब्रा०.१.१) (इह) अस्मिन्संसारे (उप) सामीप्ये (वक्षतः) वहतः। अत्र लडर्थे लेट्। (इन्द्रम्) सूर्य्यलोकम् (सुखतमे) अतिशयेन सुखहेतौ (रथे) रमयति येन तस्मिन्। हनिकुषिनीरमि० (उणा०२.२) इति क्थन् प्रत्ययः॥२॥
    विषयः- पुनस्तद्गुणा  उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- हरी कृष्णशुक्लपक्षाविहेमा घृतस्नुवो धाना इद्रं सुखतमे रथ उपवक्षत उपगतं वहतः प्रापयतः॥०२॥महर्षिकृतः॥  

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यावस्मिन्संसारे रात्रिदिवसौ शुक्लकृष्णपक्षौ दक्षिणायनोत्तरायणौ हरीसंज्ञौ स्तस्ताभ्यां सूर्य्यः सर्वानन्दव्यवहारान् प्रापयति॥२॥ 

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    विषय

    धाना घृत

    पदार्थ

    १. (इन्द्रम्) - उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (सुखतमे रथे) - [सु+ख+तम] जिसमें एक - एक इन्द्रिय अत्यन्त उत्तम है , ऐसे शरीररूप रथ में (हरी) - ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (उपवक्षतः) - समीप प्राप्त कराते हैं । प्रभु का दर्शन स्वस्थ शरीर में ही होता है - उस शरीर में कि जिसमें कोई भी इन्द्रिय जीर्णशक्ति नहीं हो गई । वस्तुतः हमारी सर्वमहान् प्रभु की अर्चना यही है कि हम उसके दिये हुए इस शरीररूप रथ को विकृत न होने दें और इस रथ में जुतनेवाले इन्द्रियाश्वों को अक्षीणशक्ति बनाये रक्खें । 

    २. (इह) - हमारे इस जीवन में (इमाः) - ये इन्द्रियरूप घोड़ियाँ कर्मेन्द्रियों के रूप में (धानाः) - सदा लोकों को धारण करनेवाली हों , ये धारणात्मक कर्मों को ही करनेवाली हों तथा ज्ञानेन्द्रियों के रूप में ये (घृतस्रुवः) - ज्ञान की दीप्ति को चारों ओर प्रस्तुत करनेवाली हों । स्वयं ज्ञानदीप्त होकर ये चारों ओर ज्ञान के प्रकाश को ही फैलाएँ । 

    ३. वस्तुतः जिस दिन हमारी कर्मेन्द्रियाँ धारणात्मक कर्मों में लगी होंगी और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान का प्रसार कर रही होंगी उस दिन प्रभु का दर्शन होगा । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम धारणात्मक कर्मों में व्याप्त इन्द्रियोंवाले हों , ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान का प्रसार करें और इस प्रकार प्रभु - प्राप्ति के पात्र बनें । 

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    विषय

    सूर्य चन्द्र के दृष्टान्त से राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( हरी ) दो अश्व जिस प्रकार राजा को रथ द्वारा ले जाते हैं और सब पदार्थों और कालचक्र को ले जाने वाले कृष्ण और शुक्लपक्ष जिस प्रकार चन्द्र को, और दक्षिणायन और उत्तरायण जिस प्रकार सूर्य को धारण करते हैं, उसी प्रकार हे आत्मन् ! ( हरी ) हरणशील, गतिमान् दोनों प्राण और अपान (इह) इस ( सुखतमे ) अति अधिक सुखकारी ( रथे ) रमण कराने वाले स्वरूप में ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्ययुक्त, आत्मसाक्षात्कार से देखने योग्य रसमय स्वरूप में (उपवक्षतः) धारण करते हैं । द्रष्टा को वहाँ तक पहुंचाते हैं। और जिस प्रकार दिन रात्रि या किरणें काल को धारण करने से ( धानाः ) ‘धाना’ कहाती हैं सूर्य और चन्द्र की ज्योति या जल की धारणा करने से वे ‘धानाः’ हैं और तेजप्रद होने से ‘घृतस्नु’ है उसी प्रकार ( इमाः ) ये सब ( धानाः ) आत्मा को धारण करनेवाली नाड़ियां ( घृतस्नुवः ) आनन्द रस को स्रवण करने वाली हैं । राजा के पक्ष में—राजा के समस्त ऐश्वर्यों को धारण करने से प्रजाएँ ही ‘धाना’ हैं । वे तेज, अन्नादि देती हैं। उन तक दो अश्व राजा को अति सुखप्रद रथ में बैठाकर लावें ।

    टिप्पणी

    ‘धानाः’—नक्षत्राणां वा एतद् रूपं यद् धानाः । तै० ३ । ८ । ४॥ ५ ॥ अहोरात्राणां वा एतद् रूपं यद् धानाः । श० १३ । २ । १ । ४ ॥ पशवो वैधानाः । कौ० १८ । ६ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    काण्वो मेधातिथिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    (अग्ने महः तव ऋतु परः न हि देव:-न मर्त्यः) हे मध्यस्थानीय विद्युत्! तेरे महान् महत्त्वपूर्ण कर्म-वृष्टिकर्म "ऋतुः कर्मनाम" [निघं० २।१] को करने वाला या बाधने वाला न ही देव-द्युस्थान का पदार्थ पर अन्य सूर्य है और न मर्त्यः-पृथिवीस्थान का पदार्थ पार्थिव अग्नि है (मरुद्भि:-गहि) मध्यस्थानीय वातस्तरों के साथ प्राप्त हो ॥२॥

    टिप्पणी

    (अग्ने तव महः क्रतु पर:-देवा:-नहि मर्त्यः) हे युवराज ! तुझ महान् महत्वपूर्ण गुणवान् के ऋतु-राजशासन कर्म को न पर अन्य देव ऊँचा विद्वान् ऋषि महात्मा और न साधारण मनुष्य " मर्त्यः मनुष्यनाम" (निघ० २।३) करने यह वाधित करने वाला अप्रशंसित करने वाला किन्तु प्रत्येक विद्वान् और जन साधारण बढावा देने वाला और प्रशंसा करने वाला है (मरुद्भि:-आगहि) अपने सभ्यों अङ्गरक्षक सैनिकों के साथ इस शासनपद को प्राप्त हो ॥२॥

    विशेष

    ऋषिः-काण्वो मेधातिथिः [“कण्वः-मेधाविनाम" (निघं० ३।१५) "करण शब्दे" (भ्वादि०) "करण गतौ” (स्वादि०) मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील का पुत्र शिष्य अधिक मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील जो मेधा से प्रचार करने वाला “मेट मेधायाम्" (स्वादि०) मेघ+अच् मेधश्चासौ अतिथिश्च ] देवता - अग्निर्मरुतश्च ( अग्नि और मरुत्स्तर ) इस सूत्र के प्रथम और नवम मन्त्र निरुक्त में व्याख्यात हैं । वहां इस सूक्त में आए अग्नि को मध्यस्थानी देवों में पढ कर मध्यम देव बतलाया है पार्थिव अग्नि नहीं किन्तु विद्युत्-अग्नि “कमन्यं मध्यमादेवमवक्ष्यत्" (निरु० १०।३६) अतः सूक्त व्याख्या विद्युत् सम्बन्धी वृष्टिविज्ञानपरक "वर्षकामेष्टिः कारीरी" (विनियोगः) तथा "मनुष्यवद देवताभिधानम्" (निरु० १।२) के अनुसार द्युस्थान देवताओं के गुणवर्णन ब्राह्मणोंविद्वानों के लिए मध्यस्थानी देवताओं के गुणवर्णन क्षत्रियों के लिए होने से राजनैतिक वर्णन राज्यशासनविधान युद्धविज्ञान का है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या संसारात रात्र व दिवस, शुक्ल व कृष्णपक्ष, दक्षिणायन व उत्तरायण हरण करविणारे म्हणविले जातात, त्यांच्याकडून सूर्यलोक आनंदरूपी व्यवहार प्राप्त करतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    These rays of light, laden with waters and fertility, day and night, in the dark and bright fortnight of the moon, and in the equinoctial and solstitial courses of the sun, bring Indra, solar energy, in the most comfortable chariot to the earth and her environment.

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    Subject of the mantra

    Even then qualities of the Sun sphere have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (harī)=The rays of both darker and brighter fortnights are abductor of substances, (iha)=in this universe, Those rays evidently drip water vapors. (imāḥ)=evidently, (ghṛtasnuvaḥ)=drip water vapors, (dhānāḥ)=from which they are illuminated, such brightness, (idram)=to sun sphere, (sukhatame)=cause of providing extreme delights, (rathe) =aircraft et cetera vehicles, through whom travel, (upavakṣataḥ)=obtain them in the proximity.

    English Translation (K.K.V.)

    The darker and brighter fortnights both are abductor of the substances. Those rays evidently drip water vapors in this universe, consequently by whom those get illuminated, such brightness become cause of providing extreme delights of the Sun sphere. They obtain aircraft et cetera vehicles, through whom they travel.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Those who take away the night and day, are called half bright moon and half dark moon, Dakṣiṇāyana (southward course=summer solstice in the month), in this world. Sun-world makes them attain blissful behaviour.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    It is the bright and dark for night in this world that bring to us the sun and its bright and water-producing rays in a a chariot (so to speak) that gives pleasure.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (हरी) हरति याभ्यां तौ कृष्णशुक्लपक्षौ वा पूर्वपक्षापरपक्षौ वा इन्द्रस्य हरी ताभ्यां हीदं सर्व हरति (षड्विश | ब्राह्मणे प्रपा० १ खण्ड १ ) । = The bright and dark fortnights ( इन्द्रम् ) सूर्यलोकम् = Solar world. (रथे) रमयति येन तस्मिन् हनि कुषिनी रमि काशिभ्यः क्थन् (उणादि० २.२) इतिक्थन् प्रत्ययः ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is through the day and the night, bright and dark fortnight and Dakshinaayana and Uttaraayana-the progress of the sun to the south and the north of the equator) (which are all denoted by the general term Hare that the sun enables us to perform all delight-giving duties.

    Translator's Notes

    For the meaning of हरि as bright and dark fortnights etc. Rishi Dayananda has given clear quotation from the Shadvinsha Brahmana of the Sama (Tandya) Maha Brahmana. The other meanings are, what is called in Sanskrit as उपलक्षण (Upalakshana) similar object where only one is mentioned, known in English (according to Apte's Dictionary as Synecdoche or a part for the whole). Rishi Dayananda has interpreted Indra here as the sun or solar system. For this, there are clear passages in ancient Vedic Literature. For instance, in the jaimineeyopanishad Brahmana 1.44.5 it is stated- युक्ता ह्यस्य ( इन्द्रस्य ) हरयः शतादशेति सहस्त्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः ।। (जैमिनीयोपनिषद्द्ब्राह्मणे १.४४.५ ) So it is clear that by Indra is here meant the Sun. In the Shatapath Brahmana G. C. 7-11 it is stated इन्द्र इति ह्येतमाचक्षते य एष (सूर्य:) तपति शतपथ० ४. ६. ७. ११) = i. e. The sun is called Indra. In Shatapath 3.5.3i2. it is states- अथ यः स इन्द्रः असौ स आदित्यः (शत० ८.५.३.२) i. e. Indra is the Sun. So Rishi Dayananda's interpretation is well-authenticated. The word रथ (Ratha) used in the Mantra has been translated as Chariot as is usually done. But here it is not to be taken literally but metaphorically, for the root meaning is merely that which gives delight, so we may say, it stands for anything beautiful or charming as the sun certainly is. The word has been interpreted by Rishi Dayananda as धीयन्ते यारता दीप्तयः | धाप्लवस्य ज्यतिभ्यो नः ॥ (उणादि ३. ६ ) इति नः So it stands here for the brightness or bright rays of the sun.

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