ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 16/ मन्त्र 5
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सेमं नः॒ स्तोम॒मा ग॒ह्युपे॒दं सव॑नं सु॒तम्। गौ॒रो न तृ॑षि॒तः पि॑ब॥
स्वर सहित पद पाठसः । इ॒मम् । नः॒ । स्तोम॑म् । आ । ग॒हि॒ । उप॑ । इ॒दम् । सव॑नम् । सु॒तम् । गौ॒रः । न । तृ॒षि॒तः । पि॒ब॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सेमं नः स्तोममा गह्युपेदं सवनं सुतम्। गौरो न तृषितः पिब॥
स्वर रहित पद पाठसः। इमम्। नः। स्तोमम्। आ। गहि। उप। इदम्। सवनम्। सुतम्। गौरः। न। तृषितः। पिब॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 16; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरिन्द्रगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः
य इन्द्रो नोऽस्माकमिमं स्तोमं सवनं तृषितो गौरो मृगो न इवोपागह्युपागच्छति, स इदं स्तुतमुत्पन्नमोषध्यादिरसं पिब पिबति॥५॥
पदार्थः
(सः) इन्द्रः (इमम्) अनुष्ठीयमानम् (नः) अस्माकम् (स्तोमम्) स्तूयते गुणसमूहो यस्तं यज्ञम् (आ) समन्तात् (गहि) गच्छति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (उप) सामीप्ये (इदम्) प्रत्यक्षम् (सवनम्) सुवन्त्यैश्वर्य्यं प्राप्नुवन्ति येन तत् क्रियाकाण्डम् (सुतम्) ओषध्यादिरसम् (गौरः) गौरगुणविशिष्टो मृगः (न) जलाशयं प्राप्य जलं पिबतीव (तृषितः) यस्तृष्यति पिपासति सः (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथाऽत्यन्तं तृषिता मृगादयः पशुपक्षिणो वेगेन धावनं कृत्वोदकाशयं प्राप्य जलं पिबन्ति तथैवैष इन्द्रो वेगवद्भिः किरणैरोषध्यादिकं प्राप्यैतेषां रसं पिबति, मनुष्यैः सोऽयं विद्यावृद्धये यथावदुपयोक्तव्यः॥५॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर भी अगले मन्त्र में इन्द्र के गुणों का उपदेश किया है-
पदार्थ
जो उक्त सूर्य्य (नः) हमारे (इमम्) अनुष्ठान किये हुए (स्तोमम्) प्रशंसनीय यज्ञ वा (सवनम्) ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले क्रियाकाण्ड को (न) जैसे (तृषितः) प्यासा (गौरः) गौरगुणविशिष्ट हरिन (उपागहि) समीप प्राप्त होता है, वैसे (सः) वह (इदम्) इस (सुतम्) उत्पन्न किये ओषधि आदि रस को (पिब) पीता है॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे अत्यन्त प्यासे मृग आदि पशु और पक्षी वेग से दौड़कर नदी तालाब आदि स्थान को प्राप्त होके जल को पीते हैं, वैसे ही यह सूर्य्यलोक अपनी वेगवती किरणों से ओषधि आदि को प्राप्त होकर उसके रस को पीता है। सो यह विद्या की वृद्धि के लिये मनुष्यों को यथावत् उपयुक्त करना चाहिये॥५॥
विषय
इस मन्त्र में फिर भी इन्द्र के गुणों का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
य इन्द्रः नः अस्माकम्इमं स्तोमं सवनं तृषितः गौरः मृगः न इव उपागहि उपागच्छति, स इदं स्तुतम्उत्पन्नम्ओषधि आदि रसम्पिब पिबति॥५॥
पदार्थ
(य)=जो, (इन्द्रः)=इन्द्र, (नः) अस्माकम्=हमारे लिये, (इमम्)=इस, (स्तोमम्) स्तूयते गुणसमूहो यस्तं यज्ञम्=ऐसा गान जिससे यज्ञ के गुणों की स्तुति की जाती है, (सवनम्) सुन्वन्त्यैश्वर्य्यं प्राप्नुवन्ति येन तत्क्रियाकाण्डम्=ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाला क्रियाकाण्ड, (तृषितः) यस्तृष्यति पिपासति सः=प्यासा, (गौरः) गौरगुणोविविष्टो मृगः= सफेद रंग का हिरन, (न) इव =जैसा, उपागहि-उपागच्छति=समीप प्राप्त होता है, (स:)=वह, (इदम्)=इस, (स्तुतम्)=स्तुति को, (उत्पन्नम्)=उत्पन्न हुई, (ओषधि)=ओषधि, (आदि)=आदि, (रसम्)=रस, (पिब) पिबति=पीता है॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है। जैसे अत्यन्त प्यासे मृग आदि पशु और पक्षी वेग से दौड़कर नदी तालाब आदि स्थान को प्राप्त होके जल को पीते हैं, वैसे ही यह सूर्यलोक अपनी वेगवती किरणों से ओषधि आदि को प्राप्त होकर उसके रस को पीता है। इसलिये विद्या की वृद्धि के लिये मनुष्यों को यह यथावत् उपयोग करना चाहिये॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(य) जो (इन्द्रः) सूर्य (नः) हमारे लिये (इमम्) इस यज्ञ, (स्तोमम्) जिसमें ऐसे गान किए जाते हैं, जिनमें यज्ञ के गुणों की स्तुति की जाती है और (सवनम्) ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाले क्रियाकाण्ड किए जाते हैं, में प्राप्त होता है। (तृषितः) प्यासा (गौरः) सफेद रंग का हिरन (न) जैसे (उपागहि) जल पीने के लिए समीप आता है, ऐसे ही (स) वह सूर्य (इदम्) इस (स्तुतम्) स्तुतियों से (उत्पन्नम्) उत्पन्न हुई (ओषधि) ओषधि (आदि) आदि के (रसम्) रस को (पिब) पीता है अर्थात् सोख लेता है ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) इन्द्रः (इमम्) अनुष्ठीयमानम् (नः) अस्माकम् (स्तोमम्) स्तूयते गुणसमूहो यस्तं यज्ञम् (आ) समन्तात् (गहि) गच्छति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (उप) सामीप्ये (इदम्) प्रत्यक्षम् (सवनम्) सुवन्त्यैश्वर्य्यं प्राप्नुवन्ति येन तत् क्रियाकाण्डम् (सुतम्) ओषध्यादिरसम् (गौरः) गौरगुणविशिष्टो मृगः (न) जलाशयं प्राप्य जलं पिबतीव (तृषितः) यस्तृष्यति पिपासति सः (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥५॥
विषयः- पुरिन्द्रगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- य इन्द्रो नो ऽस्माकमिमं स्तोमं सवनं तृषितो गौरो मृगो न इवोपागह्युपागच्छति, स इदं स्तुतमुत्पन्नमोषध्यादिरसं पिब पिबति॥महर्षिकृतः॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथाऽत्यन्तं तृषिता मृगादयः पशुपक्षिणो वेगेन धावनं कृत्वोदकाशयं प्राप्य जलं पिबन्ति तथैवैष इन्द्रो वेगवद्भिः किरणैरोषध्यादिकं प्राप्यैतेषां रसं पिबति, मनुष्यैः सोऽयं विद्यावृद्धये यथावदुपयोक्तव्यः॥५॥
विषय
आदेशत्रयी
पदार्थ
१. प्रभु जीव को प्रस्तुत मन्त्र में तीन आदेश देते हैं - (सः) - वह तू (नः) - हमारे (इमम् स्तोमम्) - इस स्तोम - स्तुतिसमूह को (आगहि) - ग्रहण करनेवाला बन , अर्थात् 'सर्वज्ञता , न्यायकारिता , दयालुत्व' आदि जिन गुणों से तू मेरा स्तवन करता है , उन गुणों को तू अपने जीवन में ग्रहण करनेवाला हो । जब तू स्वयं अधिक - से - अधिक ज्ञानी बनने का प्रयत्न करेगा , न्यायशील होगा व दयालु स्वभाववाला बनेगा , तभी तू मेरा सच्चा स्तवन कर रहा होगा । यह तुझसे की जानेवाली मेरी 'दृश्य भक्ति' होगी । इस 'दृशीक - स्तोम' का ही महत्त्व है । केवल 'श्रव्यभक्ति' जो तेरे जीवन का अङ्ग नहीं बनती , वह तो व्यर्थ ही है ।
२. प्रभु का दूसरा आदेश यह है कि तू (इदम् सवनम्) - इस यज्ञ के उप - सदा समीप रहनेवाला हो । तेरा जीवन यज्ञों से व्याप्त हुआ - हुआ हो । तेरे जीवन के सौ - के - सौ वर्ष यज्ञमय होकर तेरे 'शतक्रतु' नाम को चरितार्थ करें ।
३. (तृषितः गौरः नः) - प्यासे मृग की तरह तू (सुतम् पिब) - इस उत्पन्न सोम का पान करनेवाला बन । प्यासे मृग को पानी पीने की तीन अभिलाषा होती है , उसी प्रकार तुझमें इस सोम के पान की उत्कट आकांक्षा हो । तुझे सोमपान के बिना शान्ति ही न मिले , तेरे लिए यह सोमपान ही रुचिकर हो ।
भावार्थ
भावार्थ - [क] हम प्रभु के गुणों को धारण करें ,
[ख] जीवन को यज्ञमय बनाएँ ,
[ग] सोम के रक्षण के लिए उग्र प्रयत्नवाले हों ।
विषय
पिपासित भक्त का ईश्वर को रस रूप से स्मरण
भावार्थ
( तृषितः ) पियासा (गौरः न) गौर मृग जिस प्रकार उत्सुक होकर जलाशय से जल पीता है उसी प्रकार हे परमेश्वर ! तु ( गौरः ) स्तुतिवाणियों में रमण करने वाला होकर ( नः ) हमारे ( इमं स्तोमम् ) इस स्तुतिसमूह को ( आ गहि ) प्राप्त हो और ( इदम् सुतम् सवनं ) इस उत्तम रीति से सम्पादित उपासना रस का ( उप पिब ) पान कर, स्वीकार कर । राजा के पक्ष में—गौ अर्थात् पृथ्वी में रमण करने हारा राजा तृषित मृग के समान अति उत्सुक होकर प्रजा के जन संघ को प्राप्त करे और (इदं सुतम् सवनं) इस अभिषेक द्वारा प्राप्त राज्यैश्वर्य को भोग करे । इति त्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
(ये शुभ्राः-घोरवर्पसः सुक्षत्रासः-रिशादसः) जो मरुत वातस्तर निर्मल-घोररूप वाले-ग्रीष्मकालीन वायु स्तर "वर्पः रूपनाम" (निघ० ३।७) अच्छे जल वालें” “क्षत्रमुदकनाम (निघ० १।१२ ) (रिशादसः) हिंसक दुष्का आदि को नष्ट करने वाले हैं उन मरुतो वातस्तरों के साथ प्राप्त हो ॥५॥
टिप्पणी
अग्ने-ये-उग्राः–अनाघृष्टाः-ओजसा-अर्कम्-आनृचुः) हे राजन्! जिन तेजस्वी न दबाए जाने वाले अपने बल से अर्क-वज्र-शस्त्रास्त्र की "अर्क:-वज्रनाम" (निघ० २।२०) साधा हुआ धारण किया हुआ है उन (मरुद्भि:-अगहि) राज पुरुषों सैनिकों के साथ इस राजपद पर तू प्राप्त हो ॥४॥ (ये शुभ्राः-घोरवर्पसः सुक्षत्रासः-रिशादसः) जो प्रकाशमान प्रतापी घोररूप वाले प्रभावशाली उत्तम उचित त्राण करने वाले क्षत्रियत्व के अभिमानी पीडकों का मर्दन करने वाले हैं, उन (अग्ने मरुद्भिः-आगहि) राजन् ! राजपुरुषों सैनिकों के साथ राज पद को प्राप्त हों ॥५॥ जैसा अन्यत्र वैद में कहा है “उदीरयथा मरुतः" "समुद्रतो यूयं वृष्टिं वर्षयथा पुरीषिणः” (ऋ० ५।५५।५) वृष्टि वाले मांसून समुद्र से जल वाली होकर वृष्टि वर्षाती हैं ।
विशेष
ऋषिः-काण्वो मेधातिथिः [“कण्वः-मेधाविनाम" (निघं० ३।१५) "करण शब्दे" (भ्वादि०) "करण गतौ” (स्वादि०) मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील का पुत्र शिष्य अधिक मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील जो मेधा से प्रचार करने वाला “मेट मेधायाम्" (स्वादि०) मेघ+अच् मेधश्चासौ अतिथिश्च ] देवता - अग्निर्मरुतश्च ( अग्नि और मरुत्स्तर ) इस सूत्र के प्रथम और नवम मन्त्र निरुक्त में व्याख्यात हैं । वहां इस सूक्त में आए अग्नि को मध्यस्थानी देवों में पढ कर मध्यम देव बतलाया है पार्थिव अग्नि नहीं किन्तु विद्युत्-अग्नि “कमन्यं मध्यमादेवमवक्ष्यत्" (निरु० १०।३६) अतः सूक्त व्याख्या विद्युत् सम्बन्धी वृष्टिविज्ञानपरक "वर्षकामेष्टिः कारीरी" (विनियोगः) तथा "मनुष्यवद देवताभिधानम्" (निरु० १।२) के अनुसार द्युस्थान देवताओं के गुणवर्णन ब्राह्मणोंविद्वानों के लिए मध्यस्थानी देवताओं के गुणवर्णन क्षत्रियों के लिए होने से राजनैतिक वर्णन राज्यशासनविधान युद्धविज्ञान का है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे अत्यंत तहानेने व्याकुळ झालेले हरिण इत्यादी पशू-पक्षी वेगाने पळतात व नदी किंवा तलावाजवळ जाऊन पाणी पितात, तसेच हा सूर्यलोक आपल्या गतिमान किरणांनी औषधी वगैरे प्राप्त क्रून त्याचा रस पितो. त्यामुळे ही विद्या वाढविण्यासाठी माणसांनी त्याचा उपयोग करून घेतला पाहिजे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May Indra, rays of the sun and currents of energy, come to this celebration and yajna of ours and drink of the sweets of this creative programme of ours as a thirsty golden stag drinks of the water of a stream.
Subject of the mantra
Even then, Indra’s virtues have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ya)=that, (indraḥ)=Sun, (naḥ)=for us, (imam)=this yajan, (stomam)= In which orthodoxy of Vedas are sung and the virtues of Yagya are praised, and, (savanam)= The rituals that bring majesty are performed, it is attained, (tṛṣitaḥ)=thirsty, (gauraḥ)=white coloured deer, (na)=like, (upāgahi)=comes near to drink water, (sa)=that, (idam)=this, (stutam)= with praise (utpannam)=created,, (oṣadhi)=medicinal herbs, (ādi)=et cetera, (rasam)=juice, (piba)=drinks, that is, it absorbs.
English Translation (K.K.V.)
The Sun which is obtained for us in this yajan, in which orthodoxy of Vedas are sung and the virtues of yajan are praised and rituals that bring majesty are performed. Like a thirsty white coloured deer comes near to drink water, in the same way, that Sun drinks (Sucks) the juice of the medicinal herbs etc. created by these hymns, that is, it absorbs.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
In this mantra, there is simile as a figurative. Just as the very thirsty deer, animals and birds, running at a speed, reach a place like a river, pond etc.; drink water, in the same way, this Sun-world gets the medicinal herbs etc. by its speedy rays and absorbs its juice. Therefore, for the growth of knowledge, human beings should use it properly.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of Indra are told in he fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
This Indra (Sun) comes with his rays to our Yajna (nonviolent sacrifice) where hymns of praise to God are uttered and to our practical workshops etc., where wealth is acquired like a thirsty stag to a tank. He drinks the sap of the herbs, plants etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सवनम् ) सुवन्ति ऐश्वर्य प्राप्नुवन्ति येन तत् क्रियाकाण्डम् || (गौर:) गौरगुणविशिष्टो मृगः ॥
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankar or simile used in this Mantra. As thirsty stags and other beasts and birds come running to a tank or river and drink water there, so this sun with his rays drinks the sap of these herbs and plants etc. Men should utilize the sun or his rays for the accomplishment of knowledge and various purposes.
Translator's Notes
Rishi Dayananda has used व्यत्यय: (change of case and person etc.) just to avoid misunderstanding, otherwise there was not much need to do so for intelligent persons. In` almost 90 percent cases, the Vyatyaya (change of case and person etc.) mentioned by him in his commentary, to which much exception is taken by some critics is of the same kind. For instance, he could translate this Mantra even in the case of the sun as— हे इन्द्र (सूर्य) अस्माकम् इमं स्तोमं सवनं तृषितो गौरः मृगः इव उपागहि इदं सुतम् उत्पन्नमोषधिरसं पिब ।। As according to the general rule given in the Nirukta Daivata Kanda अचेतनान्यपि चेतनवत् स्तूयन्ते ॥ i. e. even inanimate objects are praised of addressed like animate objects as poets very often do. But he has preferred to resort to Vyatyaya (or change of case, person etc. according to व्यत्ययो बहुलम्, so that there may not be any misunderstanding in the minds of less intelligent persons that the sun is considered. as a living being. This point should be clearly understood by all scholars. We have already quoted authorities from the Brahmanas and other ancient literature to show that by Indra, the sun is meant in many Mantras.
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