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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒मे सोमा॑स॒ इन्द॑वः सु॒तासो॒ अधि॑ ब॒र्हिषि॑। ताँ इ॑न्द्र॒ सह॑से पिब॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । सोमा॑सः । इन्द॑वः । सु॒तासः॑ । अधि॑ । ब॒र्हिषि॑ । तान् । इ॒न्द्र॒ । सह॑से । पि॒ब॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे सोमास इन्दवः सुतासो अधि बर्हिषि। ताँ इन्द्र सहसे पिब॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे। सोमासः। इन्दवः। सुतासः। अधि। बर्हिषि। तान्। इन्द्र। सहसे। पिब॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 16; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वायुः कस्मै कस्मिन् कान् पिबतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    येऽधिबर्हिषीश्वरेणेमे सोमास इन्दवः सहसे सुतास उत्पादितास्तानिन्द्रो वायुः प्रतिक्षणे पिबति॥६॥

    पदार्थः

    (इमे) प्रत्यक्षाः (सोमासः) सूयन्त उत्पद्यन्ते सुखानि येभ्यस्ते (इन्दवः) उन्दन्ति स्नेहयन्ति सर्वान् पदार्थान् ये ते रसाः। उन्देरिच्चादेः। (उणा०१.१२) इत्युः प्रत्ययः, आदेरिकारादेशश्च। (सुतासः) ईश्वरेणोत्पादिताः (अधि) उपरिभावे (बर्हिषि) बृंहन्ति वर्धन्ते सर्वे पदार्था यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्मिन्। बृंहेर्नलोपश्च। (उणा०२.१०९) अनेन इसिः प्रत्ययो नकारलोपश्च। (तान्) उक्तान् (इन्द्र) वायुः (सहसे) बलाय। सह इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥६॥

    भावार्थः

    ईश्वरेणास्मिन् जगति प्राणिनां बलादिवृद्धये यावन्तो मूर्त्ताः पदार्था उत्पादितास्तान् सूर्य्येण छेदितान् वायुः स्वसमीपस्थान् कृत्वा धरति तस्य संयोगेन प्राण्यप्राणिनो बलयन्ति॥६॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    अब वायु किसलिये किसमें किन पदार्थों के रस को पीता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    अधि बर्हिषि) जिसमें सब पदार्थ वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उस अन्तरिक्ष में (इमे) ये (सोमासः) जिनसे सुख उत्पन्न होते हैं, (इन्दवः) और सब पदार्थों को गीला करनेवाले रस हैं, वे (सहसे) बल आदि गुणों के लिये ईश्वर ने (सुतासः) उत्पन्न किये हैं, (तान्) उन्हीं को (इन्द्र) वायु क्षण-क्षण में (पिब) पिया करता है॥६॥

    भावार्थ

    ईश्वर ने इस संसार में प्राणियों के बल आदि वृद्धि के लिये जितने मूर्तिमान् पदार्थ उत्पन्न किये हैं, सूर्य्य से छिन्न-भिन्न किये हुए उनको पवन अपने निकट करके धारण करता है, उसके संयोग से प्राणी और अप्राणी बल पराक्रमवाले होते हैं॥६॥

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    विषय

    अब वायु किसलिए किसमें किसा पदार्थों के रस को पीता है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है॥६॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    ये अधिबर्हिषि ईश्वरेण इमे सोमास इन्दवः सहसे सुतास उत्पादिता:  तान्इन्द्र:  वायुः प्रतिक्षणे पिबति॥६॥ 

    पदार्थ

    (ये)=जो, (अधि) उपरिभावे=ऊपर, (बर्हिषि) बृंहन्ति वर्धन्ते  सर्वे पदार्था यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्मिन्=जिसमें सब पदार्थ वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उस अन्तरिक्ष में,  (ईश्वरेण)=ईश्वर  के  द्वारा, (इमे)=ये,  (सोमास:) सूयन्त उत्पद्यन्ते  सुखानि येभ्यस्ते=जिनसे सुख  उत्पन्न होते हैं, (इन्दवः) उन्दन्ति स्नेहयन्ति सर्वान्पदार्थान्ये ते रसाः=वे रस जो सब पदार्थों को गीला करते हैं, (सहसे) बलाय=बल आदि गुणों के लिए,  (सुतास:) ईश्वरणोत्पादिता:=ईश्वर द्वारा उत्पन्न किए हुए, (तान्)=उनको, (इन्द्र:) वायुः=वायु, (प्रतिक्षणे)=हर क्षण में, (पिबति)=पीता है॥  
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वर ने इस संसार में प्राणियों के बल आदि की वृद्धि के लिये जितने मूर्तिमान् पदार्थ उत्पन्न किये हैं। सूर्य्य से छिन्न-भिन्न किये हुए उनको पवन अपने निकट करके धारण करता है। उसके संयोग से प्राणी और अप्राणी बल पराक्रमवाले होते हैं॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (ये) जो (अधि) ऊपर (बर्हिषि) जिसमें सब पदार्थ वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उस अन्तरिक्ष में  (ईश्वरेण) ईश्वर  के  द्वारा [और]  (इमे) ये (सोमास:) जिनसे सुख  उत्पन्न होते हैं। (इन्दवः) वे रस जो सब पदार्थों को गीला करते हैं। (सहसे) बल आदि गुणों के लिए  (सुतास:)  ईश्वर द्वारा उत्पन्न किए हुए (तान्) उस (इन्द्रः) वायु को (प्रतिक्षणे) हर क्षण में (पिबति) पीता है॥  

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इमे) प्रत्यक्षाः (सोमासः) सूयन्त उत्पद्यन्ते सुखानि येभ्यस्ते (इन्दवः) उन्दन्ति स्नेहयन्ति सर्वान् पदार्थान् ये ते रसाः। उन्देरिच्चादेः। (उणा०१.१२) इत्युः प्रत्ययः, आदेरिकारादेशश्च। (सुतासः) ईश्वरेणोत्पादिताः (अधि) उपरिभावे (बर्हिषि) बृंहन्ति वर्धन्ते सर्वे पदार्था यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्मिन्। बृंहेर्नलोपश्च। (उणा०२.१०९) अनेन इसिः प्रत्ययो नकारलोपश्च। (तान्) उक्तान् (इन्द्र) वायुः (सहसे) बलाय। सह इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥६॥
    विषयः- अथ वायुः कस्मैः कस्मिन्कान्पिबतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- येऽधिबर्हिषीश्वरेणेमे सोमास इन्दवः सहसे सुतास उत्पादितास्तानिन्द्रो वायुः प्रतिक्षणे पिबति॥महर्षिकृतः॥६॥  


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वरेणास्मिन् जगति प्राणिनां बलादिवृद्धये यावन्तो मूर्त्ताः पदार्था उत्पादितास्तान् सूर्य्येण छेदितान् वायुः स्वसमीपस्थान् कृत्वा धरति तस्य संयोगेन प्राण्यप्राणिनो बलयन्ति॥६॥

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    विषय

    शक्ति व सहिष्णुता

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अन्तिम आदेश को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि - (इमे सोमासः) - ये सोमकण , सुरक्षित होने पर , शरीर में ही इनका व्यापन होने पर इन्दवः= [इन्द , to be powerful] तुझे शक्तिशाली बनानेवाले हैं । ये ही तो सम्पूर्ण शक्ति के मूल हैं । 

    २. (ये सुतासः) - उत्पन्न किये गये सोमकण (अधि बर्हिषि) - वासनाशून्य हृदय में ही होते हैं , अर्थात् जब हृदय वासना से रहित होता है तभी इन सोमकणों की शरीर में उत्पत्ति व स्थिति होती है । हृदय के वासनाओं से भरे होने पर भोजन से कुछ विष उत्पन्न होते हैं जो शक्ति के ह्रास का कारण बनते हैं । शोक , मोह , क्रोधादि के भाव वीर्यरक्षा के लिए सहायक न होकर अत्यन्त नाशक होते हैं । ब्रह्मचारी के लिए इनसे ऊपर उठना नितान्त आवश्यक है । 

    ३. प्रभु कहते हैं कि - हे (इन्द्र) - जितेन्द्रिय पुरुष! तू (सहसे) - सहनशक्ति की प्राप्ति के लिए (तान्) - उन सोमकणों को (पिब) - पीनेवाला बन । जितना - जितना हम इस सोम का रक्षण करते हैं , उतना - उतना ही हम सहस्वाले बनते हैं , हममें शक्ति का प्रादुर्भाव होता है । इस सोम का रक्षण न होने से ही चिड़चिड़ापन या खीज उठने , झट क्रोध में आ जाने की वृत्ति उत्पन्न होती है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारे शरीर में सुरक्षित सोमकण बल व सहनशक्ति को उत्पन्न करते हैं । इनका रक्षण हृदय के वासनाशून्य होने पर ही होता है । 

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    विषय

    महाशक्तिमान् सर्व धारक प्रभु ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) परमेश्वर ! ( इमे ) ये ( सुतासः ) उत्पन्न हुए ( इन्दवः ) परम ऐश्वर्ययुक्त ( सोमासः ) सूर्य, वायु आदि कारण पदार्थ ( बर्हिषि अधि ) अन्तरिक्ष और महान् आकाश में विद्यमान् हैं ( तान् ) उनको ( सहसे ) अपने बल से ( पिब ) पान कर, अपने भीतर धारण कर । अध्यात्म में—( सोमासः इन्दवः ) साक्षात् देह से देहान्तर में जाने वाले ये जीव ( बर्हिषि ) अन्न के आधार पर उत्पन्न हैं । हे परमेश्वर ! उन्हें अपने में धारण कर । जलों के पक्ष में—हे ( इन्द्र) सूर्य ! अन्तरिक्ष में ये द्रवणशील जल विद्यमान हैं उन्हें किरणों से पान कर। राजा के पक्ष में—( बर्हिषि ) प्रजाजन के ऊपर आज्ञा करने वाले ऐश्वर्यवान् उत्तम जन ( सुतासः ) अभिषिक्त हैं, उनको ( सहसे ) अपने बल की वृद्धि के लिये ( पिब ) पान कर, अपने में मिलाले, अपने अधीन कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    काण्वो मेधातिथिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    (ये नाकस्य रोचने-अधि दिवि देवासः-आसते) जो-द्युलोक-नक्षत्र मण्डल के प्रकाशमान ग्रहतारों के समीप देव मरुत वातस्तर हैं (मरुद्भिरग्नआसगहि) उन मरुतोंवातस्तरों के साथ अग्नि प्राप्त होता है ॥६॥

    टिप्पणी

    ऋषिः-काण्वो मेधातिथिः [“कण्वः-मेधाविनाम" (निघं० ३।१५) "करण शब्दे" (भ्वादि०) "करण गतौ” (स्वादि०) मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील का पुत्र शिष्य अधिक मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील जो मेधा से प्रचार करने वाला “मेट मेधायाम्" (स्वादि०) मेघ+अच् मेधश्चासौ अतिथिश्च ] देवता - अग्निर्मरुतश्च ( अग्नि और मरुत्स्तर ) इस सूत्र के प्रथम और नवम मन्त्र निरुक्त में व्याख्यात हैं । वहां इस सूक्त में आए अग्नि को मध्यस्थानी देवों में पढ कर मध्यम देव बतलाया है पार्थिव अग्नि नहीं किन्तु विद्युत्-अग्नि “कमन्यं मध्यमादेवमवक्ष्यत्" (निरु० १०।३६) अतः सूक्त व्याख्या विद्युत् सम्बन्धी वृष्टिविज्ञानपरक "वर्षकामेष्टिः कारीरी" (विनियोगः) तथा "मनुष्यवद देवताभिधानम्" (निरु० १।२) के अनुसार द्युस्थान देवताओं के गुणवर्णन ब्राह्मणोंविद्वानों के लिए मध्यस्थानी देवताओं के गुणवर्णन क्षत्रियों के लिए होने से राजनैतिक वर्णन राज्यशासनविधान युद्धविज्ञान का है।

    विशेष

    ऋषिः-काण्वो मेधातिथिः [“कण्वः-मेधाविनाम" (निघं० ३।१५) "करण शब्दे" (भ्वादि०) "करण गतौ” (स्वादि०) मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील का पुत्र शिष्य अधिक मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील जो मेधा से प्रचार करने वाला “मेट मेधायाम्" (स्वादि०) मेघ+अच् मेधश्चासौ अतिथिश्च ] देवता - अग्निर्मरुतश्च ( अग्नि और मरुत्स्तर ) इस सूत्र के प्रथम और नवम मन्त्र निरुक्त में व्याख्यात हैं । वहां इस सूक्त में आए अग्नि को मध्यस्थानी देवों में पढ कर मध्यम देव बतलाया है पार्थिव अग्नि नहीं किन्तु विद्युत्-अग्नि “कमन्यं मध्यमादेवमवक्ष्यत्" (निरु० १०।३६) अतः सूक्त व्याख्या विद्युत् सम्बन्धी वृष्टिविज्ञानपरक "वर्षकामेष्टिः कारीरी" (विनियोगः) तथा "मनुष्यवद देवताभिधानम्" (निरु० १।२) के अनुसार द्युस्थान देवताओं के गुणवर्णन ब्राह्मणोंविद्वानों के लिए मध्यस्थानी देवताओं के गुणवर्णन क्षत्रियों के लिए होने से राजनैतिक वर्णन राज्यशासनविधान युद्धविज्ञान का है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराने या संसारात प्राण्यांच्या बलवृद्धीसाठी प्रत्यक्ष पदार्थ उत्पन्न केलेले आहेत. सूर्याने नष्ट भ्रष्ट केलेल्या पदार्थांना वायू धारण करतो. त्याच्या संयोगाने प्राणी व अप्राणी बलवान बनतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of sun and wind, these streams of soma are distilled on the holy seats of grass around the vedi, and their sweets and fragrance rise into the skies. These, O Lord, protect, promote and accept for the sake of strength and courage of constancy for the devotees.

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    Subject of the mantra

    Now, air sucks juice of which substances, why and in whom? This has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ye)=that, (adhi)=above, (barhiṣi)=sky in which all substances grow, (īśvareṇa)=by God, [aura]=and, (ime)=these, (somāsa:)=through whom happiness arises, (indavaḥ)=those saps which make wet all substances, (sahase)=for virtues such as power et cetera, (sutāsa:)=created by God, (tān)=to that, (indraḥ)=air, (pratikṣaṇe)=every moment, (pibati)=takes or drinks.

    English Translation (K.K.V.)

    Above in that sky, in which all substances grow and these saps which make all substances wet which have been created by the God. These are one’s through whom happiness arises. For virtues such as power et cetera created by God, that air takes away every moment.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God has created all the personified substances in this world to increase the strength of living beings etc. The wind, which has been pierced by the Sun, holds them close to itself. Due to its combination, creatures and non-living forces happen to be mighty.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The properties of the air are described in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The air takes every moment the sap of various substances created by God under the sky.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (बर्हिषि) बृहन्ति वर्धन्ते सर्वे पदार्था यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्मिन् बृहेर्नलोपश्च (उणा० २.१०५ ) अनेन इसि प्रत्ययो नकारलोपश्च || (सहसे) बलाय सह इति बलनामसु पठितम् ( निघ० २.९) (इन्दव:) उन्दनन्तिस्नेहयन्ति सर्वान् पदार्थान ये ते रसाः । उन्देरिच्चादे: (उणा० १.१२ ) इत्युः प्रत्ययः आदेरिकारादेशश्च ||

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The air upholds all the gross or subtle substances created by God in this world for increasing the strength of creatures, remaining with them. It is by its conjunction that the living beings get strength.

    Translator's Notes

    Though Rishi Dayananda has not quoted Nighantu here, it is clear to show the meaning- बर्हि: बर्हिरित्यन्तरिक्षनाम (निघ० १.३ )

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