ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 16/ मन्त्र 9
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सेमं नः॒ काम॒मा पृ॑ण॒ गोभि॒रश्वैः॑ शतक्रतो। स्तवा॑म त्वा स्वा॒ध्यः॑॥
स्वर सहित पद पाठसः । इ॒मम् । नः॒ । काम॑म् । आ । पृ॒ण॒ । गोभिः॑ । अश्वैः॑ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतक्रतो । स्तवा॑म । त्वा॒ । सु॒ऽआ॒ध्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सेमं नः काममा पृण गोभिरश्वैः शतक्रतो। स्तवाम त्वा स्वाध्यः॥
स्वर रहित पद पाठसः। इमम्। नः। कामम्। आ। पृण। गोभिः। अश्वैः। शतक्रतो इति शतक्रतो। स्तवाम। त्वा। सुऽआध्यः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 16; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रशब्देनेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः
हे शतक्रतो जगदीश्वर ! यं त्वा स्वाध्यो वयं त्वां स्तवामः स्तुवेम स त्वं गोभिरश्वैर्नोऽस्माकं काममापृण समन्तात्प्रपूरय॥९॥
पदार्थः
(सः) जगदीश्वरः (इमम्) वेदमन्त्रैः प्रेम्णा सत्यभावेनानुष्ठीयमानम् (नः) अस्माकम् (कामम्) काम्यत इष्यते सर्वैर्जनैस्तम् (आ) अभितः (पृण) पूरय (गोभिः) इन्द्रियपृथिवीविद्याप्रकाशपशुभिः (अश्वैः) आशुगमनहेतुभिरग्न्यादिभिस्तुरङ्गहस्त्यादिभिर्वा (शतक्रतो) शतमसंख्यातानि क्रतवः कर्माण्यनन्ता प्रज्ञा वा यस्य तत्सम्बुद्धौ सर्वकामप्रदेश्वर ! (स्तवाम) नित्यं स्तुवेम (त्वा) त्वाम् (स्वाध्यः) ये स्वाध्यायन्ति ते। अत्र स्वाङ् पूर्वाद् ध्यै चिन्तायाम् इत्यस्मात् ध्यायतेः सम्प्रसारणं च। (अष्टा०३.२.१७८) अनेन क्विप् सम्प्रसारणं च॥९॥
भावार्थः
ईश्वरस्यैतत्सामर्थ्यं वर्त्तते यत् पुरुषार्थिनो धार्मिकाणां मनुष्याणां स्वस्वकर्मानुसारेण सर्वेषां कामानां पूर्तिं करोति। यः सृष्टौ परमोत्तमपदार्थोत्पादनधारणाभ्यां सर्वान् प्राणिनः सुखयति तस्मात्स एव सर्वैर्नित्यमुपासनीयो नेतरः॥९॥अस्य षोडशसूक्तार्थस्यर्त्तुसम्पादकानां सूर्य्यवाय्वादीनां यथायोग्यं प्रतिपादनात् पञ्चदशसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपदेशवासिभिरध्यापकविलसनादिभिश्च विपरीतार्थे व्याख्यातमिति॥९॥
हिन्दी (6)
विषय
अब अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है-
पदार्थ
हे (शतक्रतो) असंख्यात कामों को सिद्ध करनेवाले अनन्तविज्ञानयुक्त जगदीश्वर ! जिस (त्वा) आपकी (स्वाध्यः) अच्छे प्रकार ध्यान करनेवाले हम लोग (स्तवाम) नित्य स्तुति करें, (सः) सो आप (गोभिः) इन्द्रिय, पृथिवी, विद्या का प्रकाश और पशु तथा (अश्वैः) शीघ्र चलने और चलानेवाले अग्नि आदि पदार्थ वा घोड़े हाथी आदि से (नः) हमारी (कामम्) कामनाओं को (आपृण) सब ओर से पूरण कीजिये॥९॥
भावार्थ
ईश्वर में यह सामर्थ्य सदैव रहता है कि पुरुषार्थी धर्मात्मा मनुष्यों का उन के कर्मों के अनुसार सब कामनाओं से पूरण करता है तथा जो संसार में परम उत्तम-उत्तम पदार्थों का उत्पादन तथा धारण करके सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है, इससे सब मनुष्यों को उसी परमेश्वर की नित्य उपासना करनी चाहिये॥९॥ऋतुओं के सम्पादक जो कि सूर्य्य और वायु आदि पदार्थ हैं, उन के यथायोग्य प्रतिपादन से इस पन्द्रहवें सूक्त के अर्थ के साथ पूर्व सोलहवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति समझनी चाहिये। इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी अध्यापक विलसन आदि ने विपरीत वर्णन किया है॥
विषय
इस मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर के गुणो का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे शतक्रतो जगदीश्वरः! यम्त्वा स्वाध्यो वयम्त्वां स्तवामः स्तुवेम स त्वं गोभि: अश्वै: नः अस्माकं कामम्आपृणं समन्तात् पूरय॥९॥
पदार्थ
हे (शतक्रतो) शतमसंख्यातानि क्रतवः कर्माण्यन्ता प्रज्ञा वा यस्य तत्सम्बुद्धौ सर्वकामप्रदेश्वरः=असंख्यात कामों को सिद्धा करने वाले अनन्त विज्ञानयुक्त, (जगदीश्वर)=जगदीश्वर! (स्वाध्यः)=ये स्वाध्यायन्ति ते=जो स्वाध्याय करते हैं, (वयम्)=हम, (त्वाम्)=आपकी, (स्तवाम) नित्यं स्तुवेम=नित्य स्तुति करें, (सः)=वह, (त्वम्)=आप, (गोभि:) इन्द्रियपृथिवी विद्याप्रकाशपशुभिः=इन्द्रियों पृथिवी विद्या प्रकाश और पशुओं से, (अश्वै:) आशुगमनहेतुभिरग्न्यादिभिस्तुरङ्गहस्त्यादिभिर्वा=आशु गमन के लिये चलने व चलाने के लिये अग्नि आदि के रूप में ऊर्जा और घोडे., हाथी आदि, (नः) अस्माकम्=हमारे, (कामम्) काम्यत इष्यते सर्वैर्जनैस्तम्=सब लोगों की कामना, (समन्तात्)=सब ओर से, (आपृणम्) पूरय=पूर्ण कीजिए ॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
ईश्वर में यह सामर्थ्य सदैव रहता है कि पुरुषार्थी धर्मात्मा मनुष्यों का उन के कर्मों के अनुसार सब कामनाओं से पूर्ण करता है तथा जो संसार में परम उत्तम-उत्तम पदार्थों का उत्पादन तथा धारण करके सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है, इससे सब मनुष्यों को उसी परमेश्वर की नित्य उपासना करनी चाहिये॥९॥
विशेष
महर्षिकृत सूक्त का भावार्थ- ऋतुओं के सम्पादक जो कि सूर्य्य और वायु आदि पदार्थ हैं, उन के यथायोग्य प्रतिपादन से इस पन्द्रहवें सूक्त के अर्थ के साथ पूर्व सोलहवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति समझनी चाहिये। इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी अध्यापक विलसन आदि ने विपरीत वर्णन किया है॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (शतक्रतो) असंख्य कामों को सिद्ध करने वाले अनन्त विज्ञानयुक्त (जगदीश्वर) जगदीश्वर! (स्वाध्यः) जो स्वाध्याय करते हैं, वे (वयम्) हम (त्वाम्) आपकी (स्तवाम) नित्य स्तुति करें। (सः) वह (त्वम्) आप (गोभि:) इन्द्रियों, पृथिवी, विद्या, प्रकाश और पशुओं से (अश्वै:) आशु गमन के लिये चलने व चलाने के लिये अग्नि आदि के रूप में ऊर्जा और घोडे, हाथी आदि के लिए (नः) हमारे (कामम्) सब लोगों की कामना (समन्तात्) सब ओर से (आपृणम्) पूर्ण कीजिए ॥९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) जगदीश्वरः (इमम्) वेदमन्त्रैः प्रेम्णा सत्यभावेनानुष्ठीयमानम् (नः) अस्माकम् (कामम्) काम्यत इष्यते सर्वैर्जनैस्तम् (आ) अभितः (पृण) पूरय (गोभिः) इन्द्रियपृथिवीविद्याप्रकाशपशुभिः (अश्वैः) आशुगमनहेतुभिरग्न्यादिभिस्तुरङ्गहस्त्यादिभिर्वा (शतक्रतो) शतमसंख्यातानि क्रतवः कर्माण्यनन्ता प्रज्ञा वा यस्य तत्सम्बुद्धौ सर्वकामप्रदेश्वर ! (स्तवाम) नित्यं स्तुवेम (त्वा) त्वाम् (स्वाध्यः) ये स्वाध्यायन्ति ते। अत्र स्वाङ् पूर्वाद् ध्यै चिन्तायाम् इत्यस्मात् ध्यायतेः सम्प्रसारणं च। (अष्टा०३.२.१७८) अनेन क्विप् सम्प्रसारणं च॥९॥
विषयः- अथेन्द्रेशब्देनेश्वर्यगुणा उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- हे शतक्रतो जगदीश्वरः! यम्त्वा स्वाध्यो वयम्त्वां स्तवामः स्तुवेम स त्वं गोभि: अश्वै: नः अस्माकं काममापृणं समन्तात्पूरय॥महर्षिकृतः॥९॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वरस्यैतत्सामर्थ्यं वर्त्तते यत् पुरुषार्थिनो धार्मिकाणां मनुष्याणां स्वस्वकर्मानुसारेण सर्वेषां कामानां पूर्तिं करोति। यः सृष्टौ परमोत्तमपदार्थोत्पादनधारणाभ्यां सर्वान् प्राणिनः सुखयति तस्मात्स एव सर्वैर्नित्यमुपासनीयो नेतरः॥९॥
सूक्तस्य भावार्थः- अस्य षोडशसूक्तार्थस्यर्त्तुसम्पादकानां सूर्य्यवाय्वादीनां यथायोग्यं प्रतिपादनात् पञ्चदशसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपदेशवासिभिरध्यापकविलसनादिभिश्च विपरीतार्थे व्याख्यातमिति॥९॥
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे (शतक्रतो) अनन्तक्रियेश्वर! आप असंख्यात विज्ञानादि यज्ञों से प्राप्य हो तथा अनन्तक्रियाबलयुक्त हो, सो आप (गोभिरश्वैः) गाय, उत्तम इन्द्रिय, श्रेष्ठ पशु, सर्वोत्तम अश्वविद्या (विमानादियुक्त) तथा (अश्व) अर्थात् श्रेष्ठ घोड़ादि पशुओं और चक्रवर्ती राज्यैश्वर्य से (सेमं,नः, काममापृण) हमारे काम को परिपूर्ण करो। फिर हम भी (स्तवाम, त्वा, स्वाध्यः) सुबुद्धियुक्त होके उत्तम प्रकार से आपका स्तवन (स्तुति) करें। हमको दृढ़ निश्चय है कि आपके विना दूसरा कोई किसी का काम पूर्ण नहीं कर सकता। जो आपको छोड़के दूसरे का ध्यान वा याचना करते हैं, उनके सब काम नष्ट हो जाते हैं ॥ ३५ ॥
विषय
शतक्रतु
पदार्थ
१. हे (शतक्रतो) - अनन्त प्रज्ञानों व कर्मोंवाले प्रभो! (सः) - वे आप (नः) - हमारी (इमम् कामम्) - इस इच्छा को (आपृण) - सर्वथा पूरित करो कि (गोभिः) - ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा [गमयन्ति अर्थान्] तथा (अश्वैः) - कर्मेन्द्रियों के द्वारा [अश्नुवते कर्मसु] (स्वाध्यः) - [सुष्ठु सर्वतो ध्यानयुक्ताः] सब ओर से इन्द्रियों को एकाग्र करके चिन्तन करनेवाले हम (त्वा) - आपका ही (स्तवाम) - स्तवन करें ।
२. संसार में इस मानवजीवन के मिलने पर इससे उत्तम सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि हम 'प्रभुध्यान - प्रवण चित्तवृतिवाले' बनें , अतः मन्त्र में यही प्रार्थना करते हैं कि प्रभो! आप यह कृपा करें कि हम एकाग्रता से आपका स्तवन करनेवाले बनें । हमारी ज्ञानेन्द्रियों सृष्टि के पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करती हुई उन पदार्थों में आपकी महिमा को देखनेवाली हों । हमारी कर्मेन्द्रियाँ आपके निर्देशों को क्रियान्वित करने में लगी रहें । हमारी चित्तवृत्तियाँ आपके ही स्वरूप का चिन्तन करें ।
३. ऐसा होने पर ही हे शतक्रतो प्रभो! हम भी आपके अधिकाधिक समीप पहुँचते हुए कुछ अंशों में 'शतक्रतु' बन पाएँगे । यही हमारे जीवन का चरम सौन्दर्य होगा ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ , कर्मेन्द्रियों व चित्तवृत्तियाँ प्रभुस्तवन करनेवाली हों । यह स्तवन हमें भी शतक्रतु बनानेवाला हो ।
विशेष / सूचना
विशेषः - सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि प्रभु का दर्शन उन्हें होता है जो पर - दुःख - हरण में प्रवृत्त होते हैं और सूर्य के समान दीप्तज्ञानवाले बनते हैं [१] । हमारी कर्मेन्द्रियाँ धारणात्मक कर्मों में लगें और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान का प्रसार करें [२] । हम सदा प्रभु का स्मरण करें [३] । प्रभुस्तुति को जीवन में अनूदित कर , यज्ञशील हों और सोम के पान की हममें अभिलाषा हो [५] । ये सोम ही तो हमें शक्ति व सहिष्णुता प्राप्त कराएँगे [६] । इस सोम के रक्षण के लिए हमें प्रभुस्तवन प्रिय हो [७] । हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ प्रभु की महिमा को देखें , कर्मेन्द्रियाँ प्रभु - प्रतिपादित यज्ञों के करनेवाली हों , चित्तवृत्तियाँ प्रभुचिन्तन में लीन हों [९] । इसके लिए हम इन्द्र और वरुण का उपासन करें , अर्थात् 'जितेन्द्रिय व व्रतों के बन्धन में अपने को बाँधनेवाले बनें' - इन शब्दों से अगला सूक्त प्रारम्भ होता है -
विषय
काम पूरक प्रभु । पक्षान्तर में राजा का वर्णन
भावार्थ
हे ( शतक्रतो ) असंख्य कर्मों और प्रज्ञाओं वाले परमेश्वर ! या राजन् ! (सः) वह तू (नः) हमारे ( इमम् ) इस ( कामम् ) मनोरथ अभिलाषा को ( गोभिः ) गौओं और अश्वों से गृहस्थ और राष्ट्र के कार्यों के समान ( आ पृण ) पूर्णकर । हम ( स्वाध्यः ) उत्तम रीति से तेरी चिन्ता करने वाले भक्तजन ( त्वा ) तेरी ही ( स्तवाम ) स्तुति करते हैं, तेरा ही गुणानुवाद करते हैं । अध्यात्म में—( गोभिः ) ज्ञानेन्द्रियों और ( अश्वैः ) कर्मेंन्द्रियों से अपनी अभिलाषा को पूर्ण कर । हम शुभचिन्तक ध्यानशील होकर तेरी स्तुति करें । इत्येकत्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
(पूर्वपीतये सोम्यं मधु त्वा-अभि सुजामि) हे विद्युत् प्रथम पान के लिए सोममय मधु-मधुर रस-मेघ सम्पादित करता हूँ (अग्नेः मरुद्भिः आगहि) विद्युत् तू वातस्तरों के साथ प्राप्त हो ॥९॥
टिप्पणी
विद्युत् और महतों-वातस्तरो के द्वारा वृष्टि होती है जब विद्युत् वातस्तरों से युक्त हो, तो अकेली विद्युत् से नहीं जब वातस्तर विद्युत् से युक्त हों, अकेले वातस्तरो से नहीं विद्युत् और वातस्तरों का मेल होता है सूक्ष्म जल कणों द्वारा, सूक्ष्म जल कण आकाश में सम्पन्न होते हैं यहां सूक्त में बतलाए विद्युत्, और वातस्तरों के योग से तथा सोम आदि औषधियां मिष्ट पुष्ट मधुर आदि पदार्थों के होम से “दिवो नो वृष्टि मरुतो रीध्वम्” (ऋ० ५।८३।६) "मरुतो वै वर्षस्येशते" (शत० राश "विद्यद्धीदं वृष्टिमन्नाद्यं सम्प्रयच्छति') (ऐत २।४१) आधिभौतिक अर्थ -राजा और राजपुरुषों के मेल से राष्ट्रसंचालन सुख-वृष्टि 'होना सम्भव है मरुत राजपुरुष हैं "असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानेत्यभ्योजसा स्पर्द्धमाना। तां विध्यत तमसापव्रतेन-यथैषामन्योऽन्यं न जानात्" ॥ (अथर्व० ३।२।६) (अग्ने पूर्वपीतये सोम्यं मधु-अभि सृजामि) हे युवराज ! प्रथम सोमपान सोम आदि ओषधियों का रस मधु मिष्ट पुष्ट पदार्थों से मिला तेरे पीने को मैं पुरोहित तैयार करता पीकर राजशासक पदका अभिमान कर (मरुद्भि:-आमहि) राज पुरुषों के साथ राज पद को प्राप्त हो ॥९॥ सोम आदि ओषधियों का प्रत्यग्र रसपान मधु दूध घृत से संस्कृत राजा को पान करने से इस में आत्मिक योज मानसिक तेज शारीरिक बल प्राप्त होता है राजपुरुषों के साथ राज्य शासन करने में पूर्ण समर्थ होता है ।
विशेष
ऋषिः-काण्वो मेधातिथिः [“कण्वः-मेधाविनाम" (निघं० ३।१५) "करण शब्दे" (भ्वादि०) "करण गतौ” (स्वादि०) मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील का पुत्र शिष्य अधिक मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील जो मेधा से प्रचार करने वाला “मेट मेधायाम्" (स्वादि०) मेघ+अच् मेधश्चासौ अतिथिश्च ] देवता - अग्निर्मरुतश्च ( अग्नि और मरुत्स्तर ) इस सूत्र के प्रथम और नवम मन्त्र निरुक्त में व्याख्यात हैं । वहां इस सूक्त में आए अग्नि को मध्यस्थानी देवों में पढ कर मध्यम देव बतलाया है पार्थिव अग्नि नहीं किन्तु विद्युत्-अग्नि “कमन्यं मध्यमादेवमवक्ष्यत्" (निरु० १०।३६) अतः सूक्त व्याख्या विद्युत् सम्बन्धी वृष्टिविज्ञानपरक "वर्षकामेष्टिः कारीरी" (विनियोगः) तथा "मनुष्यवद देवताभिधानम्" (निरु० १।२) के अनुसार द्युस्थान देवताओं के गुणवर्णन ब्राह्मणोंविद्वानों के लिए मध्यस्थानी देवताओं के गुणवर्णन क्षत्रियों के लिए होने से राजनैतिक वर्णन राज्यशासनविधान युद्धविज्ञान का है।
मराठी (2)
भावार्थ
ईश्वरात सदैव हे सामर्थ्य असते की पुरुषार्थी धर्मात्मा माणसांच्या कर्मानुसार सर्व कामना पूर्ण करणे व जगात अत्युत्तम पदार्थाचे उत्पादन करणे व धारण करणे आणि सर्व प्राण्यांना सुखी करणे इत्यादी. त्यामुळे सर्व माणसांनी त्याच परमेश्वराची उपासना नित्य केली पाहिजे. ॥ ९ ॥
टिप्पणी
या सूक्ताचाही अर्थ सायणाचार्य इत्यादी तसेच युरोपदेशवासी अध्यापक विल्सन इत्यादींनी विपरीत लावलेला आहे.
विषय
प्रार्थना
व्याखान
हे (शतक्रतो) अनंत कर्मकर्या ईश्वरा ! तू असंख्य व विज्ञान इत्यादी यज्ञामुळे प्राप्त होतोस. तू अनंत बल व क्रिया यांनी युक्त आहेस. म्हणून (गोभिरश्वैः) गाय, उत्तम इंद्रिये, श्रेष्ठ पशु, सर्वोत्तम अश्वविद्या [विमान इत्यादींनी युक्त] श्रेष्ठ घोडे इत्यादी पशू आणि चक्रवर्ती राज्याच्या ऐश्वर्याने (सेमं, नः, काममापृण) आमचे काम पूर्ण होऊ दे. आम्ही (स्तवाम त्वा स्वाध्यः) सुबुद्धीने तुझे स्तवन करावे. आमचा असा दृढ विश्वास आहे की तुझ्याखेरीज दुसरा कोणीही कुणाचेही काम पूर्ण करू शकत नाही. तुला सोडून जे दुसऱ्याचे ध्यान किंवा याचना करतात त्यांची सर्व कामे नष्ट होतात. ॥३५॥
इंग्लिश (4)
Meaning
Indra, Lord of infinite acts of creative yajna and joyous fulfilment, fulfil our noble desires and ambitions with cows and horses, health of mind and senses and the fastest modes of motion and attainment. Pious, thoughtful and meditative, we worship you alone.
Purport
O Lord of infinite activity! You are accessible to man through innumerable acts such as acquiring right knowledge and performing good actions. You are possessed with infinite actions and powers. Therefore, kindly fulfil our desires in this very life by bestowing on us good organs of body, cows, the best kind of cattle, the best knowledge of horses [the techniqe of building airplanes] and also political sovereignity. After attaining right wisdom we should glorify you, adore you, priase you. We have firm belief that none except you can fulfil our hopes. Those who ignoring you meditate on and pray to other inanimate false Gods, all their hopes and intentions are nullified subverted.
Subject of the mantra
Now, by the word ‘Indra’ God’s virtues have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (śatakrato)=Doer of enumerable deeds and having extreme knowledge of specific knowledge, (jagadīśvara)=God, (svādhyaḥ)=those studying Vedas and their inner self, (vayam)=we, (tvam)=your, (stavāma)=worship daily, (saḥ)=he, (tvām)=you, (gobhiḥ)= senses, earth, knowledge, light and animals, (aśvai:)=energy in the form of fire etc. for walking and running, and for horses, elephants etc., (naḥ)=our, (kāmam)=desires of all, (samantāt)=from every direction, (āpṛṇam)=fulfill.
English Translation (K.K.V.)
O doer of enumerable deeds and having extreme specific knowledge, God! Those studying Vedas and their inner self, such we people should worship You daily. That You, who fulfill the wishes of all of us for senses, earth, knowledge, light and animals; and for the desire of horses, elephants etc. and energy in the form of fire et cetera for quick movement.
Footnote
Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- The translation of this hymn should be understood in association with the translation of the previous sixteenth hymn by the proper rendering of the explanations. According to Maharishi, the translation of this hymn has also been done wrongly in opposite senses by Sayanacharya etc. and European scholars of Indology, like Wilson et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is always this power in God that the virtuous soul fulfills all the desires of the human beings according to their deeds and who by producing and possessing the supremely good things in the world makes all living beings happy. Therefore, all human beings should worship the same God daily.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now by Indra the attributes of God are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Do Thou O God of infinite knowledge and action fulfil our noble desire which is being expressed with the Vedic Mantras and with all sincerity. Fill, us with the cows, senses, land, the light of wisdom and with the fire and horses etc. With holy thoughts absorbed in Thee or profoundly meditating, we glorify Thee.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(गोभिः) इन्द्रियपृथिवीविद्याप्रकाशपशुभिः = With the senses, land, the light of wisdom and cows. (शतक्रतो) शतम् असंख्यातानि क्रतवः कर्माणि अनन्ताप्रज्ञा वा यस्य तत्सम्बुद्धौ = God of infinite wisdom and actions. (स्वाध्यः ) ये सु आध्यायन्ति ते = Meditating well. सर्वकामप्रदेश्वर = Fulfiller of all desires.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is through His power that God fulfils the desires of all industrious and righteous persons according to their actions. Because God gives happiness to all beings by creating all good things and by upholding them, therefore He alone is to be adored by all and none else. In this sixteenth hymn, there is the mention of the sun and air etc. which make seasons, therefore it is connected with the previous hymn. This hymn also has been wrongly explained by Sayanacharya, Prof. Wilson and others.
Translator's Notes
We have already pointed out some blunders committed by Sayanacharya, Prof. Wilson and Griffith in our notes. Their fundamental mistake is in taking the word Indra, not for God or the sun or the air, but for some legendary God sitting some where in heaven, to whom these prayers are addressed to drink the Some Juice etc. As a matter of fact, by Indra is meant God who is the Lord of the whole universe or in some places, the sun and the air as pointed out by Rishi Dayananda, We have quoted passages from the Brahmanas and other literature to substantiate his interpretation.
नेपाली (1)
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे शतक्रतो अनन्तक्रियेश्वर ! हजुर असंख्यात विज्ञानादि यज्ञ हरु बाट प्राप्य हुनुहुन्छ तथा अनन्तक्रियाबलयुक्त हुनुहुन्छ, अतः तपाईं गोभिरश्वैः = गौ, उत्तम इन्द्रिय, श्रेष्ठ पशु, सर्वोत्तम अश्वविद्या [विमानादियुक्त ] तथा 'अश्व' अर्थात् असल घोडा आदि पशु हरु र चक्रवर्ती राज्यैश्वर्य ले सेमं, नः, काममापृण= हाम्रो काम परिपूर्ण गरिदिनुहोस् । हामी पनि स्तवाम, त्वा, स्वाध्यः = सुबुद्धियुक्त भएर उत्तम प्रकार ले हजुरको स्तवन [स्तुति] गर्न सकौं । हामीलाई दृढ निश्चय छ कि हजुर बिना अरू कसैले पनि काम पूर्ण गर्न सक्तैन । जो व्यक्ति हजुरलाई छोडेर अर्काको ध्यान वा याचना गर्दछन्, तिनीहरुका सबै काम नाश हुन जान्छन् ॥३५॥
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