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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 16/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒यं ते॒ स्तोमो॑ अग्रि॒यो हृ॑दि॒स्पृग॑स्तु॒ शंत॑मः। अथा॒ सोमं॑ सु॒तं पि॑ब॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ते॒ । स्तोमः॑ । अ॒ग्रि॒यः । हृ॒दि॒ऽस्पृक् । अ॒स्तु॒ । शम्ऽत॑मः । अथ॑ । सोम॑म् । सु॒तम् । पि॒ब॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं ते स्तोमो अग्रियो हृदिस्पृगस्तु शंतमः। अथा सोमं सुतं पिब॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। ते। स्तोमः। अग्रियः। हृदिऽस्पृक्। अस्तु। शम्ऽतमः। अथ। सोमम्। सुतम्। पिब॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 16; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    स कीदृग्गुणोऽस्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    मनुष्यैर्यथाऽयं वायुः पूर्वं सुतं सोमं पिबाथेत्यनन्तरं ते तस्याग्रियो हृदिस्पृक् शंतमः स्तोमो भवेत् तथाऽनुष्ठातव्यम्॥७॥

    पदार्थः

    (अयम्) अस्माभिरनुष्ठितः (ते) तस्यास्य (स्तोमः) गुणप्रकाशसमूहक्रियः (अग्रियः) अग्रे भवोऽत्युत्तमः। घच्छौ च। (अष्टा०४.४.११७) अनेनाग्रशब्दाद् घः प्रत्ययः। (हृदिस्पृक्) यो हृद्यन्तःकरणे सुखं स्पर्शयति सः (अस्तु) भवेत्। अत्र लडर्थे लोट्। (शन्तमः) शं सुखमतिशयितं यस्मिन्सः। शमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (अथ) आनन्तर्य्ये निपातस्य च इति दीर्घः। (सोमम्) सर्वपदार्थाभिषवम् (सुतम्) उत्पन्नम् (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥७॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः शोधित उत्कृष्टगुणोऽयं पवनोऽत्यन्तसुखकारी भवतीति बोध्यम्॥७॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    उक्त वायु कैसे गुणवाला है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    मनुष्यों को जैसे यह वायु प्रथम (सुतम्) उत्पन्न किये हुए (सोमम्) सब पदार्थों के रस को (पिब) पीता है, (अथ) उसके अनन्तर (ते) जो उस वायु का (अग्रियः) अत्युत्तम (हृदिस्पृक्) अन्तःकरण में सुख का स्पर्श करानेवाला (स्तोमः) उसके गुणों से प्रकाशित होकर क्रियाओं का समूह विदित (अस्तु) हो, वैसे काम करने चाहियें॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्यों के लिये उत्तमगुण तथा शुद्ध किया हुआ यह पवन अत्यन्त सुखकारी होता है॥७॥

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    विषय

    उक्त वायु कैसे गुण्वाला है, इस विषय का इस मन्त्र में उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    मनुष्यै: यथा अयं वायुः पूर्वं सुतं सोमं पिब अथ इति अनन्तरं ते तस्य अग्रिय:  हृदिस्पृक् शंतमः स्तोम: भवेत्तथा अनुष्ठातव्यम्॥७॥  

    पदार्थ

    (मनुष्यै:)=मनुष्यों के लिए, (यथा)=जैसे, (अयम्)=यह, (वायुः)=वायु, (पूर्वम्)=पहले, (सुतम्)=उत्पन्नम्=उत्पन्न किये हुए, (सोमम्) सर्वपदार्थाभिषवम्=सब पदार्थों के रस को, (पिब)=पीता है, (अथ)=अब, (इति)=इसके, (अनन्तरम्)=बाद, (ते)=वे,  (तस्य)=उसके, (अग्रिय:) अग्रे भवोऽत्युतम:, (हृदिस्पृक्) यो हृद्यन्तकरणे सुखं स्पर्शयति सः=अन्त:करण में सुख का स्पर्श करानेवाला, (शंतमः) शं सुखमतिशयितं यस्मिन्सः=जिसमे अतिशय सुख हों,  (स्तोम:) गुणप्रकाशसमूहक्रियः=गुणो से प्रकाशित होकर क्रियाओं का समूह, (भवेत्)=हो, (तथा)=वैसे ही, (अनुष्ठातव्यम्)=अनुष्ठान करना चाहिए ॥७॥  


     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के लिये जैसे यह पवन पहले उत्पन्न किये हुए सब पदार्थों के रस पीने के बाद वे उसके पहले अति उत्तम अन्त:करण में सुख का स्पर्श करानेवाले होते हैं, जिनमें  अतिशय सुख हों और गुणो से प्रकाशित होकर क्रियाओं का समूह हो, वैसे ही अनुष्ठान करना चाहिए॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (मनुष्यै) मनुष्यों के लिए (यथा) जैसे (अयम्) यह (वायुः) वायु (पूर्वम्) पहले  (सुतम्) उत्पन्न किये हुए (सोमम्) सब पदार्थों के रस को (पिब) पीता है। (अथ) अब (इति) इसके (अनन्तरम्) बाद (ते) वे  (तस्य) उसके (अग्रिय) पहले अति उत्तम  और  (हृदिस्पृक्) अन्त:करण में सुख का स्पर्श करानेवाले होते हैं । (शंतमः) जिनमें  अतिशय सुख हों (स्तोम:) और गुणो से प्रकाशित होकर क्रियाओं के समूह (भवेत्) हों। (तथा) वैसे ही (अनुष्ठातव्यम्) अनुष्ठान करना चाहिए॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अयम्) अस्माभिरनुष्ठितः (ते) तस्यास्य (स्तोमः) गुणप्रकाशसमूहक्रियः (अग्रियः) अग्रे भवोऽत्युत्तमः। घच्छौ च। (अष्टा०४.४.११७) अनेनाग्रशब्दाद् घः प्रत्ययः। (हृदिस्पृक्) यो हृद्यन्तःकरणे सुखं स्पर्शयति सः (अस्तु) भवेत्। अत्र लडर्थे लोट्। (शन्तमः) शं सुखमतिशयितं यस्मिन्सः। शमिति सुखनामसु पठितम्। (निघं०३.६) (अथ) आनन्तर्य्ये निपातस्य च इति दीर्घः। (सोमम्) सर्वपदार्थाभिषवम् (सुतम्) उत्पन्नम् (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥७॥
    विषयः- स की दृग्गुणो ऽस्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- मनुष्यैर्यथाऽयं वायुः पूर्वं सुतं सोमं पिबाथेत्यनन्तरं ते तस्याग्रियो हृदिस्पृक्शंतमः स्तोमो भवेत्तथाऽनुष्ठातव्यम् ॥महर्षिकृतः ॥७॥ 

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्यथाऽयं वायुः पूर्वं सुतं सोमं पिबाथेत्यनन्तरं ते तस्याग्रियो हृदिस्पृक् शंतमः स्तोमो भवेत् तथाऽनुष्ठातव्यम्॥७॥

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    विषय

    सोमपान का साधन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में सोमपान का महत्त्व प्रतिपादित हुआ है । सोमपान से शक्ति व सहस की उत्पत्ति होती है । इस सोमपान का महत्त्वपूर्ण साधन यह है कि हम सदा प्रभु का स्तवन करनेवाले बनें ताकि हमारे हृदय वासनाशून्य हों । वासनाशून्य हृदय में ही सोम का निवास है , अतः प्रभु कहते हैं कि - (अयम्) - यह (ते) - तुझसे किया जानेवाला (स्तोमः) - स्तुतिसमूह (ते अग्रियः) तेरे [अग्नेभवः] आगे होनेवाला (अस्तु) - हो , अर्थात् यह सदा तेरे सामने आदर्शवाक्य [motto] के रूप में हो , तुझे यह ध्यान हो कि मुझे ऐसा ही बनना है । यह स्तोम तेरे लिए (हृदिस्पक अस्तु) - हृदय को स्पर्श करनेवाला हो , तेरे हृदय में यह समा जाए । तेरी यह प्रबल कामना हो कि तुझे ऐसा ही बनना है । (शन्तमः) - यह स्तोम तुझे अधिक - से - अधिक शान्ति देनेवाला हो । इस लक्ष्य का ध्यान आने पर तुझे हृदय में अच्छा प्रतीत हो । (अथा) - अब ऐसा हो सकने के लिए तू (सुतम् पिब) - आहार से उत्पन्न हुए इस सोम का पान कर । इस सोम के पान से ही उस महान् लक्ष्य की - प्रभु जैसा ही बन जाने की सिद्धि सम्भव होगी । यह महान् लक्ष्य स्वयं सोम के रक्षण में सहायक होता है और रक्षित हुआ - हुआ सोम हमें महान् लक्ष्य को प्राप्त करानेवाला बनता है । लक्ष्य सोमरक्षण के लिए होता है , सोमरक्षण लक्ष्यप्राप्ति के लिए होता है । इस सोम [वीर्य] ने ही हमें उस सोम [प्रभु] - जैसा बनाना है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु के स्तोम [स्तुतिवाक्य] को हम अपने जीवन का आदर्शवाक्य बनाएँ । यह हमारे हृदय में स्थिर हो जाए और हमें शान्ति देनेवाला हो । हम इसकी प्राप्ति के लिए सोम का रक्षण करें । 

     

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1116 
    ओ३म् अ॒यं ते॒ स्तोमो॑ अग्रि॒यो हृ॑दि॒स्पृग॑स्तु॒ शन्त॑मः ।
    अथा॒ सोमं॑ सु॒तं पि॑ब ॥ ऋग्वेद १/१६/७

    जब से सृष्टि आई सत्ता में 
    वेद की विद्या पाई 
    तब से ज्ञान कर्म उपासना 
    प्रभु की महिमा दी सुनाई

    स्तुति समूह की दिव्य वाणी 
    ज्ञान प्रदायक शान्ति दायक 
    धार्मिक वेद-वाणी 
    तृण से ब्रह्म तक बताये
    काव्यक वाणी है मङ्गलदायी 
    स्तुति समूह की दिव्य वाणी 
    ज्ञान प्रदायक शान्ति दायक 
    धार्मिक वेद-वाणी 

    ईश-ज्ञान का प्रमाण बताये 
    वेद गुणों को ऋषि साधु सन्त गायें
    पूर्वजों का हितैषी कहाये
    भावी जगत में भी प्रेरणा जगाये 
    आदि सृष्टि का सत्य सनातन 
    प्रथम ग्रन्थ है जीव मात्र का 
    ज्ञान कर्म का दानी
    स्तुति समूह की दिव्य वाणी 
    ज्ञान प्रदायक शान्ति दायक 
    धार्मिक वेद-वाणी 

    सूर्य-चन्द्र का प्रकाश फैलाए 
    घोर अन्धकार भी दूर भगाए 
    तीन सत्ताओं का ज्ञान कराये 
    ज्ञान-विज्ञान-प्रकाश फैलाये 
    स्वात्मा से परमात्मा तक 
    दर्शन हमें कराये 
    अद्भुत वेद की वाणी 
    स्तुति समूह की दिव्य वाणी 
    ज्ञान प्रदायक शान्ति दायक 
    धार्मिक वेद-वाणी 

    जो ना पाए वेदरूपी धन को 
    वह असमर्थ है श्रवण मनन को 
    ज्ञान है वेद का हृदयस्पर्शी 
    बन जाते हैं ज्ञान के सुदर्शी 
    वेद उपदेश को समझ समझ के 
    श्रवण मनन निदिध्यासन करके 
    बनते मोक्ष के गामी
    स्तुति समूह की दिव्य वाणी 
    ज्ञान प्रदायक शान्ति दायक 
    धार्मिक वेद-वाणी 

    प्रेरणादायक सोम स्वरूप है 
    स्तुति-समूह की मोहक वाणी 
    पूर्व काल से वर्तमान तक 
    प्रामाणिक है कल्याणकारी 
    परम पवित्र ब्रह्म की वाणी 
    दु:खवारक सुखदायक वाणी 
    लाभान्वित करें जग-प्राणी 
    स्तुति समूह की दिव्य वाणी 
    ज्ञान प्रदायक शान्ति दायक 
    धार्मिक वेद-वाणी 
    तृण से ब्रह्म तक बताये
    काव्यक वाणी है मङ्गलदायी 
    स्तुति समूह की दिव्य वाणी 
    ज्ञान प्रदायक शान्ति दायक 
    धार्मिक वेद-वाणी 
    धार्मिक वेद-वाणी 

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :-   ०२.०९.२०२१           ९.१५ सायं
    राग :- पहाड़ी
    गायन समय सायं 5:00 से 9:00, ताल कहरवा 8 मात्रा
                          
    शीर्षक :- वेद  शान्तिप्रद है भजन 689 वां
    *तर्ज :- *
    0120-720  

    ब्रह्म = ज्ञानवान परमेश्वर
    तृण = तिनका 
    हितैषी = हित चाहने वाला
    तीन सतायें = जीव, प्रकृति और परमात्मा
    सुदर्शी = अच्छी तरह देखने वाला
    निदिध्यासन = अनवरत गहरा चिन्तन
     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
    वेद  शान्तिप्रद है 

    पक्षपात रहित सभी विद्वान इस बात में सहमत हैं कि वेद संसार में सबसे पुराना ग्रंथ है इसलिए इसे अग्रिम कहा है। यह अग्रों का पहलों का भी हितकारी है। सबसे पहला ज्ञान भगवान से मिलना चाहिए वह वेद है।  कणाद महर्षि तो इसी कारण वेद की प्रमाणिकता मानते हैं, ('तद्वचना दाम्नायस्य प्रमाण्यम्') ईश्वर वचन होने से वेद की प्रमाणिकता है।
     यह वेद  'स्तोम्'  है यानी स्तुति समूह है। तृण से ब्रह्म पर्यंत सभी पदार्थों की स्तुति गुण गाथा इसमें है। उदाहरण के लिए जीव के सम्बन्ध में कहा गया है:- 'अपश्यं गोपाम निषद्यमानम् '-- मैंने अविनाशी और गोप (अर्थात् इंद्रियों के स्वामी को देखा है। ' आत्मा को इन्द्रियों से पृथक तथा अविनाशी कहा गया है। इसी प्रकार परमात्मा के समबन्ध में कहा है वेदाहमेतं पुरुषं महानतमादित्यवर्णं...... यजुर्वेद ३१/१८ मैंने उस महान सूर्य के प्रकाशक अज्ञान अन्धकार से विरहित सर्वव्यापक के दर्शन किए हैं । प्रकृति का निरूपण इन शब्दों में हुआ है ऐषा सनत्नी.....(अथ॰ १०.८.३०)यह सदा रहने वाली प्रकृति सदा से ही विद्यमान है, यह पुरानी पुरानी होती हुई भी नई सब कार्यों में विद्यमान है। उसका इसी भांति जीवन-उपयोगी सभी पदार्थों का ज्ञान वेद में कराया गया है। और यह अत्यन्त शान्ति प्रदान करता है। शान्ति तो परमात्मा के दर्शन से होती है। जैसा कठोपनिषत् में लिखा है जो सब पदार्थों का अन्तरात्मा सब को नियंत्रण में रखने वाला अकेला ही एक प्रकृति रूपी बीज को अनेक प्रकार का बना देता है, आत्मा में रहने वाले उस परमात्मा के जो ध्यानी दर्शन करते हैं उन्हें ही शाश्वत सुख मिलता है दूसरों को नहीं ।वह नित्यों में नित्य अर्थात् सदा एकरस और चेतनों का चेतन अर्थात् सर्वज्ञ है। वह अकेला अनेकों की कामनाएं पूरी करता है। उस आत्मा के जो धीर, धैर्य वाले, दर्शन करते हैं उन्हें अखंड शान्ति मिलती है।दूसरों को नहीं।
     ठीक है शान्ति परमात्मा के दर्शन से मिलती है किन्तु परमात्मा के समबन्ध में यथार्थ ज्ञान वेद से ही मिलता है (ना वेदविन्मनुते तं बृहन्तम् )वेद ना जानने वाला उस महान भगवान का मनन नहीं कर पाता अतः वेद का श्रवण अध्ययन मनन चिंतन धारण प्रत्येक शान्ति के अभिलाषी का कर्तव्य है । इस भाव को लेकर कहा गया है, हृदय को स्पर्श करने वाला केवल वाणी से ही वेद मन्त्र को ना रटे, हृदय में उनका स्पर्श भी हो। वेद तो है ही परमात्मा का वर्णन करने के लिए कहा:- ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्.... ऋ.१.१६४.३९  वेद सर्वव्यापक अविनाशी परमात्मा का ज्ञान कराने के लिए है। भगवान का आदेश है कि जब इस प्रकार तू इस अग्रिम ज्ञान को हृदयस्पर्शी कर ले, तब निष्पादित सोम का पान कर ।ऐश्वर्य का पान कर। 
    बहुत सुन्दर बात कही है पहले ज्ञान पीछे अनुष्ठान। 
    पहले पदार्थों को जान पश्चात् उनका यथा योग्य उपयोग कर। ऋषि, इसलिए ज्ञान को कर्म से पूर्व स्थान देते हैं ।
    ध्वनि निकलती है कि यदि तुझे पदार्थों का ज्ञान कराने के लिए तथा तदनुसार कर्म करने के लिए दिया गया है अतः तू वेद का अध्ययन करके उसके अनुसार जीवन बना और बिता ।इसी में सफलता है।
    🕉🧘‍♂️ईश भक्ति भजन
    भगवान् ग्रुप द्वारा🎧🙏
    🕉 वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं❗❤🙏

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    विषय

    शान्ति प्रद

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! ( ते ) तेरा ( अयं ) यह ( हृदिस्पृक् ) हृदय को स्पर्श करने वाला, अतिप्रिय, मनोहर ( स्तोमः ) स्तुति समूह ( अग्रियः ) सबसे श्रेष्ठ, सर्वोत्तम, ( शंतमः ) अतिशान्तिदायक ( अस्तु ) हो । ( अथ ) और तू ( सुतं ) उत्पन्न हुए इस ( सोमं ) जीव को ( पिब ) पानकर, अपनी शरण में ले । राजा के पक्ष में—( स्तोमः ) यह अधिकार सर्वश्रेष्ठ, सबके हृदयों को स्पर्श करने वाला तुझे शान्तिदायक हो । तू इस अभिषेक से प्राप्त राष्ट्र, या ( सोमं ) राजपद को स्वीकार कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    काण्वो मेधातिथिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांसाठी शुद्ध व उत्कृष्ट गुणयुक्त वायू अत्यंत सुखकारक असतो. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, this song of celebration and yajna in your honour, first and foremost programme of creativity, may be, we pray, a pleasure to the heart and a source of peace and solace. And now, therefore, protect and promote the soma distilled, and drink of it freely with the gift of grace.

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    Subject of the mantra

    Which type of qualities aforesaid air has, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (manuṣyai)=For men, (yathā)=as, (ayam)=this, (vāyuḥ)=air, (pūrvam)=in primordial stage only, (sutam)=created, (somam)= to sap of all substances, (piba)=takes or drinks, (atha)=now, (iti)=its, (anantaram)=afterwards, (te=they, (tasya)=sap of all substances, (agriya)=firstly great, (hṛdispṛk)=heart touching and soothing to inner senses, (śaṃtamaḥ)=which has extreme delights, (stoma:)=group of deeds illuminated by virtues, (bhavet)=be, (tathā)=in the same way, (anuṣṭhātavyam)=ritual should be done.

    English Translation (K.K.V.)

    As for men, this air takes away this sap of all substances created in primordial stage only. Now, afterwards, those segments of the air, firstly are great, heart touching and soothing to inner senses which has extreme delights and group of deeds illuminated by virtues, in the same way rituals should be done.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    For human beings, just as this wind, after sucking the juices of all the things created earlier, they are the ones to touch the very best conscience before it, which has immense happiness and is illuminated with virtues and there is a group of actions, similarly rituals must be done.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Men should behave like the air that drinks the sap of all things and then whose glory is excellent and which touches the heart, is the giver of happiness and peace.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (स्तोमः) गुणप्रकाशसमूहक्रियः ॥ (सोमम्) सर्वपदार्थाभिषवम् ॥

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know that this excellent air when purified is the source of great happiness.

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