ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्द्रं॑ प्रा॒तर्ह॑वामह॒ इन्द्रं॑ प्रय॒त्य॑ध्व॒रे। इन्द्रं॒ सोम॑स्य पी॒तये॑॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । प्रा॒तः । ह॒वा॒म॒हे॒ । इन्द्र॑म् । प्र॒ऽय॒ति । अ॒ध्व॒रे । इन्द्र॑म् । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं प्रातर्हवामह इन्द्रं प्रयत्यध्वरे। इन्द्रं सोमस्य पीतये॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम्। प्रातः। हवामहे। इन्द्रम्। प्रऽयति। अध्वरे। इन्द्रम्। सोमस्य। पीतये॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रशब्देन त्रयोऽर्था उपदिश्यन्ते।
अन्वयः
वयं प्रातः प्रतिदिनमिन्द्रं परमैश्वर्य्यप्रदातारमीश्वरं प्रयत्यध्वरे हवामहे। वयं प्रयत्यध्वरे प्रातः प्रतिदिनमिन्द्रं विद्युदाख्यमग्निं हवामहे। वयं प्रयत्यध्वरे सोमस्य पीतये प्रातः प्रतिदिनमिन्द्रं वायुं हवामहे॥३॥
पदार्थः
(इन्द्रम्) परमेश्वरम् (प्रातः) प्रतिदिनम् (हवामहे) आह्वयेम। बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणम्। (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यसाधकं भौतिकमग्निम्। (प्रयति) प्रैति प्रकृष्टं ज्ञानं ददातीति प्रयत् तस्मिन्। इण् गतौ इत्यस्माल्लटः स्थाने शतृप्रत्ययः। (अध्वरे) उपासनाक्रियासाध्ये यज्ञे (इन्द्रम्) बाह्याभ्यन्तरस्थं वायुम् (सोमस्य) सूयते सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो रसस्तस्य (पीतये) पानाय। अत्र ‘पा’धातोर्बाहुलकात्तिः प्रत्ययः॥३॥
भावार्थः
मनुष्यैः परमेश्वरः प्रतिदिनमुपासनीयस्तदाज्ञायां वर्त्तितव्यं च। प्रतियज्ञं विद्युदाख्योऽग्निर्योजनीयः प्राणविद्यया पदार्थभोगश्च कार्य्य इति॥३॥
हिन्दी (5)
विषय
अब अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से तीन अर्थों का उपदेश किया है-
पदार्थ
हम लोग (प्रातः) नित्यप्रति (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्य देनेवाले ईश्वर का (प्रयत्यध्वरे) बुद्धिप्रद उपासनायज्ञ में (हवामहे) आह्वान करें। हम लोग (प्रयति) उत्तम ज्ञान देनेवाले (अध्वरे) क्रिया से सिद्ध होने योग्य यज्ञ में (प्रातः) प्रतिदिन (इन्द्रम्) उत्तम ऐश्वर्य्यसाधक विद्युत् अग्नि को (हवामहे) क्रियाओं में उपदेश कह सुनके संयुक्त करें, तथा हम लोग (सोमस्य) सब पदार्थों के सार रस को (पीतये) पीने के लिये (प्रातः) प्रतिदिन यज्ञ में (इन्द्रम्) बाहरले वा शरीर के भीतरले प्राण को (हवामहे) विचार में लावें और उसके सिद्ध करने का विचार करें॥३॥
भावार्थ
मनुष्यों को परमेश्वर प्रतिदिन उपासना करने योग्य है और उसकी आज्ञा के अनुकूल वर्त्तना चाहिये। बिजुली तथा जो प्राणरूप वायु है, उसकी विद्या से पदार्थों का भोग करना चाहिये॥३॥
विषय
इस मन्त्र में इन्द्र शब्द से तीन अर्थों का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
वयं प्रातः प्रतिदिनम्इन्द्रं परम्ऐश्वर्य्य प्रदातरम् ईश्वरं प्रयति अध्वरे हवामहे। वयं प्रयति अध्वरे प्रातः प्रतिदिनम्इन्द्रम् हवामहे । वयं प्रयत्यध्वरे सोमस्य पीतये प्रातः प्रतिदिनम्इन्द्रं वायुं हवामहे॥३॥
पदार्थ
(वयम्)=हम, (प्रातः)=प्रातः, (प्रतिदिनम्)=नित्यप्रति, (इन्द्रम्) परमेश्वरम्=परमेश्वर, (परम्)=परम्, (ऐश्वर्य)=ऐश्वर्य्य, (प्रदातरम्)=देने वाले, (ईश्वरम्)=ईश्वर को, (प्रयति) प्रैति प्रकृष्ट ज्ञानं ददादीति प्रयत् तस्मिन्=उत्तम ज्ञान देने वाले, (अध्वरे) उपासना क्रियासाध्ये यज्ञे= उपासना क्रिया से सिद्ध होने वाले यज्ञ से, (हवामहे)=आह्वयेम=आह्वान करें। (वयम्)=हम, (प्रयति) प्रैति प्रकृष्ट ज्ञानं ददादीति प्रयत् तस्मिन्=उत्तम ज्ञान देने वाले, (अध्वरे) उपासना क्रियासाध्ये यज्ञे= उपासना क्रिया से सिद्ध होने वाले यज्ञ से, (प्रातः)= प्रातः (प्रतिदिनम्)=नित्यप्रति, (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यसाधकं भौतिकग्निम्=परम ऐश्वर्य्यसाधक भौतिक अग्नि, (हवामहे)=आह्वयेम=आह्वान करें। (वयम्)=हम, (प्रयति) प्रैति प्रकृष्ट ज्ञानं ददादीति प्रयत् तस्मिन्=उत्तम ज्ञान देने वाले, (अध्वरे) उपासना क्रियासाध्ये यज्ञे=उपासना क्रिया से सिद्ध होने वाले यज्ञ से, (सोमस्य) सूयते सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो रसस्तस्य=सब पदार्थों के रस को, (पीतये) पानाय=पीने के लिये, (प्रातः)=प्रातः, (प्रतिदिन)=नित्यप्रति, (इन्द्रम्) बाह्यभ्यांतरस्थं=बाह्य और आभ्यांतर, (वायुम्)=प्राण वायु का (हवामहे)=आह्वयेम=आह्वान करें ॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों को परमेश्वर प्रतिदिन उपासना करने योग्य है और उसकी आज्ञा के अनुकूल व्यवहार करना चाहिये। बिजली तथा जो प्राणरूप वायु है, उसकी विद्या से पदार्थों का भोग करना चाहिये॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(वयम्) हम (प्रातः) प्रातः (प्रतिदिनम्) नित्यप्रति (परम्) परम्(ऐश्वर्य) ऐश्वर्य्य (प्रदातरम्) देने वाले (ईश्वरम्) ईश्वर का, (प्रयति) उत्तम ज्ञान देने वाले [और] (अध्वरे) उपासना क्रिया से सिद्ध होने वाले यज्ञ से (हवामहे) आह्वान करें। (वयम्) हम (प्रयति) उत्तम ज्ञान देने वाले [और] (अध्वरे) उपासना क्रिया से सिद्ध होने वाले यज्ञ से (प्रातः) प्रातः (प्रतिदिनम्) नित्यप्रति (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्यसाधक भौतिक अग्नि से (हवामहे) आह्वान करें । (वयम्) हम (प्रयति) उत्तम ज्ञान देने वाले [और] (अध्वरे) उपासना क्रिया से सिद्ध होने वाले यज्ञ से (सोमस्य) सब पदार्थों के रस को, (पीतये) पीने के लिये (प्रातः) प्रातः (प्रतिदिन) नित्यप्रति (इन्द्रम्) बाह्य और आभ्यांतर (वायुम्) प्राण वायु का (हवामहे) आह्वान करें ॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रम्) परमेश्वरम् (प्रातः) प्रतिदिनम् (हवामहे) आह्वयेम। बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणम्। (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यसाधकं भौतिकमग्निम्। (प्रयति) प्रैति प्रकृष्टं ज्ञानं ददातीति प्रयत् तस्मिन्। इण् गतौ इत्यस्माल्लटः स्थाने शतृप्रत्ययः। (अध्वरे) उपासनाक्रियासाध्ये यज्ञे (इन्द्रम्) बाह्याभ्यन्तरस्थं वायुम् (सोमस्य) सूयते सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो रसस्तस्य (पीतये) पानाय। अत्र 'पा'धातोर्बाहुलकात्तिः प्रत्ययः॥३॥
विषयः- अथेन्द्रशब्देन त्रयोऽर्था उपदिश्यन्ते।
अन्वयः- वयं प्रातः प्रतिदिनमिन्द्रं परमैश्वर्य्यप्रदातरमीश्वरं प्रयत्यध्वरे हवामहे। वयं प्रयत्यध्वरे प्रातः प्रतिदिनमिन्द्रं हवामहे । वयं प्रयत्यध्वरे सोमस्य पीतये प्रातः प्रतिदिनमिन्द्रं वायुं हवामहे ॥महर्षकृतः ॥३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः परमेश्वरः प्रतिदिनमुपासनीयस्तदाज्ञायां वर्त्तितव्यं च। प्रतियज्ञं विद्युदाख्योऽग्निर्योजनीयः प्राणविद्यया पदार्थभोगश्च कार्य्य इति॥३॥
विषय
इन्द्र का आह्वान
पदार्थ
१. हम उस (इन्द्रम्) - परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही (प्रातः) - इस जीवन के बाल्यकाल में (हवामहे) - पुकारते हैं । (इन्द्रम्) - उस परमेश्वर्यशाली प्रभु को ही (अध्वरे प्रयति) - इस जीवन - यज्ञ के आगे चलने पर , अर्थात् यौवन में व प्रौढ़ता में पुकारते हैं ।
२. सर्वदा प्रभु का स्मरण इसलिए आवश्यक है कि इस सम्पूर्ण जीवन में प्रभु को ही हमारे लिए इन कामादि वासनाओं को पराभूत करना है । इन वासनाओं को पराभूत करके ही हम अपनी शक्ति की रक्षा कर पाते हैं , अतः कहते हैं कि (इन्द्रम्) - उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही हम सोमस्य पीतये सोम की रक्षा के लिए पुकारते हैं । प्रभु का नाम - स्मरण ही वासना - विनाश का कारण बन जाता है और हम शरीर में शक्ति की रक्षा कर पाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम जीवन के प्रातः , मध्याह्न व सायं - सभी कालों में इन्द्र का स्मरण करते हैं ताकि वासनाओं को पराभूत करके शक्ति का रक्षण कर सकें ।
विषय
प्रातः ईश्वरस्मरण ।
भावार्थ
( प्रातः ) प्रातःकाल के अवसर पर प्रतिदिन हम ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर को ( हवामहे ) स्मरण करें । (प्रयति) उत्तम प्रदान करने वाले ( अध्वरे ) यज्ञ में भी हम उसी ( इन्द्रम् ) ईश्वर का स्मरण करें। और ( सोमस्य पीतये ) सोम, परम ब्रह्मानन्द रस के पान करने के लिए ( इन्द्रम् ) परमेश्वर को ही स्मरण करें । अथवा—( प्रातः ) नित्यप्रति, यज्ञ के अवसर पर और सोम रस के पान करने के लिए परमेश्वर, अग्नि विद्युत् और वायु की उपासना, उपयोग और साधना करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो मेधातिथिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
(ये-अद्रुहः-विश्वे देवासः महः-रजसः-विदुः) जो परस्पर द्रोह न करने वाले - परस्पर शृङ्खलित रहने वाले विश्व देव ऋतुएं हैं वर्षा ऋतु के अवयव हैं "ऋतवो वै विश्वे देवा:" [शत ७|१|११४३] ऋतु रूप वातस्तर हैं महान् अन्तरिक्ष को प्राप्त किए हुए हैं उन (मरुद्भिः-अग्ने गहि) महान् जल को प्राप्त हुए हैं मध्य स्थानीय विद्युत् वातस्तरों के साथ प्राप्त हो ॥३॥
टिप्पणी
(ये अद्रुहः-विश्वे देवासः-महः-रजसः-विदुः) जो द्रोह न करने वाले ऐसे प्रजा के प्रति तथा परस्पर भी द्रोह न करने वाले सारे विद्वान् सभी वर्गो के विद्वान् सभी प्रजाओं से लिए जन “विशो विश्वेदेवाः" (शत० ५|५|१|१०१ राजपुरुष जो इस महान् रज्जन कारक लोक राष्ट्र को राष्ट्र निर्माण को जानते हैं इसमें प्राप्त हैं, उन (अग्ने मरुद्भि:-आमहि) युवराज ! राजपुरुषों के साथ शासन पद को प्राप्त हो ॥३॥ “प्रतिलभ्य” [सायणः] “स एष सोमोऽजस्रो यद् गौ:" (श० ७|५|२|१६) “कर्मविशेषमुल्लङ्ध्य” [सायणः] “उत्कृष्टः” सायणः
विशेष
ऋषिः-काण्वो मेधातिथिः [“कण्वः-मेधाविनाम" (निघं० ३।१५) "करण शब्दे" (भ्वादि०) "करण गतौ” (स्वादि०) मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील का पुत्र शिष्य अधिक मेधावी वक्ता ज्ञानी प्रगतिशील जो मेधा से प्रचार करने वाला “मेट मेधायाम्" (स्वादि०) मेघ+अच् मेधश्चासौ अतिथिश्च ] देवता - अग्निर्मरुतश्च ( अग्नि और मरुत्स्तर ) इस सूत्र के प्रथम और नवम मन्त्र निरुक्त में व्याख्यात हैं । वहां इस सूक्त में आए अग्नि को मध्यस्थानी देवों में पढ कर मध्यम देव बतलाया है पार्थिव अग्नि नहीं किन्तु विद्युत्-अग्नि “कमन्यं मध्यमादेवमवक्ष्यत्" (निरु० १०।३६) अतः सूक्त व्याख्या विद्युत् सम्बन्धी वृष्टिविज्ञानपरक "वर्षकामेष्टिः कारीरी" (विनियोगः) तथा "मनुष्यवद देवताभिधानम्" (निरु० १।२) के अनुसार द्युस्थान देवताओं के गुणवर्णन ब्राह्मणोंविद्वानों के लिए मध्यस्थानी देवताओं के गुणवर्णन क्षत्रियों के लिए होने से राजनैतिक वर्णन राज्यशासनविधान युद्धविज्ञान का है।
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी प्रत्येक दिवशी परमेश्वराची उपासना करावी. त्याच्या आज्ञेप्रमाणे वागावे. विद्युत व प्राणवायूच्या विद्येने पदार्थांचा भोग केला पाहिजे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Every morning, in every yajnic programme of body, mind and soul, we invoke, awake and develop Indra, lord omnipotent of light and honour, Indra, solar and electric energy, and Indra, energy of wind and prana for the protection, promotion and enjoyment of soma, spiritual bliss, pleasure and joy, and power and prosperity.
Subject of the mantra
Now, by the word “Indra” three things have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(vayam)=We (prātaḥ)=in the morning, (pratidinam)=daily, (param)=supreme, (aiśvarya) =majesty, (pradātaram)=provider, (īśvaram)=of God, (prayati)=provider of best knowledgeable, [aura]=and, (adhvare)=by the yajan that is accomplished by the act of worship, (havāmahe)=invoke, (vayam)=we, (prayati) =provider of best knowledgeable, (adhvare)=by the yajna that is accomplished by the act of worship, (prātaḥ)=in the morning, (pratidinam)=daily, (indram)= through the supreme opulent physical fire, (havāmahe)=invoke, (vayam)=we, (prayati)=provider of best knowledgeable, (adhvare)=by the yajan that is accomplished by the act of worship, (somasya)=the juice of all things, (pītaye)=for enjoing, (prātaḥ)=in the morning ,(pratidina)=daily, (indram)=outer and inner, (vāyum)=breath, (havāmahe)=invoke.
English Translation (K.K.V.)
In the morning daily, we should invoke God who gives supreme opulence, is one who bestows knowledge and performs the rituals of worship, with a yajan. May we invoke from the material fire the supreme opulence seeker every morning, from the sacrificial fire, which gives the best knowledge and is accomplished by the act of worship. Let us invoke the external and internal life-breath daily in the morning to enjoy the juice of all substances from the yajan, which gives the best knowledge and is accomplished by the act of worship.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Human beings are worthy of worshiping God every day and should behave according to His command. Materials should be enjoyed by the knowledge of electricity and the air which is of life form.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now by the term Indra, three substances are taught. (God, Agni in the form of electricity) and the prana or Vital breath.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) Every day in the morning, we invoke or remember God Who is the Giver of great wealth during the inner non-violent sacrifice of the communion or contemplation which gives us true knowledge for drinking the juice of peace. (2) Every day in the morning, we invoke the fire in the form of electricity in the non-violent sacrifice of art and industry for drinking the juice of various articles. (3) Every day in the morning, we invoke in the non-violent sacrifice the inner and the outer form of Vayu or air, inner being in the form of Prana or vital breath for taking the sap of various substances.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
प्रथमचरणे (इन्द्रम्) परमेश्वरम् = God. द्वितीयचरणे ( इन्द्रम् ) परमैश्वर्यसाधकं भौतिकमग्निम् विधुदूपं वा = Electricity. तृतीयचरणे (इन्द्रम्) बाह्याभ्यन्तरस्थं वायुम-माणरूपं वायुं च (प्रयति) प्रेति-प्रकृष्टं ज्ञानं ददातीति = Prana and air प्रयत् तस्मिन् इण्-गतावित्यस्मात् शतृप्रत्ययः = Giver of knowledge. (सोमस्य) सूयते सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो रसस्तस्य = of the sap or juice.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should contemplate on God or adore Him every day and should according to His injunctions (contained in the Vedas). They should yoke Agni (fire in the form of electricity etc.) in every Yajna (philanthropic activity). They should enjoy all things properly acquiring the knowledge of the science of Prana or Vital energy.
Translator's Notes
This is one of the most important Mantras showing the significance or distinguishing feature of Rishi Dayananda's commentary. Sayanacharya, Skanda Swami, Venkat Madhava all have given only one meaning for the word Indra used here. Skanda Swami the earliest commentator of them explains Indra as इदि परमैश्व सुष्ठु ईश्वरम् प्रयति प्रवृत्ते Sayanacharya simply says- प्रातः कर्माम्मे प्रातः सव इन्द्रं हवामहे आह्वयाम: तथैवाध्वरे सामयागे प्रयति-प्रगच्छति वर्तमाने संति मध्यन्दिनसवने तमिन्द्रं हवामहे | तथा यज्ञस्य समाप्त्यवसरे तृतीयसवने सोमस्य पीतये सोमपानार्थं हवामहे ॥ Prof. Wilson following Sayanacharya translates- "We invoke Indra in the morning rite, we invoke him at the succeeding sacrifice, we invoke Indra to drink the juice. GRIFFITH'S TRANSLATION IS “Indra at early morn we call, Indra in course of sacrifice, Indra to drink the juice. But Rishi Dayananda gives three different meanings of the word Indra as (1) God, the Lord and Giver of great wealth (2) Agni or fire particularly in the form of electricity (3) Prana-vital breath and air Vayu. For the meaning of Indra as electricity the following passages may be quoted from the Brahmanas. यदशनिरिन्द्रस्तेन ( कौषीतकी ब्राह्मणे ६. ९) i. e. Electricity is Indra ( kaushi. Bra. 6.9). In the Shatapath Brahmana 11.6.3-9 it is stated स्तनयित्नुरेवेन्द्र: ( शत० ११. ६. ३. ९) i.e. Lightning or electricity is called Indra. So Rishi Dayananda's meaning is well-authenticated and is not his own imagination. As for the meaning of the word Indra as Prana or Vayu, it is to be remembered that in. Shatapath Brahmana 6.1.2-28 it is stated प्राण इन्द्र: (शत० ६.१.२.२८ ) i. e. Indra is. Prana In the Shatapath 14.2.2-6 it is stated as we have already quoted अर्थं वा इन्द्रोयोऽयंवातः पवते (शत० १४. २. २.६ ) Indra is air. In Shatapath Brahmana 4.1.3.19 it it is stated यो वै वायुः स इन्द्रः य इन्द्रः स वायु : ( शत० ४. १. ३. १९ ) i. e. Indra is called Vayu (air) and air is called Indra The two are synonymous terms. So Rishi Dayananda's interpretation is not only wonderful showing the fertility of his brain, but it is well-authenticated from ancient. Vedic literature, as shown above.
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